आलेख
महादेवी वर्मा की सामाजिक एवं नारी चेतना ।
【महादेवी वर्मा की जयंती 26 मार्च पर विशेष】
“नीरज कृष्ण“
“वे मुस्कुराते फूल नहीं / जिनको आता है मुरुझाना / वे तारों के के दीप नहीं / जिनको भाता है बुझ जाना।।अधिकार कविता से / मधुर-मधुर मेरे दीपक जल / युग युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल / प्रीतम॒ का पथ आलोकित कर।।”
हिंदी साहित्य में लेखिका महादेवी वर्मा का साहित्य जगत में उसी प्रकार से नाम है जैसे कि मुंशी प्रेमचंद व अन्य साहित्यकारों का। महादेवी वर्मा ने केवल साहित्य ही नहीं अपितु काव्य समालोचना, संस्मरण, संपादन तथा निबंध लेखन के क्षेत्र में प्रचुर कार्य किया है। भारत में महिला सम्मेलन की नींव रखने वाली कवियित्री महादेवी वर्मा थी।
भारतीय साहित्य की लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार महादेवी वर्मा जितनी प्रसिद्ध अपने पद्य और गद्य लेखन के लिये हैं उतनी ही प्रसिद्ध अपने सामाजिक, शैक्षणिक, और सुधारात्मक कार्यों के लिये भी हैं। उनका साहित्यिक पक्ष जितना विख्यात हुआ उतना सामाजिक, शैक्षणक और सुधारात्मक पक्ष अचर्चित रहा। वह प्रगतिशील विचारों की लेखिका रहीं। बात उस समय की है जब महिलाओं के लिखे साहिय को कोई तवज्जो नहीं दी जाती थी । कुछ ही गिनी चुनी महिला थी जो साहित्यिक लेखन से जुडी थीं, झसका एक कारण उस समय महिलाओं में शिक्षा ग्रहण और शिक्षित करवाने के प्रति समाज में उदासीनता का माहौल था। अभिभावकों में एक संकीर्ण सोच बालिका और उनकी शिक्षा को लेकर व्याप्त थी कि लडकी पराया धन है, अतः इसे ब्याह कर उसके ससुराल भेज देना है। बस इतनी ही ज़िम्मेदारी मान लिया जाता।
बीती सदी में तीन से चार पीढ़ियां इसी रूढीवादी सोच में निकल गयी। इस सोच को खुल कर चुनौती देने वाली अग्रणी महिलाओं में एक महादेवी वर्मा रहीं। उन्होनें ऐसी महिलाओं को चुन चुन कर इकट्ठा किया जो कविताएं लिखा करती। एक दिन ऐसी महिला कवयित्रियों का कवि सम्मेलन उन्होंने आयोजित किया और उसकी अध्यक्षता करने के लिये जन प्रिय कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान जो उनकी सहपाठिन थीं का हाथ पकड कर उन्हें मंच पर ले आयीं। उनके संबोधन के आरंभिक विचार थे यह देश का पहला महिला कवियत्री सम्मेलन है जिसे आयोजित करने श्रेय महादेवी वर्मा की है। यह वास्तविक तथ्य है। जिसका आयोजन 15 अप्रैल 1933 को हुआ। उसी के बाद काव्य मंचों पर महिला कवयित्रियों का उत्साह से आगमन होने लगा।
महादेवी वर्मा ने लिखने की शैली, भाषा, सोच, और उसके सारांश को नये तेवर, द्रृष्टि और कल्पना के पंख दिये। जिस समय ब्रज भाषा का प्रचलन प्रचुर मात्रा में था उस समय उन्होंने खडी बोली को प्रधानता प्रदान करने का अभियान चलाया जिससे कविता जन का स्वर बन सके और उसे अपने कलेवर में जन रुचि और उनकी बातों को प्रबलता मिल सके। यह कोई मामूली काम नहीं था कि सोचा और कर डाला इसके लिये जन हित में उन्होंने भाषायी परंपराओं के निर्धारित सांचें को तोड़ा और कविता में ऐसी बोधगम्य सरल भाषा को स्थापित किया जिसने कविता को जन शक्ति के प्रखर माध्यम का स्वरूप प्रदान किया।
