आलेख
बसंत पंचमी: ज्ञान,कला,विज्ञान,शब्द-सृजन, व संगीत की अधिष्ठात्री का दिन।
“कला का सदुपयोग व आत्मनवीनीकरण ही उस सर्वोच्च एश्वर्य से अलंकृत मां सरस्वती को अंगीकार करना है।”
सुनीता भट्ट पैन्यूली
एक साहित्यिक उक्ति के अनुसार,“प्राण तत्व ‘रस’ से परिपूर्ण रचना ही कला है” इसी कला की प्रासंगिकता के परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि सृष्टि की रचना, अनादिशक्ति ब्रहमा का अद्भुत चमत्कार है और उसमें अप्रतिम रंग,ध्वनि,वेग,स्पंदन व चेतना का स्फूरण मां सरस्वती की कलाकृति।
यही कला का स्पर्श हमें उस चिरंतन ज्योतिर्मय यानि कि मां सरस्वती से एकाकार होने का अनुभूति प्रदान करता है।क्योंकि यही देवी सरस्वती ही ज्ञान,कला,विज्ञान,शब्द-सृजन, व संगीत की अधिष्ठात्री हैं।सरस्वती मां को मूर्तरुप में ढूंढना उनकी व्यापकता को बहुत संकुचित करता है।
दरअसल जहां-जहां कला अहैतुकि,नि:स्वार्थ एवं जगत कल्याण के लिए सजग व सक्रिय है सरस्वती का वहीं वास है। जहां सात्त्विक जीवन,कला के विभिन्न रूपों का अधिष्ठान,अध्यात्म,गहन चिंतन,विसंगति के वातावरण में रहकर भी आंतरिक विकास और ऊंचाई पर पहुंचने का चरम है। वहीं सरस्वती विद्यमान है।कला का बोध होना और साधनारत होकर उसका सकारात्मक क्रियान्वयन ही मां सरस्वती के जीवन को चरितार्थ करना है।
क्या आप जानते हैं कि राग-रागनियों का संगीत,जगत में लयात्मकता,स्पंदन,उत्पत्ति,विकास,जागरुकता,चिंतन और चेतना के स्वर किसने जगत को प्रदान किये हैं? देवी सरस्वती ही संपूर्ण चराचर को उपरोक्त कलात्मक तत्व से अलंकृत करने वाली भगवान ब्रह्मा की सृष्टि सहयोगिनी हैं।एक समय की बात है जब समस्त प्रकृति जड़वत थी जहां चेतना का अभाव था।
एक छोर से दूसरे छोर तक निस्तब्धता विराजमान थी।ना कोई आहट, ना आह्लाद।सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी को अपनी ही बनाई हुई कृति अरूचिकर व विकृत महसूस हुई क्योंकि वह मूक व रंगहीन थी।उसमें सरसता नदारद थी।ब्रह्मा जी के आग्रह व विष्णु सहित सभी देवताओं के आह्वान पर आदिशक्ति ने अपने तेज से दिव्य ज्योति को उत्पन्न किया।यही दिव्य ज्योति सरस्वती के रूप में प्रकट हुई।सरस्वती ने जैसे ही प्रकृति में वीणा के मधुर स्वर छेड़े, भाषा-शब्द और कला के संचार के साथ समस्त जीव व वनस्पति जीवंत हो गये अर्थात सभी प्राणियों में नाद और वाणी के प्रवाह से प्रकृति की सत्ता में विद्यमान प्रत्येक अस्तित्व को पहचान मिल गयी।
अतः शीत की कलांतता के पश्चात प्रकृति का इसी जीवट और जीवंत स्वरुप में लौटना ही बसंत ऋतु का आरंभ है।मां शारदे की कृपा से मूक प्रकृति के वाचाल होने के दिन ही माघ महीने की शुक्ल पंचमी को मां शारदे का अवतरण दिवस बसंत पंचमी के रुप में मनाया जाता है।जिसे ऋषि पंचमी या श्री पंचमी भी कहा जाता है।
मां सरस्वती ज्ञान,कला और संगीत की अधिष्ठात्री हैं यह तो सर्व विदित ही है किंतु यदि मानवीय जीवन के परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो मां सरस्वती की चारित्रिक विशेषताएं अनुकरणीय हैं।वेदों में वाग्देवी शुक्लवर्ण व शुभ्रवसना हैं अर्थात मां श्वेत वस्त्र धारण करती हैं। श्वेत रंग सादगी और शांति का प्रतीक है।मां शारदा का श्वेत वसन जीवन में सदाचारिता और सतोगुण धारण करने का आह्वान करता है।
