आलेख
आज जन्मे डबराल जी ने जलाई थी “पहाड़ पर लालटेन”की लौ।
सृजिता सिंह
“प्यारे दोस्तों माफ़ करना, कि मेरी दिशा बदल दी गई है
तुम्हें भी कहीं और धकेल दिया गया है
मेरे जीवन में समय नहीं रह गया है “
: मंगलेश डबराल
आज 16 मई मेरे प्रिय पहाड़ी कवि मंगलेश डबराल जिनका जन्मदिन है… उनका चला जाना मतलब सृजनात्मकता के एक युग का चला जाना,, हाँ उनसे एक अर्से से जुडी हुई थी,,, कहते थे सर पहाड़ की जड़ें हमसे ही विस्तृत हों पाएंगी पर तब जब हम उनसे जुड़ पायेंगे,, पहाड़ों की यातनाएं हमारे पीछे हैं, मैदानों की हमारे आगे.’ जर्मन कवि बर्तोल्त ब्रेख्त की यह काव्य पंक्ति मंगलेश डबराल को बहुत प्रिय थी और अक्सर वे इसे दोहराया करते थे,,, ऐसा लगता था जैसे पहाड़ों पर न रह पाने और मैदानों को न सह पाने का जो अनकहा दुख है, उसमें ये पंक्तियां उन्हें कोई दिलासा देती हों.
लेकिन अगर दुख था तो वह उनके भीतर था. वे उसे जीवन के कार्य-व्यापार में बाहर नहीं आने देते थे. कातर पड़ना जैसे उन्हें गवारा नहीं था. मेरे बेहद प्रिय रहे सर,, अकसर मेरी कविताओं में उनके होने का और उनकी शैली का विशेष प्रभाव रहा,, उनकी लगभग हर एक पुस्तक पढ़ी मैंने,, पहाड़ के प्रति लगाव ने उन्हें मेरे बेहद करीब ले आया,, और हाँ वो कहीं गए नहीं हमेशा अपनी रचनाओं के जरिये मेरे करीब ही रहेंगे,, और उनसे प्रेरित हों में भी लिखती रहूंगी,, वो मेरी कविता बन उन पहाड़ों पर फिर अपनी रूह संग वापस चले आएंगे,,
उनकी शीघ्र प्रकाशित पुस्तक” कवि का अकेलापन” के कुछ अंश ले रही हूँ,,, “कविता में कभी अच्छा मनुष्य दिख जाता है या कभी अच्छे मनुष्य में कविता दिख जाती है। कभी-कभी एक के भीतर दोनों ही दिख जाते हैं। यही एक बड़ा प्रतिकार है। और अगर यह ऐसा युग है जब कविता में बुरा मनुष्य भी दिख रहा है तब तो कविता में अच्छा मनुष्य और भी ज्यादा दिखेगा। लेकिन क्या ऐसा भी समय आ सकता है कि अच्छे साहित्य की चर्चा ही न हो? सिर्फ दोयम दर्जे की कविता-कहानी को महान, अभूतपूर्व, युगांतकारी माना जाने लगे? कोई बहुत अच्छी कविता कहीं छपे और लोग उस पर कोई बात न करें और चुप लगा जाएं। यह कितना भयानक होगा। लेकिन समय की विशाल छलनी भी तो कुछ छानती रहती है। चुपचाप,,, ”
इस साल कोविड ने बहुत दुख दिए, कई तरह से व्यक्ति और समाज के रूप में हमें तार-तार कर गया, लेकिन इस मानवीय आभा से वंचित कर उसने ऐसा वार किया है जिससे बना ज़ख़्म कभी नहीं जाएगा. वे जीवन के ख़ाली और खोखले होते जाने को भी पहचानते थे. अपने अंतिम कविता संग्रह की एक कविता ‘समय नहीं है’ में वे लिखते हैं- ‘मैं देखता हूं तुम्हारे भीतर पानी सूख रहा है / तुम्हारे भीतर हवा ख़त्म हो रही है / और तुम्हारे समय पर कोई और क़ब्ज़ा कर रहा है.’…………..
जन्मदिन मुबारक मेरे प्रिय कवि डबराल सर को 💐💐🎂🎂
“सिया “
💐#झल्ली #पहाड़न…💐
शिमला (हिमांचल)