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गंगोत्री ही अपवित्र है तो गंगा कैसे पवित्र रहेगी…

आलेख

गंगोत्री ही अपवित्र है तो गंगा कैसे पवित्र रहेगी…

डॉ.नीरज कृष्ण

बात युवा व्यंग्य-हास्य कवि हिमांशु धुरंधर जी की एक छोटी सी कविता से शुरुआत करना चाहूँगा – ढाई सौ ग्राम जिलेबी, आधा किलो इमरती, 59 गुलाबजामुन और डेढ़ सौ काजू की कतली खाने के बाद नेता जी ने वेटर से पूछा – बता मीठे में क्या है? वेटर घबड़ाया … इसके पहले वेटर कुछ बोलता,  नेता जी ने फूल कान्फिडेन्स से वेटर से कहा – क्या तुझे इस बात की खबर है कि मुझे शुगर है। वेटर घबड़ाया और बोला शक्कर की बीमारी और इतना मीठा ? समय से पहले मर जाएंगे। तब नेता जी ने जवाब दिया बेटा छोड़, हम धूर्तता में श्रेष्ठ, नीचता में अव्वल, कायरता में प्रथम, ढोंग में महारथी, रंग बदलने में राजा, दल बदलने में गिरगिट, घोटालों के सत्ताधिश, घूसखोरी के अधिपति, चाटुकारिता के दिग्गज, हरामखोरी के उदाहरण, विषैले सर्पों के अग्रज और मक्कारी के शिखर कलश हैं, छोटी –मोटी चीजों से हम डर जाएंगे क्या? प्यारे – हम रेल, चारा, पूल, सड़क और देश खा कर नहीं मरे, तेरी तुम्हारी मिठाई खा कर मर जाएंगे क्या?

आज हर क्षेत्र में नैतिकता के ह्रास की बातें लोग करते हैं। खास कर चुनावी राजनीति और प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था के संदर्भ में तो लोगों की यह चिंता लगातार अभिव्यक्त होती रहती है। इसलिये यह समझना जरूरी है कि आखिर नैतिकता होती क्या है और उसकी जरूरत समाज को क्‍यों होती है। लोक, परिस्थिति और स्थान के संदर्भ में ही नैतिकता की चड़ताल की जानी चाहिए। हर समाज अपना एक अलग सांस्कृतिक ढांचा गढ़ता है और नैतिक मूल्य उस सांस्कृतिक ढांचे को उसकी पहचान देते हैं। आध्यात्मिक और भौतिक जगत में भेद होता है। आध्यात्म मानव मन के अंदर का सच होता है तो भौतिकता बाहरी चराचर जगत की सच्चाई होती है। आध्यात्मिक और भौतिक जगत के बीच बीच मानव मन की एक झीनी चादर होती है। मगर इन दो जगत के बीच संवाद भी होता है। यही संवाद उस समाज के नैतिक प्रतिमान स्थापित करता है।

सवाल उठता है कि मानव मात्र की नैतिकता क्या राष्ट्र विशेष, समुदाय विशेष या लोक विशेष की नैतिकता से भिन्न होती है? जिन परिस्थितियों में किसी समाज का विकास होता है उन्हीं परिस्थितियों की जरूरतों के मुताबिक नैतिकताएं बनती हैं और विकसित होती है। मनुष्य के सामाजिक व्यवहार को ये नैतिकताएं निर्धारित करती हैं। समाज के नैतिक मूल्यों से सामाजिक अनुशासन स्थापित होता है। राज्य व्यवस्था यह अनुशासन सुनिश्चित करती है। सामाजिक अनुशासन उस समाज के नैतिक प्रतिमानों को ही प्रतिबरिम्बित करता है। समाज जे ये नैतिक प्रतिमान उस समाज को उसकी पहचान देते हैं और उसकी संस्कृति रचते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो लोक, समाज और उसके मूल्य तथा संस्कृति साथ-साथ विकसित होते हैं।

भारत की आज की राजनीति में जो उलझाव है, उसका गहरा संबंध हमारी अतीत की समस्त राजनीतिक दृष्टि से जुड़ा है।  भारत का पूरा अतीत इतिहास और भारत का पूरा चिंतन राजनीति के प्रति वैराग सिखाता है। अच्छे आदमी को राजनीति में नहीं जाना है, यह भारत की शिक्षा रही है। और जिस देश का यह खयाल हो कि अच्छे आदमी को राजनीति में नहीं जाना है, अगर उसकी राजधानियों में सब बुरे आदमी इकट्ठे हो जायें, तो आश्चर्य नहीं है।

