उत्तराखण्ड
‘गुरुदेव’
‘टैगोर’ कोई एक परिचय में सीमित होने वाला नाम नहीं है। वह भारत और बांग्लादेश के नागरिकों के लिए ‘जन गण मन’ और ‘आमार सोनार बांग्ला’ जैसे राष्ट्रगान के रचयिता हैं। टैगोर शांतिनिकेतन के संस्थापक हैं। वह जोड़ासांको के जमींदार देवेंद्र नाथ ठाकुर के कनिष्ठ पुत्र भी हैं। बंगाल वालों के लिए रविंद्रसंगीत के प्रणेता हैं तो सारे भारत के गुरुदेव भी हैं। विश्व की बात की जाए तो “गीतांजलि” पर साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार जीतने वाले प्रथम भारतीय भी वही हैं ।
इन सबसे परे किसी भी शिक्षक और विद्यार्थी के बीच शिक्षा के आदान-प्रदान का सबसे सहज और कोमल सेतु का नाम भी है ‘गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर’ ।
टैगोर के शांतिनिकेतन में शिक्षा व्यवस्था का क्रम क्या था ? विद्यार्थियों को पढ़ाने का तरीका,विषय,पाठ्यक्रम, अभिरुचि, सांस्कृतिक गतिविधि इत्यादि के बारे में समस्त जानकारी शिक्षा में प्रकृतिवाद के अध्ययन से मिल जाती है। लेकिन यह सब छोड़ कर यदि हम सिर्फ शांतिनिकेतन के भूतपूर्व छात्र/छात्राओं जैसे -सत्यजीत रे, महारानी गायत्री देवी, अमर्त्य सेन, कनिका बंदोपाध्याय, अमिता सेन, शैलजा रंजन, ज्योतिष देवबर्मन, जयंती पंत, मैत्रैयी देवी और इंदिरा गांधी जैसी नामचीन हस्तियों की सूची मात्र पर ही गौर कर लें तो सिनेमा,साहित्य,संगीत, चित्रकला,अभिनय,अर्थशास्त्र, राजनीति के क्षेत्र में इनके अभूतपूर्व योगदान और उल्लेखनीय कार्यों को देखते हुए अपने आप समझ में आ जाता है कि टैगोर की कितनी महान और प्रायोगिक संकल्पना रही है शांतिनिकेतन को स्थापित करने में।
टैगोर अपनी रचनाएं बांग्ला में ही लिखा करते थे, और दूसरों को भी यही सलाह दिया करते थे कि मातृभाषा में लिखने से आप अपने मनोभावों को ज्यादा स्पष्ट और सटीक उतार पाएंगे।
सही सोच थी गुरुदेव की। वाकई सच है कि यदि आप अपनी अभिव्यक्ति में सफल हैं तो दुनिया की हर भाषा खुद आपके विचारों के द्वार दौड़ी चली आएगी अनूदित होने के लिए। इसीलिए तो जितना बंगाल में,उससे रत्ती भर भी कम लोकप्रिय नहीं गुरुदेव देश और विदेश में। रूस के साहित्य प्रेमी लोग आज भी प्यार से उन्हें ‘तागोरा’ उच्चारित करते हैं। रशियन जानते हैं कि राज कपूर और नरगिस से भी कहीं बहुत पहले भारत ‘तागोरा’ का देश है।
असल में गुरुदेव विश्व धरोहर हैं,लेकिन यह भी सच है कि अपने विद्यालयी जीवन में वे बहुत असफल विद्यार्थी रहे। समृद्ध परिवार में जन्म लेने का सौभाग्य उनके साथ जुड़ा था कि कक्षा में फेल हो जाने से भी उनके नाम पर कोई खास बट्टा नहीं लग जाता था। अपनी असफलताओं को दूसरों के लिए विजित बनाने की राह खोलने का प्रायोगिक मार्ग समझकर उन्होंने शांतिनिकेतन और विश्वभारती जैसी महान शिक्षण संस्थाओं की स्थापना कर भारत को गौरवान्वित किया।
प्रतिभा नैथानी (देहरादून)