एक दिलचस्प घटना है, आरंभ में वह काव्य रचना बड़े शर्माते हुए छिप कर किया करतीं। एक दिन उनकी सह्पाठिन सुभद्रा कुमारी चौहान ने उन्हें छिप कर देखा कि वह डूब कर क्या लिखती रहती हैं ! अचानक प्रकट हो उन्होंने देखा कि वह तो कविता लिख रही हैं इसे देख उन्होंने उसे छिपाने का प्रयास किया तब उनकी मित्र ने कहा यह तो तुम बहुत सुंदर रचना लिख रही हो। तुम इसे नियमित रूप से लिखा करो, तुम्हारे कोमल काव्य भाव अच्छे हैं। महादेवी अपने लिखे काव्य की प्रशंसा सुन विभोर हो उर्ठीं। सात वर्ष की अवस्था में उन्होंने पहली कविता लिखी थी, ‘आओ प्यारे, तारे आओ मेरे आंगन में बिछ जाओ।’ यही लेखन क्रम उन्हें ऐतिहासिक कवयित्री बना गया।
साहित्यकारों के साहित्यिक रुझान को बढावा देने के लिये उन्होंने साहित्यकार संसद बनायी। मानवीय संवेदनाएं उनके रचना कर्म के आभूषण रहे हिंदी भाषा के संबंध मे उनकी मान्यता थी कि “ हिंदी के साथ हमारी अस्मिता जुडी हुई है, हमारे देश की संस्कृति और हमारी राष्ट्रीय एकता की हिंदी भाषा संवाहिका है। वह कुशल चित्रकार अनुवादक और प्रशासिका थीं। शिक्षा का प्रचार-प्रसार विशेष कर नारी शिक्षा को बढावा देने की वह प्रखर प्रवक्ता थी। देश में व्याप्त कुरीतियों, गरीबी, बेबसी और अनाचार के तमस को दूर करने के लिये अपने अंतर्मन की छटपटाहट को स्नेह और श्रृंगार से उन्होंने रचा। उनके काव्य संग्रह “दीपशिखा” में उनकी वह पीडाजन्य भावाभिव्यक्ति पढने को मिलती है आम जन मानस में व्याप्त दुख- तकलीफों को उन्होने अपनी रचनाओं में करुणा का स्वर दिया जो भारतीय साहित्य की अनुपम धरोहर बन गया है।
बमहादेवी जी को जीवन में अनेक विडम्बनाओं का सामना भी करना पड़ा। इनकी चर्चा उन्होंने अपने संस्मरण में की है। वह हिंदी की प्राध्यापक भी रहीं, पर उन्होंने अंग्रेजी साहित्य का भी अध्ययन किया। उनकी इच्छा वेद, पुराण आदि को मूलरूप से समझने की थी।
महिला होने के कारण कोई उन्हें पढ़ाने को तैयार नहीं हुआ। काशी हिंदू विवि ने तो उन्हें प्रवेश देना भी उचित नहीं समझा। इसकी पीड़ा उनको हमेशा रही। लेकिन बाद में उनके जीवनकाल में एक ऐसा समय भी आ गया जब एक नहीं तीन विश्वविद्यालयों, विक्रम विश्वविद्यालय, कुमाऊं विश्वविद्यालय और बनारस हिंदू विवि ने उन्हें डी. लिट की उपाधि प्रदान की।
समाज में बेटी को बोझ समझे जाने वाली धारणा से वह आहत रहती। इसे ध्वस्त करने के लिये उन्होने जो बीडा उठाया उसी के फलित रूप को आज हम देख रहे हैं महिलाएं जीवन के हर क्षेत्र में आज तेज़ी से आगे बढ रही हैं। पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को उनका उचित स्थान और पुरुष के समक्ष खडा करने का श्रेय महादेवी वर्मा जैसी महान महिलाओं को है। जीवन पर्यंत उन्होने सन्यायसिनी जैसा जीवन जीया सदा श्वेत साडी और एक खटिया पर सोना कभी आईना नहीं देखना उनके सरल स्वभाव को दर्शाता है।
प्रयाग में ही महिला विद्यापीठ महाविद्यालय की स्थापना की। जिसकी वे कुलपति भी बनी। उनके लिये “चांद” पत्रिका का प्रकाशन और संपादन किया। यह महिलाओं के लिये निकलने वाली पहली पत्रिका थी। महिलाओं की शिक्षा और उनकी आर्थिक स्वतंत्रता के लिये सदैव तत्पर रहीं उनके बिचार में अच्छी और ऊची शिक्षा ही लडकी का सबसे बडा दहेज है। अतः इस कार्य के लिये उन्होनें अपना जीवन झोंक दिया। प्रकृति प्रेमी महादेवी वर्मा को पशु पक्षियों से बहुत लगाव था इन पर उन्होने बहुत लिखा वह मानती कि यह प्रकृति के महत्वपूर्ण अंश हैं। उदाहरण स्वरूप उनकी इन पंक्तियों को पढिये “ आंधी आयी ज़ोर शोर से, डाली टूटी हैं झकोर से, उडा घोंसला अंडे फूटे, किससे दुख की बात कहेगी, अब यह चिडिया कहां रहेगी ?
