आलेख
“जो आग तुझमें है वो आग मुझ में भी”।
अंतराष्ट्रीय महिला दिवस
कल्पना डिमरी शर्मा
जो आग तुझमें है, वो आग मुझमें भी,
वो आग जो अब तक जली ही नहीं,
वो आग जिसे लौ की ज़रूरत ही नहीं,
तेरे अंदर भी है, और मेरे भी,
ना जाने कब ? किसने? बंद कर दिया,
इतनी पाबंदियाँ लगा दी,
क्यूँ , कब , कैसे , .. जैसे सवालों से घेर लिया,
मेरी आज़ादी को ग़ुलामी में बदल दिया,
“मुझे दुनिया से बचाने का था डर,
या ख़ुद के हारने का”
जो आग तुझमें है , वो आग मुझमें भी,
डर है ना जल जाऊँ इस आग में,
ना राख हो जायें सारे ख़्वाब,
बिखर जाऊँ या संवर जाऊँ,
या बंद हो जाऊँ चार दीवारी में,
माचिस की तीली की तरह,
या जल जाऊँ,
उस आग के गोले(सूरज) की तरह,
जिसके बिना ना रात हो ना दिन,
जो आग तुझमें है वो आग मुझमें भी।
…..