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भारतेंदु हरिश्चंद्र : हिंदी साहित्य का महान ‘अनुसंधानकर्ता’ !!

आलेख

भारतेंदु हरिश्चंद्र : हिंदी साहित्य का महान ‘अनुसंधानकर्ता’ !!


(जन्म 9सितम्बर 1850 – मृत्यु 6 जनवरी 1885)

नीरज कृष्ण

 

जिंदगी लंबी नहीं…बड़ी होनी चाहिए…!’ फिल्म ‘आनंद’ का यह चर्चित संवाद (जीवन-दर्शन) हिंदी साहित्य के पितामह भारतेंदु हरिश्चंद्र पर भी सटीक बैठता है। उन्होंने सिर्फ 34 साल चार महीने की छोटी सी आयु में हिंदी साहित्य के क्षेत्र में अपना इतना विपुल योगदान दिया कि हैरानी होती है कि कोई इंसान इतनी छोटी सी उम्र में इतना कुछ कैसे कर सकता है। आज का हिंदी साहित्य जहां खड़ा है उसकी नींव का ज्यादातर हिस्सा भारतेंदु हरिश्चंद्र ने खड़ा किया था। वास्तव में भारतेंदु हरिश्चंद्र हिंदी साहित्य का महान ‘अनुसंधानकर्ता’ थे।

सन 1873 में हरिश्चंद्र ने अपनी पत्रिका “हरिश्चंद्र मैगजीन” में पहली बार पुरानी परंपरागत एवं उस समय प्रचलित संस्कृत एवं फारसी शब्दों से प्रभावित हिंदी लेखन शैली से अलग मिश्रित हिंदी का प्रयोग प्रारंभ किया जिसमे खडी बोली के साथ उर्दू के प्रचलित शब्दों का प्रयोग करना शुरू किया जिसमे तत्सम और उससे निकले उनसे पहले तद्भव शब्दों का खूब प्रयोग हुआ साथ ही कठिन और अबूझ शब्दों का प्रयोग कम से कम करना शुरू किया। भाषा के इसी रूप को ‘हिंदुस्तानी शैली’ कहा गया, जिसे बाद में प्रेमचंद जैसे साहित्यकारों ने और ज्यादा परिष्कृत किया। हालांकि कविता में वे खड़ी बोली के बजाय ब्रज का ही इस्तेमाल करते थे। अल्पायु में ही उन्होंने 21 काव्य ग्रंथ, 48 प्रबंध काव्य और कई मुक्तको की रचना की।

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भारतेंदु हरिश्चंद्र के भीतर पेशेवर लेखकीय भाव कूट-कूट कर भरा हुआ था। पेशेवर का अर्थ धन कमाना नहीं बल्कि लेखन के प्रति निष्ठा,पूर्व तैयारी, लेखकों को संगठित करना़, ज्ञान की अपडेटिंग रखना, सत्य का आग्रह और ईमानदारी। भारतेन्दु के लेखन पर काशी की संस्कृति की गहरी छाप थी।

भारतेन्दु हरिश्चंद्र का जन्म एक ऐसे परिवार में जन्म हुआ था जिसका अंग्रेजों के साथ गहरा ताल्लुकात था। इस संबंध को भारतेन्दु आलोचनात्मक नजरिए से देखते हुए कहते थे “इस धन ने मेरे पूर्वजों को खाया है, अब मैं इसे खाऊँगा।”
भारतेंदु सामाजिक रूप से काफी सक्रीय थे एवं सार्वजनिक कार्यक्रमों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते थे। भारतेन्दु जिंदादिल इंसान थे। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र अंतिम समय में जब बीमार थे तब लोग उनसे हालचाल पूछने आ रहे थे 6 जनवरी 1850 को सुबह बोले, “हमारे जीवन के नाटक का प्रोग्राम नित्य नया नया छप रहा है- पहले दिन ज्वर की, दूसरे दिन दर्द की तीसरे दिन खांसी की सीन हो चुकी है, देखें लास्ट नाइट कब होती है।” अपने जीवन के अंतिम समय में भी इस तरह की जिंदादिली बनाए रखना बहुत बड़ी बात है।

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कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं कि हिंदी फिल्म ‘आनंद’ के पठकथा लेखक के विचारों पर निश्चित ही भारतेंदु हरिश्चंद्र के जीवन-शैली का बहुत गहरा प्रभाव रहा होगा।”

नीरज कृष्ण】
एडवोकेट पटना हाई कोर्ट
पटना (बिहार
)

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