Connect with us

“यूथेनेशिया और लिविंग विल”

आलेख

“यूथेनेशिया और लिविंग विल”

(10 सिंतबर, विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस)

नीरज कृष्ण

यूथेनेशिया अर्थात इच्छा मृत्यु

विश्व भर में आत्महत्या की प्रवृत्ति तेज गति से बढ़ रही है। खुद की जान खुद लेने का यह सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। जीवन की कठिनाइयों से घबराकर आत्महत्या का रास्ता चुन लेना सबसे घटिया विकल्प है। लेकिन फिर भी आत्महत्या करना एक फैशन बनता जा रहा है। लोगों में समस्याओं से लड़ने की शक्ति क्षीण होती जा रही है। आत्ममुग्धता के दौर में लोगों पर अहम हावी होता जा रहा है। कुछ लोग तो महज अपनी इज्जत बचाने के खातिर मौत का रास्ता चुन रहें हैं क्षणिक भावावेश में उठाया गया गलत कदम मृतक के परिवार के लिए पीड़ा का सबब बन रहा है।

यह लाइलाज बीमारी दिनोंदिन विकराल रूप धारण करती जा रही है। दुनिया में प्रतिवर्ष 8 लाख से अधिक और प्रति 40 सेकंड में एक व्यक्ति आत्महत्या के कारण अपनी जिंदगी खो रहा है।

हर साल 10 सितंबर को वर्ल्ड सुसाइड प्रिवेंशन डे मनाया जाता है। इसे लोगों में मानसिक स्वास्थ के प्रति जागरुकता फैलाने और आत्महत्या के बढ़ते मामलों को रोकने के लिए मनाया जाता है। आत्महत्या के बढ़ते मामलो को रोकने के लिए इसे 2003 में शुरु किया गया था। इसकी शुरुआत इंटरनेशनल असोसिएशन ऑफ सुसाइड प्रिवेंशन द्वारा की गई थी।

आत्महत्या की सबसे बड़ी वजह तनाव है। तनाव व्यक्ति को निराश करके शक्तिहीन बना देता है। जिसके चलते वह मौत के रास्ते की ओर बढ़ने लगता है। कुछ लोग आवेग में आकर तो कुछ गहरे अवसाद या विषाद की चपेट में आकर आत्महत्या की राह चुनते हैं। गौर करें तो विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से जारी की गई रिपोर्ट के अनुसार अवसाद के मामले में भारत दुनिया में सबसे आगे है। वर्तमान में पूरी दुनिया में 30 करोड़ लोग अवसाद की समस्या से जूझ रहे हैं। भारत में 6.5 प्रतिशत लोग गंभीर मानसिक बीमारियों से ग्रस्त है, जिसकी संख्या 2022 तक 23 प्रतिशत तक बढ़ जाने की आशंका है।

15-29 वर्ष की आयु में में होने वाली आत्महत्याओं का औसत, देश की कुल आत्महत्याओं के औसत से तीन गुना अधिक है। इसके कारण पूरे विश्व की तुलना में भारत के युवाओं में आत्महत्या के सबसे अधिक मामले मिलते हैं। आत्महत्या करने बालों में 33 प्रतिशत की उम्र 30 से 45 साल के बीच थी, जबकि आत्महत्या करने वाले करीब 32 प्रतिशत लोगों की उम्र 18 साल से 30 साल के बीच थी। आत्महत्या करने वालों में पुरुषों की गिनती महिलाओं से कहीं ज्यादा है।

भारत में आत्महत्या करने के लिए अक्सर कीटनाशकों का प्रयोग किया जाता है। भारत के अनेक हिस्सों, अधिकतर ग्रामों में, इनकी उपलब्धता को सीमित करके दर को कम किया जा सकता है। विश्व के अनेक भागों में मानसिक बीमारियों को जल्दी पहचान कर समय पर उनका इलाज करके भी आत्महत्या की दर को कम किया गया है। अवसाद रोधी दवाओं के इस्तेमाल, मनोचिकित्सक की मदद, हमराज होने और प्रेम व करूणा से आत्महत्याओं पर नियंत्रण पाया जा सकता है। आत्महत्याओं को रोकना एक सामाजिक प्रयास होना चाहिए। इसके लिए धन की अपेक्षा प्रेम एव करूणा की अधिक आवश्यकता है।

