आलेख
लता होने का अर्थ
“जन्मदिन विशेष“
(ध्रुव गुप्त)
लता मंगेशकर की सुरीली आवाज़ हमारी सांस्कृतिक , राष्ट्रीय अस्मिता की आवाज़ रही है। ऐसी आवाज़ जो सदियों में कभी एक बार ही सुनाई देती है। आवाज़ जैसे सन्नाटे को चीरती हुई कोई रूहानी दस्तक। जैसे जीवन की तमाम आपाधापी में सुकून और तसल्ली के अनमोल पल। जैसे एक बयार जो हमारी-आपकी भावनाओं को अपने साथ ले उड़े। पार्श्वगायन की दुनिया में लता जी का प्रवेश सिनेमा की सबसे बड़ी और युगांतरकारी घटनाओं में एक साबित हुआ। बावजूद इसके कि शुरू में ज्यादातर संगीत निर्देशकों ने उन्हें यह कहकर खारिज़ कर दिया था कि उनकी महीन आवाज़ उस दौर की नायिकाओं के उपयुक्त नहीं है। एकमात्र अभिनेत्री मधुबाला की ज़िद ने उन्हें फिल्मों में पांव टिकाने की जगहदी जिन्हें लता की आवाज़ से कम कुछ भी स्वीकार नहीं था।अपनी शालीन, नाज़ुक और रूहानी आवाज़ से उन्होंने लगभग सात दशकों तक हमारे प्रेम, हमारी खुशियों, शरारतों, उदासियों, दुखों और अकेलेपन को अभिव्यक्ति दी। प्रेम को सुर दिए, व्यथा को कंधा और आंसुओं को तकिया अता की। मानवीय भावनाओं और सुरों पर उनकी पकड़ ऐसी कि यह पता करना मुश्किल हो जाय कि उनके सुर भावनाओं में ढले हैं या ख़ुद भावनाओं ने ही सुर की शक्ल अख्तियार कर ली हैं। उस्ताद बड़े गुलाम अली खां ने उनके बारे में स्नेहवश कहा था – कमबख्त कभी बेसुरी नहीं होती। लता जी पर आरोप लगते रहे हैं कि उन्होंने दशकों तक उस दौर की गायिकाओं का रास्ता रोक रखा था। अगर वह दशकों तक ऐसा कर सकीं तो इसकी वज़ह उनकी संगीत प्रतिभा का वह विस्फोट ही था जो न उनके पहले कभी देखा गया और न उनके बाद कभी देखने को मिला। हमारी पीढ़ी को गर्व रहेगा कि वह लता जी के युग में पैदा, जवान और बूढ़ी हुई।
स्वर साम्राज्ञी के 92 वे जन्मदिन पर उनके स्वस्थ और सुरीले जीवन की अशेष शुभकामनाएं !
ध्रुव गुप्त
साहित्यक ,पूर्व आईपीएस अधिकारी,
पटना (बिहार)