आलेख
“फूलदेई “
फूल देई-छम्मा देई, दैंणि द्वार- भर भकार,
यौ देली कैं बार-बार नमस्कार।
फूल संक्रांति उत्तराखंड की संस्कृति का एक प्रमुख पर्व है
फूल सक्रांति के दिन गाँव के औजि (ढोल दमाऊं बादक ) द्वार-द्वार जाकर (नौबत ) इसको मना शुभकामना सन्देश कहते हैं गढ़वाली मैं इस सन्देश को नौबत कहते हैं !
और चैती गीत गाते हैं, पहले इसे यानी चैती ईटों को वादी यानि (बेडा) गाते थे और आजकल ओ़जी गाते हैं ढोल दामऊँ के साथ तथा समस्त ग्राम देवताओं ,भूमयाल,क्षेत्रपाल ,बजीर,नंदा नारैण,और खोली के गणेश का आह्वान कर उस परिवार की रिद्धि सिद्धि की कामना करते हैं !
तुमारा भंडार भरयान,
अन्न-ध्न्तल बरकत हवेन!
ओंद रओ ऋतू मास ,
ओंद रओ सबुक संगरांद !
फूलदेई -फूल देई फूल संगरांद !
अर्थात तुमारा भण्डार भरा रहे ,अन्न-धन की विर्धी हो,ऋतुएं महीने आते रहें और संक्रांति का पर्व मनाया जाता रहे ,पूल संक्रांति का पर्व विवाहिता महिलाओं के लिए आशा निराशा की संयुक्त अनुभूति का पर्व है ! चैत के महीने में ध्याण(विवाहित बेटियाँ ) को आलू कल्यौ देने की परम्परा है !कुमाऊँ में इसे भिटोली कहते हैं आलू कल्यौ (सौगात )के साथ माइके की कुशल भी प्राप्त हो जाती है !तथा ध्याण के जीवन में आशा का नया संचार होता है जिसका आलू कल्यौ आ जाता है वह बड़ी भग्यान समझी जाती है अच्छा आलू कल्यौ विवाहिता के मइके की प्रतिष्ठा का सूचक होता है !
बुरांस और फ्यूंली के फूल,कुक्कू ,हिलांस ,और घुघूती का विरह रुग्ण स्वर ससुराल का कष्ट्पूरण जीवन विवाहिता की वेदना को मुखरित करते हैं !
जब बच्चों कि टोली फूल फूल दाल दे ,चौंल (चावल ) और आरू का फूल , बुरांस का फूल गाती हुई देहरी (का मतलब दरवाजे ) और घर के अन्दर फूल … अर्थात फूलों को देने वाली फूल संक्रांति आ गयी है ईश्वर तुम्हारा नया वर्ष सफल करे,सुन्दर रंग-रंगीले फूल खिले गए हैं !
उत्तराखंड की फूल संक्रांति में- फूल संक्रांति. फूल संक्रांति. गढ़वाल के पर्वतीय इलाकों में फूल संक्रांति मनाने की ये परंपरा सदियों से ली आ रही है
कन्याओं के द्वारा सबकी देहरीयों में सुबह -2 फूल रखे जाते हैं । फूलदेई संक्रांति ,फूलों से सजी प्रकृति के रंग ,सबकी देहरी में पहुंचें । सुबह सवेरे जब द्वार खुले ,देहरी पुष्पों से सजी हो और सुरभि घर में फ़ैल जाए .सायंकाल से ही अगले दिन पौ फटते ही बच्चे गहरी नींद से जागते हैं ,और ख्खिले हुए पुष्पों को देखते हैं तो एक अदभुत उल्लास से उनका रोम-रोम सिहर उठता है !
जब बच्चों कि टोली फूल फूल दाल दे ,चौंल (चावल ) और आरू का फूल ,बुरांस का फूल गाती हुई देहरी (का मतलब दरवाजे ) और घर के अन्दर फूल बिखेरती हैं !
तो इस लोकपर्व की छटा देखते ही बनती है और लोक भाषा मैं गाते है !
फूल-फूल देई,बड़ी बड़ी पकवडी !
फूल-फूल माई ,दाल दे चौंल दे !!
बच्चों का मधुर गीत सुनकर गृहलक्ष्मी एक बर्तन मैं गेहूं ,चावल.(चौंल ) कौणी,झंगोरा आदि अनाज लाती है और बच्चों की टोकरियों मैं एक एक मुठी डालती हैं !
फूल देई-छम्मा देई, दैंणि द्वार- भर भकार,
यौ देली कैं बार-बार नमस्कार।
एक लोक गीत
फूलदेई -फूलदेई -फूल संग्रान्द
सुफल करी नयो साल तुमको श्रीभगवान
रंगीला सजीला फूल फूल ऐगी , डाल़ा बोटाल़ा हर्या ह्व़ेगीं
पौन पन्छ , दौड़ी गेन, डाल्युं फूल हंसदा ऐन ,
तुमारा भण्डार भर्यान, अन्न धन बरकत ह्वेन
औंद राउ ऋतू मॉस , होंद राउ सबकू संगरांद
बच्यां रौला तुम हम त फिर होली फूल संगरांद
फूलदेई -फूलदेई -फूल संग्रान्द।
फूल संगरांद का यह दिन आज उत्तराखंड में कन्याओं द्वारा प्रसन्नता के साथ मनाया जाता है कन्याएं बैसाखी तक रोज सुबह सुबह देहरी में फूल डालती हैं।