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“कमला हैरिस का गांव”

उत्तराखण्ड

“कमला हैरिस का गांव”

प्रतिभा की कलम से……

उधर अमेरिका के कैपिटल हिल में कमला हैरिस का शपथ ग्रहण समारोह चल रहा है, इधर भारत के चेन्नई में उसके ननिहाल में दीए जलाकर रौशनी की जा रही है।
कमला हैरिस श्यामला गोपालन की बेटी हैं। वह बहुत पहले भारत से अमेरिका चली गई थीं । श्यामला गोपालन कैंसर रिसर्चर थीं। जाहिर है कि कमला एक पढ़ी-लिखी मां की बेटी हैं। उनके पिता जमैका से थे। एक विकासशील देश और गरीब देश के माता-पिता की संतान विश्व के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका की उप-राष्ट्रपति बनी हैं।
लेकिन जिस तरह जो-बाइडन राष्ट्रपति बने हैं उसी तरह, उसी प्रणाली से कमला हैरिस भी उपराष्ट्रपति बनी हैं। फिर भी कमला हैरिस के चुनाव पर कई गुना ज्यादा खुशी और हैरानी जताई जा रही है। कारण है उनका महिला होना और अश्वेत होना।

बात तब कि है जब इंग्लैंड में आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों में मिल्खा सिंह दौड़ रहे थे तो कहते हैं कि वीआईपी दर्शक दीर्घा में मुझे सिर्फ एक तिरंगा लहराता हुआ दिखाई दिया था। जब मिल्खा सिंह ने स्वर्ण पदक जीत लिया तो स्लीवलेस बांह का ब्लाउज और काला चश्मा लगाए वह महिला भागती हुई आईं और मिल्खा सिंह के गले लगते हुए रो पड़ीं। मिल्खा सिंह उनका परिचय पूछते हैं तो पता चलता है कि महिला नेहरू जी की बहन विजयलक्ष्मी पंडित थीं।
विजयलक्ष्मी पंडित ने लंदन, मॉस्को और वाशिंगटन में भारत के राजदूत पदों पर कार्य किया था। इसके अलावा विजयलक्ष्मी पंडित ही वह पहली महिला थी जो संयुक्त राष्ट्र महासभा की अध्यक्ष बनीं। यूं वह एक प्रभुत्वसंपन्न राजनीतिक खानदान से ताल्लुक रखती थीं, मगर फिर भी ऐसे पदों पर तो उसीकी नियुक्ति होगी जो खूब पढ़े- लिखे होने के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय मामलों की समझ भी रखता हो। विजयलक्ष्मी पंडित के अंतरराष्ट्रीय कद ने भारतीय जनमानस को भी महिलाओं की शिक्षा के प्रति उदार बनाया।
आजादी के दिनों में ही एक और ख़वातीन थीं जिन्हें सियासत के मार्फ़त नाम कमाने का मौका मिला। उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले की मूल निवासी आइरीन रूथ पंत के शौहर थे लियाकत अली खान। लियाकत अली खान मोहम्मद अली जिन्ना के करीबी माने जाते थे। पाकिस्तान बनने के बाद वह वहां के पहले प्रधानमंत्री बने । पाकिस्तान में उनकी बेगम आइरीन पंत का नाम हुआ राणा लियाकत अली खान।
प्रधानमंत्री बनते ही लियाकत साहब ने बेगम साहिबा को भी मंत्रिमंडल में जगह दी। यह जगह उन्हें अपनी काबिलियत के कारण मिली थी। बेगम साहिबा लखनऊ के सबसे फेमस कॉलेज इजाबेल थॉमस से पढ़ी हुई थीं। एक अमेरिकी राजदूत का कहना था कि राणा साहिबा जिस कमरे में जाती हैं वो कमरा अपने-आप रोशन हो जाता है। बात सच थी क्योंकि बेगम साहिबा निहायत खूबसूरत थीं। प्रधानमंत्री बनने के चार साल बाद लियाकत अली खान साहब की रावलपिंडी में गोली मारकर हत्या कर दी गई। बेगम साहिबा के पास घर चलाने के लिए अकाउंट में बच रहे सिर्फ ₹300। लियाकत अली खान वतनपरस्त सियासतदां थे। अपने बीवी-बच्चों के लिए उन्होंने कुछ भी नहीं छोड़ा था।