आलेख
पृथक राज्य की सार्थकता व पहाड़ी प्रदेश की अस्मियता के लिए भू-कानून व चकबन्दी जरूरी है…
० सशक्त भू-कानून बहुत आसान नही किंतु नामुमकिन भी नही।
० आर्थिक राजनीतिक व प्रशासनिक पहल से निकलेगा भू-कानून का रास्ता।
० नेतृत्व की कमी से भू-कानून व चकबंदी विधेयक पर कभी सदन में चर्चा नही हुई।
भू-कानून की मांग 1950 से 2021 तक की यात्रा कर चुका हैं। इस अरण्य दुर्गम सफर में अनेकों क्रांतिकारियों ने अपना जीवन खपा दिया किंतु सपना अब तक सपना ही हैं कालांतर में जिस भू-कानून की मांग देवभूमि से उठी थी। उस के अनेकों प्रारूप सभी 9 पहाड़ी राज्यों में बन गए हैं किंतु उत्तराखण्ड में अभी तक इस जटिल विषय पर संवाद भी स्थापित नही हो सका हैं। इस के पीछे राजनीतिक सक्ष्म नेतृत्व की सब से अधिक कमी नही।
नेतृत्व की कमी से पृथक राज्य का उद्देश ही भटक गया।हजारों बलिदान व्यर्थ जाते नजर आरहे हैं। प्रदेश में लगातार सत्तापरिवर्तन ने समाज को एकत्रित होने से रोका हैं जिस वजह से अहम मुद्दों से नीतिनिर्माताओं का भी ध्यान भटक गया। भू-कानून व चकबंदी जैसे अहम विषयों पर कभी भी सदन में खुल कर चर्चा नही हुई। सत्ता बदलती रही किंतु व्यवस्थाओं में कोई सुधार नही हुआ। जनता व्यवस्था परिवर्तन की आस में सत्ताधारी बदलती रही और सत्तारूढ़ व्यवस्थाओं से मुहं मोड़े बैठ गए। ऐसे में सुशासन हांसिये पर टिक गया। प्रदेश के मूलनिवासी अंतिम पंगत में खड़े हो गए और बाहरी लोगों ने रसूक व पैसे के दम पर वो सब हांसिल कर दिया जिस से वे हमारी पैतृक सम्पति के मालिक बन गए। विकास की आस जोगता पहाड़ी यह भी भूल गया कि दो वक्त की रोटी जो कमाई है उसे खाना भी हैं। हाड़मांस तपाते ग्रामीणों को इस कदर तोड़ दिया गया कि वे फ्री के गेहूं चावल को ही विकास मान बैठे। “महान लेखक बाबा नागार्जुन ने कहा था “तुम्हारी मौत का मुवाबजा तुम्हीं को थमा कर वे ताली थाली बटोर लेते हैं और आप उस भीख को विकास समझ लेते हो” सत्ता से पैसा पैसे से सत्ता हांसिल करने वालों ने नागरिकों के हितों की चर्चा कभी नही की यही कमी रही कि हम अपने ही घर में आदिवासी हो गए जहां हमें मूल निवासी होना चाहिए था वहीं हम आज चौकीदार बन गए।
इन दोनों कानूनों को लागू करने के लिए कर्ज में डूबे राज्य को यथा पैसा चाहिए। पैसों का जुगाड़ तो चुनाव के मध्यनजर केन्द्र जुगाड़ भी कर देगा किंतु समय व राजस्वकर्मी 5 वर्षों से पहले नही मिल सकता। समय सीमा बांध कर कोई भी सरकार इस कानून को पारित नही कर सकता। अगले पंचवर्षीय योजना में सम्भावनाएं बन सकती हैं परंतु फिलहाल 179 दिन में तो इस विषय पर सदन में चर्चा भी संभव नही हैं।