भारत में आत्महत्या को एक अपराध माना है। लेकिन, आत्महत्या के प्रयासों से संबंधित भारतीय संहिता की धारा 309 के संबंध में उसे क्रूर होने की चर्चा की जाती है। इस धारा में आत्महत्या को दंडनीय अपराध माना गया है। एक प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन माना है। सर्वोच्च न्यायालय ने इसे क्रूर और तर्कहीन माना था। इस धारा में उस व्यक्ति को सजा देने के प्रावधान है जो पहले ही आत्महत्या के प्रयासों के कारण और उसमें विफल होने की पीड़ा झेल चुका है। भारत में सन्‌ 1971 में अपनी 42वीं रिपोर्ट में विधि आयोग ने इस पर विचार कर इस धारा को हटाने की सिफारिश की थी, लेकिन दुर्भाग्य से इसे अभी तक हटाया नहीं जा सका।

सन्‌ 2006 में भारत के विधि आयोग ने गंभीर रूप से बीमार रोगियों पर 196वीं रिपोर्ट पेश की। इसमें विशेष परिस्थितियों में इच्छा मृत्यु को वैध बनाने की सिफारिश की गई थी। रिपोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि इच्छा मृत्यु और चिकित्सक द्वारा सहायता प्राप्त आत्महत्या को वैध नहीं माना जाएगा।

आत्महत्या एक अपराध है। लेकिन, इसके लिये सजा का प्रावधान नहीं होना चाहिए। यदि वह जीवित रह जाता है, तो उसे सजा के स्थान पर उसकी सजा को समझकर उसके निराकरण की व्यवस्था की जाना चाहिए। यह सामान्य किस्म का अपराध नहीं है तथा इसके साथ मानवीय संवेदनाएं जुड़ी होना चाहिए। अरूणा शानबाग प्रकरण में पहली बार इच्छा मृत्यु का मुद्दा सार्वजनिक चर्चा में आया था। इस मामले में सर्वेच्च न्यायालय ने अरूणा की इच्छा मृत्यु की याचिका स्वीकारते हुए मेडिकल पैनल गठित करने का आदेश दिया था। बाद में न्यायालय ने अपना यह फैसला बदल दिया।

इस फैसले ने असाध्य रोगों से पीड़ित व्यक्ति को इच्छा मृत्यु देने की बहस को आगे बढ़ाने का कार्य किया। इच्छा मृत्यु के खिलाफ भी जोर शोर से तर्क दिए जाते हैं। दुनिया के कई देशों जैसे लक्जमबर्ग, नीदरलैंड और बेल्जियम आदि में इच्छा मृत्यु की अनुमति है। पर, भारत इसके लिए अभी तैयार नहीं है। समाज में इसे अपराध ही माना जाता है। अनुमति वाले देशों में भी इच्छा मृत्यु मांगने वाले हर व्यक्ति को इच्छा मृत्यु नहीं दी जा सकती। इसके लिए बाकायदा कुछ नियम और कानून हैं।

