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जलवायु परिवर्तन से जंग के लिए हिमालय का ख्याल रखने की जरूरत

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जलवायु परिवर्तन से जंग के लिए हिमालय का ख्याल रखने की जरूरत

आबादी के क्षेत्रों में विकास कार्य के शुरू होने या बाद में हर स्तर की निगरानी लगातार होनी चाहिए। पहाड़ी नदियों को भी आपस में जोड़ने पर गंभीर विचार किया जाना चाहिए। अतिसंवेदनशील हिमालयी क्षेत्र पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है।

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देहरादून: आज सबसे गंभीर समस्या बन चुकी जलवायु परिवर्तन से लड़ना जो एक सबसे बड़ी चुनौती है। पिछले ढाई सौ वर्षो में वैश्विक तापमान में करीब 0.5 से एक डिग्री सेल्सियस प्रति सदी की दर से वृद्धि हो रही है। जिसका असर दुनिया की जलवायु पर हुआ। लिहाजा अतिवृष्टि, अनावृष्टि, हिमपात, चक्रवात आदि की अनियमित और ज्यादा तीव्रता के रूप में सामने आया है। जलवायु परिवर्तन का असर उन स्थानों पर सर्वाधिक हुआ है जिनका जलवायु के बनने की प्रक्रिया में अहम हिस्सा होता है। मरुस्थल, समुद्र और नदियों के साथ हमारा पर्वतराज हिमालय भी उनमें से एक है। यह पर्वत श्रृंखला भारतीय उपमहाद्वीप और एशिया महाद्वीप के हिममंडल का एक हिस्सा है। हिमालय कुल 5.95 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में फैला है। इस पूरे क्षेत्र को जल से तृप्त करने वाली कई अहम नदियों का यह उद्गम स्थान है। इस क्षेत्र में करीब दस हजार ग्लेशियर हैं। इन ग्लेशियरों में विद्यमान हिम के कारण ही इसे तीसरा ध्रुव भी कहा जाता है।

इन ग्लेशियर से निकली नदियों से करीब 50 करोड़ लोगों के रोजाना की जल जरूरत पूरी होती है। इन नदियों के क्षेत्र में रहने वाली आबादी का विकास व सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति पूरी तरह इन्हीं पर निर्भर रही। यह क्षेत्र चूंकि बहुत ही जैविक विविधता का क्षेत्र रहा है, इस कारण पूरा क्षेत्र दशकों से अतिदोहन का शिकार रहा है।

पिछले 150 साल में जुटाए आंकड़े हिमालयी क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के असर की कहानी कहते हैं। यहां के वायु तापमान में औसतन 1.1 डिग्री सेल्सियस प्रति सौ वर्ष की वृद्धि हो चुकी है। शीतकाल में यह वृद्धि और अधिक है जो 1.2 डिग्री सेल्सियस प्रति सौ वर्ष है। यह वृद्धि आल्प्स और दुनिया की अन्य पर्वत श्रृंखलाओं के वातावरण में तापमान वृद्धि से कहीं ज्यादा है। इन क्षेत्रों में मानसूनी और गैर मानसूनी बारिश की मात्र में भी कमी देखी गई है। हालांकि यकायक औसत से अधिक बारिश होने का मामले बढ़े हैं। कुछ साल से यहां पर हिमपात की मात्र एवं दर में भी कमी आई है। हवा के तापमान के बढ़ने से बर्फ का टिकना भी कम हुआ है। नवंबर व मार्च में तापमान की अधिकता के कारण हिमपात या सर्दियां देर से शुरू होती हैं और देर तक रहते हैं। साथ ही बसंत ऋतु भी जल्दी शुरू हो जा रही है।

उत्तर-पश्चिम हिमालय में मौजूद सभी ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिग के कारण सिकुड़ रहे हैं। छोटे ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं जबकि बड़े ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार धीमी है। न सिर्फ इन ग्लेशियरों की लंबाई तेजी से कम हो रही है बल्कि इनका आयतन यानी मोटाई और चौड़ाई भी इसी अनुपात में कम होती जा रही है।

मानवजनित क्रियाकलाप में वृद्धि और आबादी का इन क्षेत्रों में दबाव बढ़ रहा है। तेज गति से अनियोजित विकास हो रहे हैं। कई बार उनके पर्यावरण असर का सही से मूल्यांकन भी नहीं हो पाता है। ऐसी तमाम गतिविधियां जीवनदाता हिमालय के अस्तित्व पर बड़ा खतरा पैदा कर रहे हैं।

हिमालय के ऊपरी क्षेत्रों में जहां पर ग्लेशियर तेजी से पिघलकर सिकुड़ रहे हैं, इस प्रक्रिया में वहां पर नए क्षेत्र विकसित हो जाते हैं। ये क्षेत्र बहुत संवेदनशील या कह लें कि क्षणभंगुर होते हैं। इनके अपक्षय से मलबा जल्दी बनते हैं। लिहाजा ज्यादा बर्फबारी या हिमस्खलन से ये पूरा भूभाग नीचे घाटी की तरफ खिसक जाता है। कई बार ये मलबा नदी के बहाव को अवरुद्ध कर देता है जिससे एक विशालकाय झील बन जाती है। जब ज्यादा जल जमाव के बाद ये झील टूटती है तो आबादी वाले हिस्सों में इसकी विनाशलीला शुरू हो जाती है। और यही सब विगत दिनों चमोली में हुआ।

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