सामाजिक संगठनों का तर्क हैं कि वे नए भू कानून में धारा 371 पर बहस चाहते हैं। जिस में 1950 का हवाला रखा जाय। अमिटमेंट 1972, 1975,1993,1994,1995,2003 व 2014 को खारिज किया जाय 371 को यथार्थ रखें संसोधन 4,5 व 9 को पारित कर राज्य को मजबूती प्रदान करें। सरकार की दिक्कत यह हैं कि यदि धारा 371 के आधार पर भू कानून 1950 या 1972 को भी लागू किया जाता हैं तो राज्य में अभी तक जितने भी बाहरी लोगों ने आशियाना बनाया है वे रातोंरात सड़क पर आजायेंगे। राज्य सरकार के लिए आसान नही कि वह भू कानून 2014 को भी जल्दी से लागू कर सकें और उसे वर्ष 2000 से लागू करें। इस से हजारों लोग बेघर हो जाएंगे उद्योग चौपट हो जाएंगे। राज्य की आर्थिक गति खत्म हो जाएगी हर क्षेत्र में राज्य को भारी नुकसान होगा जिस से दंगे हो सकते हैं और उत्तराखण्डियों के खिलाप देशभर में द्वेष भावना बन सकती हैं।HP Tenancy and Land Reforms Act, 1972 का section 118 सबसे अहम है, जो गैर कृषक हिमाचली या गैर हिमाचली को हिमाचल में कृषि व अन्य प्रकार की भूमि खरीदने से रोकता है। इस श्रेणी के लोग केवल सरकार की अनुमति से किसी निश्चित उपयोग के लिए भूमि खरीद सकते है जिसे 02 वर्ष में उपयोग में लाना होता है। विशेष परिस्थिति में सरकार की अनुमति से इसे 01 वर्ष और बढ़ाया जा सकता है। इस निर्धारित अवधि में भूमि को निर्धारित उद्देश्य के लिए उपयोग में लाना आवश्यक है, अन्यथा भूमि जाँच उपरान्त, सरकार को चली जायेगी। यह सेक्शन 118 बहुत जटिल व अहम मुद्दा हैं जिस पर सहमति बनना आसान नही ओर यदि सहमति नही बनी और भू कानून 1972 लागू हो गया तो इस से कोई नया बदलाव नही आएगा। इस कानून को पारित करने का अब एक मात्र विकल्प यही हैं कि भू कानून 1972,74,75 या 2014 को लागू कर राज्य गठन की अवधि से नही 2022 से लागू करें ताकि आगे किसी भी व्यक्ति को दिक्कत न हो और राज्य में व्यवसायिक गतिविधियों को 99 वर्ष का लीज माना जाय। यदि स्वामित्व की बात आती हैं तो खरीदें गए भूमि को 99 वर्ष के लीज पर समझा जाए। यही एक रास्ता बचा हैं और 2022 के बाद किसी भी बाहरी व्यक्ति को प्रदेश में धारा 371 की प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा।
राज्यपाल चाहे तो हिमांचळ की तर्ज पर इन विधेयकों पर अध्यादेश लाकर राष्ट्रपति को भेज सकता हैं। राज्य सरकार को चाहिए कि एक कमेटी बनाकर भू कानून व चकबन्दी पर ड्राफ्ट बनाएं जिस के बाद उस पर शीतकालीन सत्र में चर्चा हो। और राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए प्रस्ताव को भेजा जाए। वर्तमान में BJP पूरे बहुमत के साथ हैं केंद्र में भी BJP की सरकार हैं लिहाजा यह कार्य सफलतापूर्वक हो सकता हैं किंतु इस कार्य के लिए नेक दिल चाहिए। यदि सरकार व विपक्ष इस मुद्दे को सिर्फ राजनीतिक मुद्दा ही बनाना चाहती हैं और किर्यान्वयन की नही सोचती हैं तो फिर यह भयानक नासूर हैं। यह भविष्य के लिए पहाड़ों के लिए बहुत दिक्कतें पैदा कर सकता हैं और सत्ता परिवर्तन का कारण भी होगा। अब यह मुद्दा हर किसी के जुबान पर चढ़ चुका हैं इस लिए यह विधानसभा की सीढ़ियां चाड रहा हैं किंतु सभी राजनीतिक व्यक्ति अर्थशास्त्री बुद्धजीवी जानते हैं यह मामला इतनी आसानी से और इतनी जल्दी नही सुलझने वाले हैं। बहरहाल सभी बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं।
देवेश आदमी