मनुष्य की संवेदनाओं, जीवन की उदासियों, संघर्षो, हताशाओ और उसके एकाकीपन की वह अच्छी ज्ञता थीं। आंसू की कीमत और पीडा की वेदना को उन्होंने ऐसे समझा और जाना कि उनका काव्य इसका आईना बन गया। जिसमें मानवता हमराही बनी साथ चलती दिखायी देती है। ज़िंदगी के लगभग सभी पहलुओं पर उनको काव्यात्मकता के रूप दिखायी देते हैं। वास्तव में अपने जीवन और लेखन को उन्होनें ऐसे मिश्रित किया कि उसमें कोई आडंबर नहीं यथार्थ के दर्शन होते हैं। वह ऐसी लेखिका थी जिन्होंने ज़िंदगी से जुडे सपनें को कोई परी कथा या फंतासी के तौर पर न देख कर उसकी आपबीती को अपना विषय बनाया जो आहत मन का साथी दिखाई देता है। महादेवी का गद्य कार रूप उनके कवि रूप से विचारों और शैली दोनों ही दृष्टि से थोडा भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।
प्रसिद्ध समाजवादी विचारक और नेता डा राम मनोहर लोहिया ने एक बार कहा था “ महादेवी जी भारत मे सबसे अच्छा गद्य लिखती हैं वह गद्य की राजकुमारी हैं “ महादेवी जी ने एक निष्ठ हो कर अबाध गति से अपने भावमय सृजन और कर्ममय जीवन की साधना में साथ-साथ संलग्न रह कर अपनी लिखी इस बात को सार्थक किया है। “कला का स्पर्श पा लेने वाले का कलाकार के अतिरिक्त कोई नाम नहीं, साधक के अतिरिक्त कोई वर्ग नहीं, सत्य के अतिरिक्त कोई पूंजी नहीं, भाव सौंदर्य के अतिरिक्त कोई व्यापार नहीं और कल्याण के अतिरिक्त कोई लाभ नहीं “ ( संदर्भ शमहादेवी वर्मा प्रतिनिधि गद्य रचनाएं लेखक : डा रामजी पांडेय) उनके लिखे काव्य संग्रह ‘रश्मि ‘ “ नीरजा ‘ दीपशिखा “ “यामा ‘ ‘सांध्य गीत ‘ से लेकर गद्य संग्रह ‘अतीत के चल चित्र” “सप्रति की रेखाएं “ “ श्रंखला की कडियां “ पथ के साथी “ इत्यादि कृतियाँ उनका वृहद रचना संसार है ! प्रेम विरह, करुणा, और गहन आंतरिक अनुभूति की प्रतिनिधि कवयित्री महादेवी वर्मा की कविताओं की निजता, काव्यात्मक समृद्धी आज भी पाठकों को हैरान करती हैं।
उन्हें हिंदी साहित्य की छायावादी धारा का चौथा स्तंभ माना जाता है इसमें अन्य तीन हैं जयशंकर प्रसाद, सुमित्रा नंदन पंत और महाप्राण निराला। महादेवी वर्मा ने स्वतंत्रता के पूर्व और बाद के भारत को निकट से देखा और जाना। आधुनिक गीत काव्य में वह सर्वोपरि है। हिंदी की सबसे सशक्त कववयित्री होने के कारण उन्हें ‘आधुनिक मीरा’ के नाम से भी जाना जाता है। निराला ने उन्हें ‘हिंदी के विशाल मंदिर की सरस्वती’ भी कहा है। इन्हें अपनी खुनाओं में दर्द व पीड़ा की अभिव्यक्ति के कारण ‘पीड़ा की गायिका’ भी कहा जाता है।
छायावादी काव्य के पल्लवन एवं विकास में इनका अविस्मरणीय योगदान रहा। वे उन कवियत्रियों में से एक हैं जिन्होनें व्यापक समाज में काम करते हुए भारत के भीतर विद्यमान हाहाकार, रूदन को देखा, परखा और करुण होकर अंधकार को दूर करने वाली दृष्टि देन की कोशिश की। उन्होंने मन की पीड़ा को स्नेह और श्रृंगार से सजाया और काव्य संग्रह दीपशिखा में वह उनकी पीड़ा के रूप में स्थापित हुई और उसने केवल पाठकों तक को ही नहीं अपितु समीक्षकों तक तक को झकझोरा और गहराई से प्रभावित तक किया। उन्होंने हिंदी की कविता में उस कोमल शब्दावली का विकास किया जो अभी तक केवल ब्रजभाषा में ही मानी जाती थी। महादेवी वर्मा कवयित्री होने के साथ ही साथ कुशल चित्रकार, अनुवादक भी थी। उन्हें हिंदी साहित्य के सभी पुरस्कार प्राप्त होने का सौभाग्य प्राप्त है।