संंभवत: कला के उद्देश्य की जब सकारात्मक व फलदायक पूर्ति हो जाती है।आंतरिक सौंदर्य स्वत: ही ओज के रूप में उभर आता है,मुखमुद्रा का यही ओजस्वी रुप मां भारती का भी है।तभी तो उनके मुख की कांति धवल व हिमराशि के समान है वह उनके अधरों पर मंद व मधुर स्मित फैली हुई है।मां ज्ञानदा के व्यक्तित्व का यह श्वेत रंग ज्ञान के प्रकाश से अंधकार को दूर करके “तमसो मां ज्योतिर्गमय”अर्थात अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ने का बोध कराता है।यह श्वेत रंग ही भौतिकता में ही लिप्त ना होकर साधारण जीवन जीने व उच्च जीवन मुल्यों को अपनाने का संदेश देता है।
मां सरस्वती को पद्य (कमल) बहुत पसंद है।कमल पर विराजमान होकर वह विसंगतियों के दल-दल के बीच रहकर भी विपरीत परिस्थितियों में स्वयं का उज्जवल विकास करने हेतु प्रेरित करती हैं।मां अपनी दो भुजाओं में वीणा धारण करती हैं।इसी कारण उनका एक नाम वीणापाणी भी है।जिसका अर्थ है कि संगीत ही जीवन में प्राण और रस की उत्पत्ति है अतः प्रकृति की निस्तबधता,शिथिलता और निष्क्रियता को झंकृत करने हेतु संगीत और कला का रसास्वादन और उन पर आसक्ति अपरिहार्य है।
मां सरस्वती एक भुजा में स्फटिक माला धारण किये हुए है जो चित्त की एकाग्रता और ध्यान का स्मरण कराने के साथ-साथ जीवन में संतुलन और ठहराव की अनिवार्यता को भी इंगित करती है।माला का जाप करना दरअसल ज्ञान का शाश्र्वत चक्र भी है जिसका कभी अंत नहीं होता है।
मां शारदा के जीवन से संबंधित सभी रूपक उद्दात जीवन मूल्यों को धारण करने का आहवान करते हैं।उनका वाहन हंस सौंदर्य-कला व अपने नीर-क्षीर विवेक के लिए प्रसिद्ध है। जीवन में बुद्धि और विवेक से हर परिस्थिति का सामना करने और सदसद्विवेक का आचरण धारण करना ही की सही मायने में सरस्वती की अभ्यर्थना है।
मां सरस्वती को शतरूपा,वीणापाणी, वीणावादिनी,ज्ञानदा,वाग्देवी,वागीशा,वागीश्वरी,भारती,शारदा,जलदेवी,वाणीपद्यासना,शुभ्रवसना,ब्रहमाणी,ब्राहमी, भारदी,श्वेतपद्यासना इत्यादि नामों से जाना जाता है।
माघ शुक्ल की पंचमी को मां शारदा का अवतरण दिवस बसंत पंचमी,ऋषि पंचमी या श्री पंचमी के रूप में मनाया जाता है।वह ऋग्वेद में एक नदी की देवी हैं।शारदा,ज्ञान की दाता,ब्रहमाणी,विज्ञान की देवी,ब्राहमी,ब्रहमा की पत्नी,यहां विद्या,परम ज्ञान की धारक,भारती,वाकपटूता,भारदी इतिहास की देवी,वाणी और वाची,वर्णेश्वरी अक्षरों की देवी,कविजविग्रहवासिनी,कवियों की जीभ पर वास करने वाली,महाविद्या पारलौकिक ज्ञान,आर्या श्रेष्ठ व्यक्ति,महावाणी, पारलौकिक शब्द,कामधेनु(जैसी इच्छा पूरी करने वाली गाय,वागेश्वरी वाणी की मालकिन सुरसा-वति(सुरस-वति) एक संस्कृत मिश्रित शब्द है जिसका अर्थ है पानी से भरपूर।भारत के अतिरिक्त सरस्वती पूजा नेपाल, बांग्लादेश,थाईलैंड, जापान, इंडोनेशिया में भी अन्य नामों से मनाई जाती है।
सरस्वती नाम का अन्य अर्थ सर यानि सार स्व मतलब स्वयं जिसका शाब्दिक अर्थ है स्वयं का सार यानि कि जो स्वयं के सार की ओर जाता है अर्थात आत्मज्ञान या आत्मनवीनीकरण या नवचेतना की अवस्था।कला,ज्ञान, संगीत और विज्ञान से मनुष्य का जीवन और व्यक्तित्व समृद्ध व परिपूर्ण तो हो सकता है किंतु यह मात्र उच्छिष्ट है।मां सरस्वती को जानना व समझना है तो कला की साधना का मार्ग भी आत्मनवीनीकरण के रुप में उस परम ज्योतिपुंज का प्रवाह स्वयं में महसूस किया जा सकता है।कला का सदुपयोग व आत्मनवीनीकरण का माध्यम ही उस सर्वोच एश्वर्य से अलंकृत मां सरस्वती के चरित्र को अंगीकार करना है।
यह हम सभी जानते हैं कि मनुष्य का विकास ज्ञान और सकारात्मक विचारों से होता है।यह हमारी सनातन संस्कृति ही है कि सरस्वती देवी का अधिष्ठान सरस्वती के अवतरण दिवस यानि बसंत पंचमी पर घर-घर में किया जाता है।
(सुनीता भट्ट पैन्यूली)