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नारी: अस्तित्व से अस्मिता तक की यात्रा…

आलेख

नारी: अस्तित्व से अस्मिता तक की यात्रा…

✍️✍️✍️राघवेंद्र चतुर्वेदी

    महिला दिवस मात्र एक उत्सव नहीं, बल्कि यह दिन नारी की अदम्य शक्ति, संघर्ष और उसकी उपलब्धियों के प्रति सम्मान प्रकट करने का अवसर है। यह दिन हमें उस इतिहास की याद दिलाता है, जब नारी को अपने अस्तित्व की पहचान के लिए समाज से, परंपराओं से, और कभी-कभी स्वयं से भी संघर्ष करना पड़ा। यह दिवस हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि हम नारी के अधिकारों, उसकी सुरक्षा और स्वतंत्रता को लेकर आज कहाँ खड़े हैं।
    हम अगर प्राचीन भारत की बात करें, तो नारी शक्ति की अवधारणा कोई नई नहीं है। वैदिक काल में महिलाओं को पुरुषों के समकक्ष माना जाता था। ऋग्वेद और उपनिषदों में गार्गी, मैत्रेयी और अपाला जैसी विदुषियों का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने ज्ञान के क्षेत्र में पुरुषों को चुनौती दी। समाज में नारी को देवी स्वरूप में पूजा जाता था, क्योंकि वह सृजन की शक्ति की प्रतीक थी।
  धीरे-धीरे समय के साथ नारी की स्वतंत्रता पर बंधन बढ़ते गए। मध्यकाल आते-आते महिलाओं की स्थिति दयनीय हो गई। पर्दा प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह, अशिक्षा और सामाजिक बंधनों ने नारी को घर की चारदीवारी तक सीमित कर दिया। अब वह सिर्फ एक पत्नी, माँ या गृहिणी के रूप में देखी जाने लगी, उसकी स्वतंत्र पहचान लुप्त होती चली गई।
    19वीं और 20वीं शताब्दी में नारी स्वतंत्रता की अलख फिर से जल उठी। राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर और महात्मा गांधी जैसे समाज सुधारकों ने महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई लड़ी। सती प्रथा का उन्मूलन हुआ, विधवा विवाह को मान्यता मिली, और शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं को अवसर मिलने लगे।
   स्वतंत्रता संग्राम में भी महिलाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, सरोजिनी नायडू, विजयलक्ष्मी पंडित, और अरुणा आसफ अली जैसी वीरांगनाओं ने यह सिद्ध कर दिया कि नारी केवल त्याग और सहनशीलता की मूर्ति ही नहीं, बल्कि अदम्य साहस और नेतृत्व का प्रतीक भी है।
   स्वतंत्रता के बाद, भारतीय संविधान ने नारी को समानता, शिक्षा और स्वतंत्रता के अधिकार प्रदान किए। धीरे-धीरे समाज ने भी इस परिवर्तन को स्वीकार किया, लेकिन वास्तविक बदलाव अभी भी अधूरा था।
   आज की नारी सिर्फ़ घर तक सीमित नहीं, बल्कि वह हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कर रही है। वह अंतरिक्ष में उड़ान भर रही है, खेल के मैदान में इतिहास रच रही है, विज्ञान में अनुसंधान कर रही है, राजनीति में नेतृत्व कर रही है और कॉरपोरेट जगत में सफलता की ऊँचाइयाँ छू रही है।
   किरण बेदी, कल्पना चावला, मैरी कॉम, सानिया मिर्जा, पी. वी. सिंधु, फाल्गुनी नायर जैसी महिलाओं ने यह साबित कर दिया कि कोई भी क्षेत्र नारी शक्ति से अछूता नहीं।
  इस विकास के बावजूद आज भी महिलाओं को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा, लैंगिक असमानता, कार्यस्थल पर भेदभाव और सुरक्षा के मुद्दे समाज में गहरे पैठे हुए हैं। ऐसे में, महिला सशक्तिकरण केवल नीतियों और कानूनों से नहीं, बल्कि मानसिकता में बदलाव से ही संभव है।
   आज हमें यह समझने की आवश्यकता है कि महिला सशक्तिकरण का अर्थ पुरुषों के खिलाफ कोई आंदोलन नहीं, बल्कि यह समाज के संतुलन को स्थापित करने की एक प्रक्रिया है। जब एक महिला सशक्त होती है, तो वह केवल अपना जीवन ही नहीं, बल्कि पूरे समाज को आगे बढ़ाने में योगदान देती है।

शिक्षा का अधिकार – हर लड़की को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले।

आर्थिक स्वतंत्रता – महिलाओं को वित्तीय रूप से आत्मनिर्भर बनाना।

सुरक्षा और सम्मान – महिलाओं को हिंसा और शोषण से मुक्त वातावरण मिले।

राजनीतिक भागीदारी – निर्णय-निर्माण की प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी बढ़े।

मानसिकता में बदलाव – महिलाओं को समान अवसर और सम्मान देने की सोच विकसित हो।

महिला दिवस हमें केवल एक दिन के लिए महिलाओं का सम्मान करने का अवसर नहीं देता, बल्कि यह हमें याद दिलाता है कि महिलाओं का योगदान हर दिन, हर क्षण समाज को संवारने में लगा रहता है।

आज, हम उस दौर में हैं जहाँ नारी शक्ति को एक नई पहचान मिल रही है। लेकिन यह सफर अभी समाप्त नहीं हुआ। एक सशक्त समाज की नींव तभी रखी जा सकती है जब हम महिलाओं को न केवल बराबरी का दर्जा दें, बल्कि उन्हें वह हर अवसर प्रदान करें, जिसके वे योग्य हैं।

आज यह प्रण लें कि नारी को उसके पूरे अधिकार, सम्मान और सुरक्षा के साथ जीने का हक मिले। क्योंकि जब नारी आगे बढ़ेगी, तभी समाज और राष्ट्र उन्नति करेगा।

राघवेन्द्र चतुर्वेदी (बनारस)

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