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पपीहा

आलेख

पपीहा

कहानी

प्रतिभा की कलम से

क्या नाम था उसका ? वो जो एक सुन्दर से घर में रहती थी । चाहरदीवारी से घिरी हुई । हदें तय न थीं बाहर निकलने कीं,मगर अपनी दुनिया के लोगों के बंधन में जकड़ी वो खुद ही बाहर की दुनिया देखने की चाह न रखती थी ।
अपनी सीमाओं में खड़े रह जितनी आवाजें उसे सुनाई पड़ जाती थीं वहीं तक उसका वातावरण था और जितनी दूर तक उसे दिखायी पड़ जाता ,उसे लगता दुनिया उतनी ही है।सुबह के उगते सूरज और ढ़लते सूरज पर खत्म हो जाना उसका दिन था । रात को चाँद भी वो देखती थी ।सोचती थी कि चाँद सिर्फ उसके ही घर के एक छोर से दूसरे छोर पर ढ़लता है। जिस दिन चाँद नहीं उस दिन सितारों की गिनती भी वो करती,और सोचती कि ये उससे थोड़े ज्यादा तक ही तो होंगे जितनी बड़ी उसके घर की छत है ।


ऐसे ही एक दिन छत पर जब वो ढ़लता सूरज देखती है तो न जाने किधर से एक उदास हवा उसकी जुल्फों को उलझा देती है। वो हवा साँस लेती है फिर आखिर उसके दिल में उतर कर ही। उस दिन रात बीती कुछ उलझी सी । सुबह भी कुछ ऐसी ही थी कि दोपहर को दूर कहीं से आती एक मीठी आवाज सुनाई पड़ी । लगा जैसे कोई बुलाता हो ।आवाज थी पपीहे की ।उसका मन उस आवाज की तरफ जाने को हुआ और वो चली भी गई। कुछ कदम दूर गई ही थी कि फिर उसे अपनी हदों का खयाल आ गया,जहां उससे लगी हुई , उसके साथ हर चीज व्यवस्थित थी ।बदलाव विहीन सजावटी दुनिया उसकी ।
उस दुनिया में सिर्फ उसका चेहरा ही था जो हर रोज बदला हुआ सा लगता, जब मासूमियत कभी उसकी आँखों में ठहरकर ,कभी गालों पर टिककर तो कभी मुस्कराहट पे बैठकर उसे पहले से भी ज्यादा मासूम बना जाती ।
वो लौट गई । लेकिन अगली दोपहर वही टुहूक फिर सुनाई पड़ी । वो चल पड़ी …
आज वो पहले से ज्यादा दूर गई । फिर लौट गई । इतनी आसानी से कौन अपनी हदें लाँघता है भला !
लेकिन तीसरे रोज जब पपीहा विरह के बेहतरीन सुर में था तो वो भी न रूकी ।
चलती गई इधर-उधर .. , भटकती हर दिशा में आखिर पंहुच गई उस पेड़ के पास जहां से पपीहे की आवाज आ रही थी । कुछ देर मंत्र- मुग्ध सी वो डूबी रही उस मीठी तान में । फिर उस मधुर आवाज की साकार मूर्ति को देखने की चाह में उसने उस पेड़ की डाल हिला दी ।
पपीहा एक डाल से दूसरी डाल पर आ बैठा । ‘वो’ हँस पड़ी ।पेड़ भी थिरका था । पपीहा, पेड़ और ‘उसके’ हास – परिहास से उस वीरान जगह का माहौल खुशगवार हुआ और पत्तियां हिलने से पेड़ के कुछ फूलों के बीज जमीन पर गिर जाते रहे । अब वो घर लौट आयी अगली दोपहर के इंतजार में । पपीहा और पेड़ वहीं रहे उसके इंतजार में । अगली दोपहर भी वैसी ही बीती । और बिना बदले आने वालीं और भी ऐसी ही कई दोपहरें उसी ‘तान’ को खोजते,उसमें डूबते,पेड़ को हिलाते और बीजों का उस पेड़ के इर्द-गिर्द बिखरते बीतती रहीं । एक दोपहर पपीहा नहीं बोला ।