आलेख
धनतेरस तब और अब…
ध्रुव गुप्त
कार्तिक कृष्णपक्ष की त्रयोदशी या तेरस पांच दिनों के प्रकाश- पर्व का पहला दिन है। यह पर्व उस पौराणिक घटना की स्मृति है जब समुद्र मंथन के संयुक्त अभियान में देवों और असुरों ने अमृत घट अर्थात जीवनदायी औषधियों के साथ आयुर्वेद के आदि चिकित्सक धन्वंतरि की खोज की थी। प्रतीकात्मक रूप से धन्वंतरि के चार हाथ हैं। उनमें एक में अमृत कलश, दूसरे में औषधि, तीसरे में शंख और चौथे हाथ में चक्र विद्यमान हैं। शास्त्रों के अनुसार आयुर्वेद के जन्मदाता ब्रह्मा थे। ब्रह्मा ने यह विद्या अश्विनी कुमारों को सिखाई और अश्विनी कुमारों ने इंद्र को। इंद्र से यह विद्या धनवंतरि तक आई थी। धन्वंतरि के चिकित्सीय ज्ञान और दक्षता से प्रभावित होकर देवों ने उन्हें अपना चिकित्सक बनाया था। उनके प्रति सम्मान इतना था कि कालांतर में उन्हें भगवान विष्णु का अवतार तक कहा गया।
हजारों वर्षों से इस दिन को आयुर्वेद को समर्पित धन्वंतरि त्रयोदशी, धन्वन्तरि जयंती या धनतेरस के रूप में श्रद्धापूर्वक मनाया जाता रहा है। पुराणकारों का विश्वास था कि इस दिन संध्या समय धन्वंतरि को याद कर यम को दीपदान करने से जीवन में आरोग्य और अकाल मृत्यु से सुरक्षा मिलती है। मध्ययुग में इसके साथ यह विश्वास जुड़ा कि इस दिन घर के बर्तन खरीदने से घर में धन-धान्य की वृद्धि होती है। पिछली एक सदी में यह पर्व बहुत सारी विकृतियों का शिकार हुआ है। धनतेरस का आज जो स्वरुप है वह हमारी संस्कृति का नहीं, बाजार की आक्रामक नीतियों और उपभोक्तावाद की देन है। हमारी धनलिप्सा ने एक महान चिकित्सक को धन का देवता बनाकर रख दिया । बाजार ने हमें बताया कि धनतेरस के दिन सोने-चांदी, जुए या सट्टे में निवेश करने, गाड़ियां और विलासिता के सामान खरीदने से धन तेरह गुना तक बढ़ जाता है। यह तो पता नहीं कि इन उपायों से कितने लोगों के धन में वृद्धि हुई, लेकिन इस दिन बाजार की आपाधापी देखकर यह विश्वास तो होता ही है कि हमारी सांस्कृतिक चेतना किस हद तक उपभोक्तावाद की भेंट चढ़ चुकी है।
हाल के कुछ वर्षों में धनतेरस के साथ एक और अंधविश्वास भी जुड़ा है। पौराणिक मान्यता है कि देवी लक्ष्मी के वाहन उल्लू का दर्शन हो जाय तो घर में लक्ष्मी का आमद होता हैं। यह संभवतः हमारे पूर्वजों द्वारा पर्यावरण संतुलन में उल्लुओं की भूमिका का स्वीकार था। इसके विपरीत कुछ पाखंडी तांत्रिकों ने यह स्थापना दी कि उल्लुओं के दर्शन से नहीं, उनकी बलि से तांत्रिक सिद्धियां और सुख-समृद्धि प्राप्त होती है। पिछले कुछ वर्षों में कुछ यह बात तेजी से फैलाई गई है कि धनतेरस की रात उल्लुओं की बलि देने से खोया हुआ धन प्राप्त होता है और व्यवसाय में वृद्धि होती है। यह अंधविश्वास आज पूरे देश में फैल गया है। धनतेरस की रात हजारों उल्लुओं की बलि दी जा रही है। उन्हें पकड़कर मुंहमांगी कीमत पर बेचने वाले तस्करों के बहुत सारे गिरोह आज सक्रिय हैं। उल्लुओं की लगातार बढ़ती बलि के कारण आज देवी लक्ष्मी का वाहन मानी जाने वाली पक्षियों की इस प्रजाति के नष्ट होने का खतरा उत्पन्न हो गया है।
समय के साथ हमारी संस्कृति के कई-कई दूसरे पर्वों की तरह धनतेरस की मूल भावना भी विलुप्त हो चली है। इसपर अब धनलिप्सा और अंधविश्वास का कब्जा है। अब यह हमारे आदि चिकित्सक धन्वंतरि और आयुर्वेद के सम्मान का नहीं, बाजार का उत्सव है। वस्तुतःआज के दिन का संदेश यह है कि हम प्रकृति की ओर लौटें। आयुर्वेद के प्रणेता धन्वंतरि को याद करें और दीर्घकालिक, हानिरहित आरोग्य के लिए प्रकृति आधारित अपनी प्राचीन चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद को अपनाएं। धनतेरस की वास्तविक खुशी विलासिता के सामान एकत्र करने में नहीं है। बाजार के बहकावे में वैभव के बेशर्म प्रदर्शन के बजाय हम अपने आसपास, गांव-शहर अथवा अनाथालय के ज़रूरतमंद बच्चों में थोड़े लड्डू, कुछ फुलझड़ियां, चंद नए-पुराने कपडे और एक ज़रा सी मुस्कान बांट सकें तो हमारी खुशी तेरह नहीं, सीधे छब्बीस गुना बढ़ जाएगी !
ध्रुव गुप्त (रिटायर्ड आईपीएस और साहित्यकार)