उत्तराखण्ड
ये बड़ी उम्र की औरतें….
सृजिता सिंह
उम्र का इक दौर ये भी…
जब बड़ी उम्र की औरतों में
वक़्त नजाकत नहीं भरता..
और करने लगता है अपनी मनमानी
फिर वो बिना मोल भाव किये
ठोकने लगता है उन्हें सलाम ..
..और क्यूं न करे!
दिन भी तो रुपहले सुनहरे नहीं होते..
बस छा जाती तो कंधों पर केशों की सफेदी..
और फिर भी वक़्त सांस रोक खड़ा हो ही जाता है,
और कहता! अरे अभी तो कदम रखा हूँ मैं..
अभी तो जन्म लिया है मैंने..और कैसे बिखरा दूँ,
अभी तो पँखों ने परवाज भी न भरे..
फिर कैसे साँझ की चौखट पर सजदा करूँ ,
जरा बताओ हमें..
और…
…. फिर बैठ जाती है बड़ी उम्र की औरतें..
वक़्त के किनारों पर हाशिया खींचने..
और ढाल देती हैं खुद को वक़्त के सांचे में…
गढ़ लेती हैं खुद के लिये एक नया खांचा..
और करने लगती है खुद को फिट बेवजह..
बिना किसी जोड़ तोड़ के…
बिना वक़्त की नब्ज़ जाने चलने लगती है
और बहने लगती हैं वक़्त के बहते रेले में..
कुछ उनमें से लिखने लगती हैं..
और गढ़ने लगती हैं दुनियां अपनी..
डूब जाती हैं लेखन में..
लिखती हैं दर्द के सीने पर वक़्त की तहरीरें…
अक्सर जिनमें जिंदगी कम..
पल पल मौत के फूल कढ़े होते हैं..
दुनिया की नज़र से खुद को ढालने वाली..
ये औरतें भूल जाती हैं अपना ख़ुद का अस्तित्व..
जो इन्हें बेइंतहा खूबसूरत बनाता है सबसे अलग..
पर इन्होंने चुना लेखन और…
…और फिर इसी लेखन में जीने लगती हैं..
कुछ बेशकीमती रिश्तों को भी..
हाँ ये बड़ी उम्र की औरतें भी न….
….
….
“सिया” एक झल्ली पहाड़न
(शिमला हिमांचल)