मगर पपीहे की टुहूक सुनते से उसके कदम उसी राह पर अपने आप चल पड़े । वहां पंहुच कर उसने महसूस किया कि आज पपीहा नहीं बोला ।उसने पेड़ हिलाया । बीज गिरे,पपीहा फुर्र से दूसरी डाल पर भी बैठा मगर बोला नहीं । ‘वो’ हैरान आज और ज्यादा देर तक वहां बैठी रही । फिर निराश घर लौट आयी । अगली दोपहर भी वो गई । मगर आज वस वही हाल रहा ।पपीहा नहीं बोला । तीसरे दिन वो न गई मगर इंतजार में रही कि पपीहा बुलाये तो वो भी कदम बढ़ाये । और फिर चौथे दिन से उसने सोचना शुरू कर दिया कि क्यों बिना बात पपीहे ने उससे बात करना छोड़ दिया ।
बीती कूक, हूक बनकर उठी तो एक रोज वो फिर उसी राह पर मुड़ गयी । उस पेड़ के पास पंहुची जहां पपीहा बोलता था । पपीहा वहीं था मगर उसे देखकर वो अजनबी होकर दूसरी डाल पर बैठ गया ।नजर डबडबा गई ‘उसकी’ । देखा उसने कि पेड़ के चारों तरफ बीजों में अंकुर उग आये हैं । इतने वक्त में पपीहे में भी ये बात उग आयी थी कि वो बहुत अच्छा गाता है और अब वो चाहता था कि ‘वो’ उसके सम्पूर्ण को भी सबसे अच्छा समझे ।
मौन रहकर उस बेचारी को यूं अपमानित कर पपीहे को खामोशी में भी तृप्ति की अनुभूति हुई । लौट आयी ‘वो’ फिर अपनी हद में । सब कुछ पहले जैसा था अब भी । उदास हवा भी उसकी सांसो से ही इधर – उधर का रूख करती थी । उसने आना छोड़ दिया मगर पपीहा क्यों गाना छोड़ता । वो अब उस पेड़ से दूर किसी गली, मुहल्ले,डालियों में टुहूकता । सुनने वाले अब भी थे । मगर दीवाने कहाँ हर हली में मिलते हैं। सब अपने -अपने कामों में मशरूफ !
कोई भी ऐसा नहीं जो पपीहे को ढ़ूढ़ते हुए उसका पेड़ हिलाने आये । बेकद्री के छह महीने बीत गये । पपीहा आज फिर उसी पुराने पेड़ पर था । टुहूकता था । आवाज ‘उस’ तक भी पंहुची ।वो बाहर निकली ।चलते-चलते पंहुची उस जगह तक ।पपीहा सच में बोलता था । उसने पेड़ हिलाया । नये पत्ते थरथराये और पुराने पत्ते धीरे-धीरे यादों के मानिंद दिल से उठकर आँसुओं की तरह जमीन पर गिरते गये ।ढ़क गये उन पत्तों से वहां बिखरे बीजों से उगे फूल ।पपीहा जोर से बोला कि ‘वो’ फिर उससे नजर मिलाये । मगर ‘उसने’ नजर फेर ली इस तरह कि जैसे कोई बीती बातों पर मिट्टी डालता हो ।
स्यापा पड़ गया पपीहे पर । बेसुरा होकर टुहूकता रहा वो बड़ी देर तक ।मगर ‘उसने’ पलट कर न देखा । चलती रही,चलती रही ।दिल के छाले पैरों में उभर आये और फूटे फिर लहूलुहान नदी की तरह ।
जहां – जहां जमीं सिंच गई ‘उसके’ लहू से,वहां-वहां गुलमोहर दहका सुर्ख होकर । पपीहा अब उन्हीं डालियों पर बैठता है ,मद में अंधा लेकिन गाता रहता है ‘गूंगा’ होकर ।

प्रतिभा नैथानी

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