आलेख
भावभीनी श्रद्धांजलि: एक शख्सियत पर्यावरणविद सुन्दरलाल बहुगुणा
प्रतिभा की कलम से
प्रतिभा नैथानी
… 1962 के युद्ध में चीन से पराजय के बाद सामरिक दृष्टि से मजबूत होने के लिए भारत ने अपने सीमांत गांवों को भी सड़क से जोड़ना आवश्यक समझकर अंतिम गांव माणा के साथ-साथ गौरा देवी के रैणी गांव में भी सड़क प्रस्तावित कर दी। गांव वालों को सड़क से एतराज नहीं था, लेकिन जो मार्ग चिन्हित किया गया था उस पर इक्कीस सौ बहुमूल्य पेड़ों का कटान होने के बाद ही सड़क मार्ग बन सकता था। गौरा देवी ने इसका विरोध किया। उन्होंने गांव के लोगों को समझाया कि ये पेड़-पौधे हमारे माई-बाप हैं। हमें इन्हें कटने से बचाना ही होगा। महिलाओं को यह बात तुरंत समझ में आ गई, क्योंकि जंगल से ज्यादा वास्ता उन्हीं का पड़ता है । मगर पुरुषों को इस हरियाली से ऊपर नोटों की हरियाली दिखाई दे रही है, सरकारी कर्मचारियों ने यह बात अच्छे से समझ ली। 25 मार्च 1974 में एक रणनीति के तहत यह तय हुआ कि एक निश्चित तिथि पर गांव की सभी पुरुषों को मुआवजा लेने जिला मुख्यालय गोपेश्वर बुला लिया जाए। तब गांव में सिर्फ महिलाएं रह जाएंगी, और ठेकेदार के कर्मचारी कटान के लिए चिन्हित पेड़ों को आसानी से काट कर वापस आ जाएंगे। इधर गौरा देवी इस बात को समझ गईं। गांव की सत्ताइस अन्य महिलाओं को लेकर वह जंगल आ गईं। ठेकेदार के लोग भी आरी लेकर पहुंच चुके थे। लेकिन महिलाएं अड़ गईं कि हमारे मर्द घर पर नहीं है, इसलिए उनके आने तक तुम रुक जाओ। मगर क्या ठेकेदार के लोग रुकने को आए थे। यह मौका तो उन्होंने खुद मुहैया करवाया था। उन्हें तो किसी भी हाल में आज जंगल साफ करना था। वह नहीं रुके और आगे बढ़ते गए। बात जब हद से ज्यादा बढ़ गई तो ठेकेदार ने बंदूक निकाल ली । निडर गौरा लिपट गई एक पेड़ से। उन्होंने कहा -“मारो गोली ! खत्म कर दो हमको ! और काट लो हमारा मायका” । उनकी देखा-देखी बाकी सब महिलाएं भी लिपट गईं पेड़ों से। मजदूर आगे बढ़े, लेकिन पेड़ों से लिपटी ममतालु स्त्रियों के हाथ की दराती ने उन्हें दक्ष प्रजापति का यज्ञ भंग करती क्रुद्ध नंदा भगवती के साक्षात दर्शन करा दिए। पेड़ों को उनकी मां मिल गई थी। फिर किसकी मजाल जो मां की गोद में दुबके हुए बच्चे को बुरी नजर से देख सके। ठेकेदार समेत सारे मजदूर भाग खड़े हुए ।
” पेड़ों से हमें ऑक्सीजन मिलती है। इससे हमारा वातावरण शुद्ध होता है”, यह बहुत बाद की बात है। अपनी जान की परवाह किए बगैर पेड़ों से चिपककर उन्हें बचाने की पीछे की भावना में बसता है वह विश्वास जिसमें ये पेड़-पौधे, ये जंगल किसी को भूखा नहीं मरने देते। जानवरों के लिए घास-पात और ईंधन के लिए जलौनी लकड़ियों के सिवा हमें कई प्रकार के फल-सब्जी और औषधियां भी मिलती हैं वृक्षों से ।
तो ऐसे में अपने हरे-भरे संसार को कटने से बचाने के लिए क्या करेंगे आप ! वही ना जो गौरा देवी ने किया । जंगल बचाने के खातिर अपना सर्वोच्च बलिदान देने को तैयार हो गई।
दुनिया ने यह बात तब जानी जब बीबीसी लंदन ने इसे प्रसारित किया। यकीन करना मुश्किल था कि धरती में कहीं ऐसे भी लोग हैं जो जंगल बचाने के खातिर अपनी जान देने को तैयार हो गए।
जब तक गौरा देवी जीवित रहीं पहाड़ फलता-फूलता गया। दुनिया भर में जहां हरे पेड़ों पर आरी चलने की बात आई प्रकृतिप्रेमियों का सबसे आसान और सशक्त हथियार बना “चिपको आंदोलन” । इस आंदोलन से खासे प्रभावित हुए श्री सुंदरलाल बहुगुणा जी। गौरा देवी के पद चिन्हों पर चलते हुए हुए उन्होंने भी पर्यावरण की रक्षा को ही अपना कर्म बना लिया। आज 94 वर्ष की अवस्था में इस वयोवृद्ध पर्यावरण प्रेमी का देहांत हो गया है। हमारी श्रद्धांजलि उन्हें।
प्रतिभा नैथानी