आलेख
“फूलदेई”
कहानी
प्रतिभा नैथानी
“भौंरो का जूठा फूल न तोड्याँ
म्वारयूं का जूठा फूल न लैंया। चलो फुलारि फूलों को”
एक छोटी सी लड़की थी । उसकी मां को जब उसे छोड़कर घर के दूसरे काम देखने होते थे , तो वो एक ही जगह उसका मन लगाये रखने के लिए घर के आस- पास खिले छोटे-छोटे पीले जंगली फूलों की नथ बना उसे थमा देती थी । लड़की उसे पहन-पहन बहुत खुश होती।
जब वो बड़ी हुई , उसके पिता ने उसके लिए सोने की नथ बनायी और फिर वो ससुराल आ गयी , उसके दो बच्चे हुए !!
अब उसने भी अपने बच्चों को बहलाने के लिए उन फूलों को ढूंढ़ा मगर वो जंगली फूल अब कहीं न थे ।
वो फूल अब नहीं खिलते शायद सोच कर उसका मन उदास था क्योंकि उस नथ की सजीली बुनावट बसी थी इस तरह उसके दिल में कि मां के आँगन की तरह ही उन फूलों की चाह भी रोज खींच लाती उसे यादों के जंगल में ।
हां ! यही तो संस्कृति है देवभूमि की । घर-घर ,आँगन – आँगन फूल । ‘फूलदेई’ के पर्व पर टोकरी में फूल लिए देहरी-देहरी घूमती छोटी-छोटी बालिकाऐं ..’फूल देई ,छम्मा देई’ कहती हुईं।
“भौंरो का जूठा फूल न तोड्याँ
म्वारयूं का जूठा फूल न लैंया। चलो फुलारि फूलों को” गाती हुईं एकदम ताजे अनछुए फूल चाहिए हमारी फुल्यारियों को,जो उत्तराखँड में फूल-सक्राँति के दिन से घर-घर की देहरियों को मुंह अंधेरे ही फूलों से भर देंगी ।
एक माह तक हर रोज फूल चुनकर लाती छोटी कन्याऐं फूलों के बदले गुड़,चावल और पैसों का प्रसाद पाती हैं। माह समाप्ति पर पर्व के आखिरी दिन बैसाखी को सब कन्याओं को दाल -भरी कचौड़ियाँ और पकौड़े जीमने को मिलते हैं ।
कितनी सुन्दर है ना ये फूलों भरी परंपरा । वसंत हर जगह आता है , लेकिन यूं छककर पेड़ – पौधों पर लद जाना कि महीने भर तक भी फूल तोड़ते रहो तो भी ऋतुराज अपना भार कम हुआ न जाने !
ऐसा सौभाग्य कुदरत ने सिर्फ हिमालयी राज्यों को ही दिया है । हमारे उत्तराखंड में फूलों की घाटी इसका प्रमाण है । मेघदूतम् में कालिदास ने पुरातन समय की जिन सुन्दर कन्याओं को फूलों का श्रृंगार करते अलकापुरी के मार्ग पर विचरण करते हुए बताया है, निश्चित ही वो देवभूमि,उत्तराखंड ही रही होगी । आधुनिक समय में स्कूल जाने के क्रम में अब लड़कियों के पास अल-सुबह फूलों से देहरी पूजने या अपने कान, बाल,गले में फूलों से सजने का ये उपक्रम दोहराने का समय और शौक शेष न रहा ।
जिन्होंने जिये हैं ये चटकीले दिन, महीने भर तक चलने वाले फूलदेई पर्व का दुहराव उनके लिए एक बार फिर वही बचपन वाली फूलों की नथ पा लेने से कम तो नहीं !
प्रतिभा की कलम से