आलेख
हिन्दू और नाच…..
उपेंद्र शर्मा
इन दिनों गुजरात और राजस्थान नौरात्रि के गरबों में जमकर नाच रहे हैं, कोरोना के बाद पहली बार प्रशासनिक स्वीकृति मिली है आयोजन की। नाच भी इतने उत्साह से कि उनके आनंद और प्रेम का अनुमान लगाना कठिन है। वो क्या शक्ति है जो 5 साल के बच्चों से लेकर वृद्धों तक को नचा रही है। वो भी आधी रात को। 2-4 मिनट नहीं बल्कि 6-7 घण्टों तक। अगले दिन सब अपने काम पर भी जाते हैं…
नाच कौन सकता है ? क्या कभी यह सवाल आपके दिमाग में आया है। हम किसी को बेतहाशा नाचता देख कह देते हैं कि पागल की तरह नाच रहा (या रही) है। जबकि पागल लोग नाच ही नहीं पाते…
क्या कभी मानसिक रूप से चालाक या धूर्त लोगों को नाचते देखा है। क्या किसी को नाचते देख उन्हें पैर के अंगूठे थिरकाते देखा है। क्या ऑफिस पोलिटिक्स के माहिर खिलाड़ी नाच सकते हैं? मेरे ख्याल से नहीं। कतई नहीं। आप अपने आसपास ही नज़र दौड़ा लिजिए। दूसरी तरफ आम तौर पर राजनेता, राजनयिक, वैज्ञानिक, अर्थ वित्त विशेषज्ञ नाच नहीं पाते हैं लेकिन फौज़ी और खिलाड़ी आसानी से नाच लेते हैं….
संसार भर में हिन्दू ही इतने निर्मल और प्रेमल हैं बतौर एक संस्कृति कि उन्होंने संसार को नाचना सिखाया है…यह जो दुनिया में प्रेम की तरंग है ना वो हिंदुओं ने ही दी है…शंकर नाचे, कृष्ण नाचे, राधा नाची…उन्हीं की सन्तति हम सब आज तक नाच रहे हैं…किसी का धर्म पूछकर उसकी हत्या करना हिंदुओं ने ना सीखा ना सिखाया..हां नाच रहे हैं प्रेम में आज भी…
आपने बहुत से मोटे लोगों को नाचते अवश्य देखा होगा जबकी वे आम तौर पर 2 किलोमीटर पैदल नहीं चल सकते। दुनिया में ऐसे भी धर्म, संस्कृतियां, सभ्यताएं हुई हैं और अब भी हैं जहां नाचने पर रोक है। यहां तक कि उसे पाप माना गया है। और ऐसी भी संस्कृति मौजूद है। बल्कि फल-फूल रही है जहां नाचना धर्म, ईश्वर, जीवन सब आपस में जबर्दस्त गुत्थमगुत्था हैं..वो हिन्दू ही है…
क्या स्त्रियाँ पुरुषों की तुलना में ज्यादा नाचती हैं ? ज्यादा नृत्य प्रिय होती हैं ? क्या यह उनकी स्वाभाविक शारीरिक लोच के ही कारण है या फ़िर कोई रिश्ता कोमल मन का है क्युंकि नाचना सदा कोमलता से ही सम्भव है। तलवार और खून खच्चर के शौकीन कभी नाच ही नहीं पाए…
क्या नाचने में आर्थिक समृद्धि की भी भूमिका है। गरीब लोगों की तुलना में अमीर ज्यादा सुन्दर नाचते हैं ? धर्म की क्या भूमिका है नाचने में ? रेगिस्तान में पेट्रोल बेचकर अमीर हुए देश क्यूँ नहीं नाचते हैं जबकि गरीब आदिवासी खूब नाचते हैं। यूरोप खूब नाचता है लेकिन शारजाह जेद्दाह वाले नहीं नाचते। राजस्थान में जो कालबेलिया नृत्य की परम्परा है वो मुल्तान, पंजाब, ईरान, इराक, सीरिया, टर्की होते हुए स्पेन तक जाती है जो कमर की लोच पर सारा नृत्य करते हैं। कभी यह नाच ही ट्रेड रूट का निर्माता था। आज समाज कहने को तो आधुनिक हो चुका पर यह परम्परा यह रूट अब बन्द हो चुका। अब तो राजस्थान में भी नाच मर चुका। ले दे के वो एक घूमर था जिसमें भी भंसाली ने मिलावट कर डाली…
बशादी की बारात में फूहड़ किस्म के पुरुष नागिन डान्स करते हैं और उसे नाच समझते हैं। उन्हें नाचने के लिए शराब की भी जरुरत पड़ती है। जबकि बहुत सी स्त्रियाँ हैं जो रसोई में खाना बनाते हुए भी थोड़ा थोड़ा सा चुपके से नाच लेती हैं…
एक बात तय है नाचना आसान नहीं। सिर्फ मन के स्तर पर खूबसीरत लोग ही नाच सकते हैं। जिनके मन मलिन हैं वे लाख चाहकर भी नाच नहीं सकते। फिल्म अभिनेता धर्मेंद्र मोहब्बत वाले थे इसलिये नाचना (पारम्परिक) ना जानते हुए भी नाच लेते थे। बेटे पोते नहीं नाच पाए। हेमा मालिनी अब तक नाच लेती हैं पर बेटियाँ युवा होते हुए भी नाच नहीं सकीं….
आदिवासियों का एक फार्मूला लीजिए। अगर आप किसी को अपना जीवन साथी बनाना चाहते हैं तो देख लीजिए उसको नाचना आता है या नहीं। वो अगर बिना संगीत के नाच सकता (या सकती) हो तो सोने पर सुहागा। याद रखना यह दुर्लभ है आसानी से नहीं मिलेगा। हां मिलता है तो उस से अधिक प्रेमल फ़िर कोई नहीं।
भगवान करे हिन्दुओं की यह समृद्धि, संस्कृति और प्रवृत्ति सदा बनी रहे और पूरे संसार में फैले जहां नाच में प्रेम और प्रेम में नाच है…
उपेंद्र शर्मा , जयपुर(राजस्थान)