1932 में उन्होंने महिला पत्रिका चांद का कार्यभार संभाला। 1930 में निहार, 1932 में रश्मि, 1934 में नीरजा,1936 मेंसांध्यगीत नामक चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए। 1939 में इन चार काव्य संग्रहों को मिलाकर वृहदाकार में यामा शीर्षक से प्रकाशित किया गया। यामा के संकलन के लिए उन्हें सर्वोच्च पुरस्कार ज्ञानपीठ से सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त उनकी 18 और कृतियां हैं जिसमें गद्य और पद्य दोनों शामिल हैं जिसमें मेरा परिवार, स्मृति की रेखाएं, पथ के साथी, श्रृंखला की कड़िया और अतीत के चलचित्र प्रमुख हैं।
छायावादी काव्य की समृद्धि में महादेवी वर्मा का योगदान अप्रतिम है। उन्होंने निबंध भी लिखें जिसमें विवेचनात्मक गद्य, साहित्यकार की आस्था तथा कुछ अन्य निबंध व गद्य साहित्य के क्षेत्र में आज भी मील का पत्थर हैं। उनका आलोचना साहित्य उनके काव्य की ही भांति महत्वपूर्ण है। उनके संस्मरण भारतीय जीवन के संस्मरण चित्र हैं। भाव, भाषा और भावार्थ की त्रिवेणी उनके गीतों में प्रवाहित होती है जो बहुत सुंदर है। उन्होंने चित्रकला का काम अधिक नहीं किया फिर भी जल रंगों में बनाये गये “ वाश “ शैली से बनाये गये उनके चित्र सुंदर माने जाते हैं। बिना किसी कल्पना और काव्य रूपों का सहारा लिये कोई स्चनाकार लोकप्रियता के कालजयी शीर्ष पर पहुंच सका है तो उसका श्रेष्ठ उदाहरण महादेवी को पढ़ कर जाना जा सकता है। साहित्य के अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार और सम्मान उन्हे मिले जिनमें सन 1956 में पद्ममृषण और 1988 में पद्म विभूषण शामिल है, साहित्य के सबसे सम्मानित भारतीय ज्ञानपीठ के पुरस्कार से भी वह सम्मानित हुईं।
भारतीय साहित्य का इतिहास उनके नामोल्लेख, योगदानोल्लेख और क्रितत्वोल्लेख के बिना सदैव अधूरा माना जायेगा। इस ऐतिहासिक लेखिका का जन्म 26 मार्च 1907 को फर्रुखाबाद उत्तर प्रदेश मे हुआ था। उनके नाम की भी दिलचस्प गाथा है सात पीढीयों बाद 200 साल बाद उनके पिता गोविंद प्रसाद वर्मा और माता हेम रानी देवी पुत्री रत्न को पा कर इतने प्रसन्न हुए कि इन्हे घर में देवी का आगमन मान इनके बाबा बाबू बांके बिहारी जी प्रसन्नता से झूम उठे और इन्हें घर की देवी महादेवी कहा। इनके बाबा ने उनके नाम को अपने कुल देवी दुर्गा का विशेष अनुग्रह समझा और आदर प्रदर्शित करने के लिए नवजात कन्या का नाम महादेवी रख दिया। इस प्रकार इनका नाम महादेवी पड़ा। इस अवसर पर घर में जश्न मनाया गया। महादेवी जी पूजा पाठ के प्रति अत्यधिक आग्रही थीं। जब वह नौ वर्ष की थीं तब उनका विवाह उस समय के रिवाज़ानुसार कर दिया गया। लेकिन उन्हें विवाहित जीवन से विरक्ति थी। अतः वह टिक नहीं पाया। उनका सारा ध्येय लेखन, संपादन, अध्यापन, साहित्य प्रचार-प्रसार व प्रोत्साहन, महिला शिक्षा और उनके सशक्तिकरण पर केंद्रित रहा और इन क्षेत्रों में उन्होने जिस ऐतिहासिक विरासत को छोडा है वह अजर अमिट और अमर रहेगी। इस महान लेखिका का अवसान 11 सितंबर 1987 को हुआ। अपने नाम के अनुरूप वह भारतीय साहित्य की महादेवी हैं इसलिये हम कह सकते हैं कि साहित्य की अनुपम साधिका थी।
नीरज कृष्ण, पटना (बिहार)