विशेष परिस्थितियों में पैसिब यूथनेशिया (कोमा में पड़े मरीज का लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाना) सही तो है ! लेकिन, वह लिविंग विल का समर्थन नहीं करती है। भयंकर पीड़ा के आधार पर इच्छा मृत्यु का समर्थन किया जाता रहा है। इसके लिए आंशिक तौर पर पैसिव यूथेनेसिया की इजाजत है। एक्टिव यूथेनेशिया और पैसिव यूथेनेशिया इन दोनों ही शब्दों का प्रयोग इच्छा मृत्यु के लिए किया जाता है। एक्टिव यूथेनेशिया वह स्थिति है, जब इच्छा मृत्यु मांगने वाले किसी व्यक्ति को इस कृत्य में सहायता प्रदान की जाती है, जैसे जहरीला इंजेक्शन लगाना आदि। वहीं पैसिव यूथेनेशिया वह स्थिति है, जब इच्छा मृत्यु के कृत्य में किसी प्रकार की कोई सहायता प्रदान नहीं की जाती। संक्षेप में एक्टिव यूथनेशिया वह है, जिसमें मरीज की मृत्यु के लिये कुछ किया जाए, जबकि पैसिव यूथेनेशिया वह है जहां मरीज की जान बचाने के लिए कुछ न किया जाए।

पी. रथिनाम बनाम भारत संघ मामले में आईपीसी की धारा 309 की संवैधानिकता पर यह कहते यह सवाल उठाया गया था कि यह धारा संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है। लेकिन, ज्ञान कौर बनाम पंजाब राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ किया कि अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन के अधिकार में मृत्यु वरण का अधिकार शामिल नहीं है। अर्थात्‌ जीने का अधिकार तो है, लेकिन मरने का अधिकार नहीं है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने एक एतिहासिक फैसले में मरणासन्न व्यक्ति द्वारा इच्छमृत्यु के लिए लिखी गई वसीयत (लिविंग बिल) को शर्तों के साथ कानूनी मान्यता दे दी है।

लिविंग विल एक लिखित दस्तावेज होता है जिसमें कोई मरीज पहले से यह निर्देश देता है कि मरणासन्न स्थिति में पहुंचने या रजामंदी नहीं दे पाने की स्थिति उसे किस तरह का इलाज दिया जाए। पैसिव यूथेनेशिया ( इच्छा मृत्यु) वह स्थिति है जब किसी मरणासन्न व्यक्ति की मौत की तरफ बढ़ाने की मंशा से उसे इलाज देना बंद कर दिया जाता है। मरणासत्र व्यक्ति लिविंग बिल के जरिए अग्रिम रूप से बयान जारी कर यह निर्देश दे सकता है कि उसके जीवन को वेंटिलेटर या आर्टिफिशियल सपोर्ट सिस्टम पर लगाकर लंबा नहीं खींचा जाए।

सर्वोच्च न्यायालय ने यह बिल्कुल सही कहा है कि जीवन और मृत्यु अलग नहीं किया जा सकता। हर क्षण हमारे शरीर में बदलाव होता है। बदलाव एक नियम है। जीवन को मौत से अलग नहीं किया जा सकता। मृत्यु जीने की प्रक्रिया का ही हिस्सा है। सुप्रीम कोर्ट ने पैसिव यूथेनेशिया और लिविंग बिल को मान्यता देते हुए कहा कि ये जीने के अधिकार का हिस्सा है। अनुच्छेद 21 के तहत जिस तरह नागरिकों को जीने का अधिकार दिया गया है, उसी तरह उन्हें मरने का भी अधिकार है। इस पर केंद्र सरकार ने कहा कि इच्छा मृत्यु की वसीयत (लिविंग विल) लिखने की अनुमति नहीं दी जा सकती। लेकिन, मेडिकल बोर्ड के निर्देश पर मरणासन्न का सपोर्ट सिस्टम चिकित्सकों की सलाह पर हटाया जा सकता है।

Continue Reading
You may also like...

More in आलेख

Trending News

Follow Facebook Page

About Us

उत्तराखण्ड की ताज़ा खबरों से अवगत होने हेतु संवाद सूत्र से जुड़ें तथा अपने काव्य व लेखन आदि हमें भेजने के लिए दिये गए ईमेल पर संपर्क करें!

Email: [email protected]

AUTHOR DETAILS –

Name: Deepshikha Gusain
Address: 4 Canal Road, Kaulagarh, Dehradun, Uttarakhand, India, 248001
Phone: +91 94103 17522
Email: [email protected]