आलेख
“गुलाबी_ग्रहण”
(कहानी)
“राघवेन्द्र चतुर्वेदी”
अक्सर वीरानियों से भरी ख़ामोश रातें कुछ कहना चाहती हैं बेहद करीब से अपने अंतर्मन की पीड़ा वेदना और रूदन किसी शांत हृदय से..पर कभी कभी ही ऐसा हो पाता है।
ये बात तब की है जब मोबाइल फोन नहीं हुआ करते थे ।
ठंड का मौसम और रात के करीब दस बज रहे थे और सलोनी आज शेखर की पसंदीदा गुलाबी साड़ी पहन खाने की तैयारी कर रही थी। वो बार बार घड़ी की ओर देख रही थी परेशान हो रही थी मन ही मन सोचकर कि इतनी देर हो गई और शेखर अभी तक घर नहीं आए!
वो भीतर ही भीतर अकुलाहट से द्वन्द्व कर रही थी।न जाने कितने ही नकारात्मक विचारों ने उसके मन को घेर रखा था ।एक तरफ वो ईश्वर को याद कर रही थी दूसरी ओर बुरे बुरे विचारों की जद्दोजहद भी थी।कभी खिड़की से झांकती तो कभी दरवाजा खोल बाहर आ रास्ते को टकटकी लगा देखती । जैसे जैसे समय बढ़ रहा था और रात गहरी हो रही थी उसका मन भय से भरने लगा था क्योंकि ऐसा उसके साथ पहली बार हो रहा था जब शेखर को आने में इतनी देर हुई हो !
आस-पास न कोई घर और न पड़ोसी जिसे वो अपनी पीड़ा कह सके …अब वो सोचने लगी पांच मिनट और देखूंगी नहीं तो चलूंगी पता करने कि अब तक क्यों नहीं आए !
उधर शेखर को उस दिन कारखाने में ओवरटाइम करना पड़ा इसलिए उसे घर पहुंचने में देर तो होने वाली थी पर वो इसकी सूचना घर तक पहुंचाने में असमर्थ था। खैर! शेखर कारखाने से रात साढ़े दस बजे निकल गया था और उसके मन में भी सवालों की झड़ी लगी थी और उससे कहीं ज्यादा उसे सलोनी की फ़िक्र खाएं जा रही थी कि ना जाने वो कैसी होगी! क्या सोच रही होगी!उसे बहुत चिंता हो रही होगी! आस-पास कोई है भी नहीं न जाने क्या हाल होगा उसका ! मन ही मन सोचकर परेशान वो बस अपनी साइकिल से घर की ओर चले जा रहा था ।
सुनसान रास्ते ठंड की काली रात और कोहरे उसकी गति को धीमी कर रहे थे पर सलोनी की चिंता उसे परेशान कर रही थी।पर मन ही मन वो याद कर रहा था अपनी पहली मुलाक़ात को जब उसने सलोनी को देखा था। उसकी मुस्कराहट में दुनिया सिमट गई थी। इधर सलोनी घबराहट से पसीने पसीने हुए जा रही थी ।और उसने तय किया कि वो कारखाने की तरफ जाएगी शेखर का पता करने । फिर उसने घर को ताला लगाया और टार्च लेकर पैदल ही निकल पड़ी।
वो ठंड से ठिठुरते हुए बस तेज कदमों से आगे बढ़ रही थी। मन में शेखर की चिंता और अब सुनसान रास्ते पर डर भी लग रहा था लेकिन शेखर के प्रति उसके प्रेम द्वारा उसे हिम्मत मिल रही थी।
उधर शेखर भी उसी रास्ते से घर की तरफ आ रहा था पर साइकिल पंचर हो जाने से वो साइकिल को लेकर पैदल चल रहा मानो जैसे कोई अपने छोटे से बच्चे को रात में सैर पर लेकर निकला हो । इधर सलोनी की नजरें सड़क पर किसी न किसी को ढूंढ रही थी शायद कोई मिल जाए तो उससे पूछ ले ! पर रात के एक बज चुके थे और रास्ते बस सूनेपन के शिकार थे।
दोनों एक ही रास्ते पर एक दूसरे की फ़िक्र में बढ़ रहे थे और कोहरे की धुंध मानों परीक्षा लेने पर अड़ी हो । धुंध की चादर में कब दोनों एक-दूसरे के बगल से गुज़र गये उन्हें एहसास भी न हुआ। थोड़ी ही देर में शेखर घर पहुंचा और घर पर ताला देख बांवरा सा व्यवहार करने लगा । उधर सलोनी कारखाने पहुंच गई तो सुरक्षाकर्मी ने बताया कि शेखर भैया तो साढ़े दस बजे चले गए यहां से!
सलोनी ये सुन और डर गई कि वो गये तो गये कहां उधर से ही तो मैं आ रही ! मुझे तो दिखे नहीं! वो खुद में ही बड़बड़ाने लगी । ये देख सुरक्षाकर्मी ने उसे पानी पिलाया और कहा घबराइए मत वो घर ही गये हैं;! इधर शेखर को समझ नहीं आ रहा था कि इतनी रात को सलोनी कहां गयी ! किससे पूछे ! फिर उसने मन ही मन सोचा कि कहीं मुझे ढ़ूढ़ने कारखाने तो नहीं गयी? फिर वो वापस कारखाने की ओर पैदल ही तेज कदमों से निकल पड़ा ….उधर सलोनी भी घर की ओर तेज कदमों से दौड़ पड़ी । यूं लग रहा था मानों उसकी सांसें फूल रही हों भय से ! मन नकारात्मकता से घिरा हुआ था ।
उधर शेखर भी रास्ते पर भागा हुआ दौड़ रहा था..इस बार वो धुंध में सलोनी! सलोनी की आवाज देते हुए आ रहा था तभी सामने से उसे सलोनी दिखाई पड़ी और उसकी जान में जान आई ! वो दौड़ कर उसके पास पहुंचा और बिना कुछ कहे बस बांहों में समेट लिया। इधर सलोनी शेखर से लिपट बस रोए जा रही थी फूट-फूटकर! और ये पल ये लम्हा कुछ पल को यूं ही थम गया मानों आज की रात ग्रहण लगने से बच गया.. वीराने मुस्कुरा उठे और रास्ते महसूस कर रहे हों उस प्रेम के एहसास को …
“राघवेन्द्र चतुर्वेदी” (बनारस,उत्तरप्रदेश)