अपना बंगला भी उन्होंने पाकिस्तान के नाम ही किया हुआ था। ऐसे में काम आया बेगम साहिबा का खूब पढ़ा- लिखा होना। जनरल अयूब खान ने उन्हें राजदूत बनाकर इटली भेज दिया। बाद में अयूब खान ने उन पर जोर डाला कि चुनाव में वह मोहम्मद अली जिन्ना की बहन फातिमा जि़न्ना के खिलाफ प्रचार करें। लेकिन बेगम राणा ने साफ मना कर दिया कि वह पाकिस्तान की राजदूत हैं, इसलिए ऐसा काम नहीं करेंगी। जनरल अयूब ने उन्हें वापस बुला लिया। बाद के वर्षों में वे हॉलैंड में भी राजदूत रहीं और सिंध की पहली महिला गवर्नर होने का रुतबा भी उन्हीं के नाम रहा । हालैंड की रानी उन्हें बहुत पसंद करती थी। वहां उन्हें कई पुरस्कार प्राप्त हुए।
पाकिस्तान में उनका एक महिला एसोसिएशन भी था। जिसके माध्यम से वहां की ख़वातीनों के लिए उन्होंने काफी काम किया। पाकिस्तान का सर्वोच्च सम्मान “निशान-ए-इम्तियाज” और “मादरे-पाकिस्तान” भी बेगम राणा को हासिल हुआ।
लोग क़यास लगाते रहते कि जनरल अयूब और जिया उल हक के जोरो-जुल्म से परेशान होकर बेगम साहिबा अपने मायके भारत वापस लौट जाएंगी। लेकिन नहीं ! वे पाकिस्तान में ही डटी रहीं। भारत से भी लगाव बना रहा । उनके गरारे यहीं से सिल कर जाते थे। एक और बहुत अच्छी बात है कि अपने समकालीन भारत के राजदूत जगत मेहता के परिवार के साथ भी बेगम साहिबा के तालुक्का़त बहुत अच्छे थे। कूटनीतिक संबंधों में ऐसी आत्मीयता और सद्भाव फिर कभी भारत और पाकिस्तान के राजनयिकों के बीच नहीं देखा गया।
इस तरह देश हो या विदेश ! मजहब की बंदिशों को भी ज़हानत के दम पर धता बता कर अपनी शर्तों के साथ बेगम राणा ने उम्र गुजारी।
पाकिस्तान की बहू और भारत की इस बेटी पर समूचे एशिया को नाज़ होना चाहिए।
अंग्रेजी साहित्य में अनेक पुरस्कार प्राप्त पद्मश्री, पद्मभूषण अनिता देसाई मैसाचुएटस में प्रोफेसर रह चुकी हैं । दो बार बुकर पुरस्कार के अलावा कई विदेशी साहित्यिक सम्मानों की लंबी फेहरिस्त है किरण देसाई के नाम। लेकिन यहां तक पहुंचने से पहले वो भी ऐसे गांव में निवास कर चुकी हैं जहां रात के अंधेरे में कुछ लिखने के लिए बिजली के बल्ब की रोशनी तक नहीं थी। मगर फिर भी शिक्षा के उजियारे से अपनी जर्मन मां और बांग्लादेशी पिता के नाम को उनकी बेटी अनिता देसाई ने खूब रोशन किया ।
शिक्षित मां की शिक्षित बेटी वाली परंपरा को उनकी बेटी किरण देसाई ने भी खूब निभाया। अंग्रेजी साहित्य में अच्छा-खासा नाम है उनका। मां अनिता देसाई की तरह ही किरण देसाई भी बुकर पुरस्कार प्राप्त हैं।
इन तमाम उदाहरणों से कुछ कहने का मतलब यह है कि शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति का मूलभूत अधिकार है, लेकिन फिर भी विश्व की बहुत बड़ी आबादी का इससे वंचित रह कर सदियां गुजार देने का कोई रंज, गम, अफसोस न रहना हमने अपना स्वभाव बना लिया है।
कमला हैरिस के बाद अब वक्त है कि महिला शिक्षा के क्षेत्र में एक क्रांति आनी चाहिए। जिससे किसी भी महिला का कुछ भी बन जाने पर समाज में जो-बाइडन जैसा ही स्वाभाविक संतोष की लहर हो। चौदह बरस का वनवास काट राम की अयोध्या वापसी होने पर घी के दिए जलाने जैसा आश्चर्यमयी उत्सव नहीं,,

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