हिंदुस्तान की सारी राजनीति धीरे-धीरे बुरे आदमी के हाथ में चली गयी है; जा रही है, चली जा रही। आज जिनके बीच संघर्ष नहीं है, वह अच्छे और बुरे आदमी के बीच संघर्ष है। हिंदुस्तान में अच्छा आदमी—वही है, जो न ‘इनफीरियारिटी’ से पीड़ित है और न ‘सुपीरियरिटी’ से पीड़ित है। यदि अच्छा आदमी राजनीति में जाये तो राजनीति शोषण न होकर सेवा बन जाती है। ऐसा अच्छा आदमी राजनीति में न जाये, तो राजनीति केवल ‘पावर पालिटिक्स’, सत्ता और शक्ति की अंधी दौड हो जाती है।

हिंदुस्तान का अच्छा आदमी राजनीति से दूर खड़े होने की पुरानी आदत से मजबूर है। हमारी मान्यता यह रही है कि अच्छे आदमी को राजनीति से कोई संबंध नहीं होना चाहिए। बर्ट्रेड रसल ने कहीं छोटा-सा लेख लिखा है। उस लेख का शीर्षक है, ‘दी हार्म, दैट गुड मैन डू’—नुकसान, जो अच्छे आदमी पहुँचाते हैं।

स्वतंत्रता की पृष्ठभूमि  हमारे देश में 1857 से शुरू हुई थी जिसमे मंगल पांडेय,रानी झाँसी जैसे हजारों लोगों ने अपने जीवन का बलिदान दिया था..उस समय एक हो लक्ष्य था कि हमें गुलामी की जंजीरों से मुक्त होना हैं। यह इतनी अंधी सुरंग जैसे लड़ाई थी जिसका कोई ओर छोर नहीं था। अनथक प्रयास और कुरबानियों का सिलसिला चला जा रहा था..बंगाल के साथ जहाँ जहाँ भी शिक्षा केंद्र थे वहाँ से ज्ञान अर्जन कर अपनी स्थिति समझकर विरोध करते रहे। जैसे-जैसे नए नए नवयुवकों का प्रादुर्भाव हुआ चेतना का संचालन हुआ और आंदोलन में गति आयी। 1885 में कांग्रेस का गठन होकर एक मंच पर आना शुरू हुआ। उसमे से बहुत नवयुवक और बुद्धिजीवी जन जुड़े और एक मंच मिलकर आंदोलन को बल दिया।

कुछ विदेशों में भी रहकर गुलामी की पीड़ा से जूझ रहे थे। उस दौरान सब में आत्मबल के साथ जोश था। सब देश के लिए कुर्बान होने को तत्पर रहे और लाखों लोगों ने अनाम योध्या बनकर कुर्बानी दी। उनका मात्र एक लक्ष्य था गुलामी से मुक्ति और स्वराज्य की कल्पना। उस दौरान उनमे देश प्रेम की भावना कूट कूट कर भरी थी, उन्होंने न परिवार देखा न समाज। केवल देश ! इसके अलावा कोई विकल्प नहीं और उस कसौटी पर खरे भी उतरे। जैसे ही देश स्वतंत्र हुआ उस समय गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा, बेरोजगारी आदि आदि बहुत थी। विकास एक प्रकार से शून्य था। उस समय की परिस्थियाँ बहुत नाजुक थी तत्कालीन नेताओं और सरकारों ने, बहुत मेहनत की, नयी-नयी योजनाएं लाये, औद्योगिक क्रांति के साथ बड़े-बड़े बाँध बनाये गए। सड़क व बिजली, पानी, शिक्षा का आभाव होने से सब सरकारों की प्राथमिकता अधोसंरचना को स्थापित करने की थी। जैसे जैसे विकास का कदम उठाये वैसे ही दो दो युध्य और राजनैतिक अस्थिरता के कारण विकास कम हो पाया।

देश में स्वतंत्रता के कारण स्वच्छंदता का वातावरण बनने से नए नए नेताओं  का जन्म हुआ जो छात्र जीवन से, कोई जय प्रकाश नारायण के आंदोलन से, सत्ता के विकेंदियकरण से पंच, सरपंच, पंचायत, विधायक, सांसद और मंत्री बनने से उन्हें पैसों के लालच ने कुछ भी निम्म स्तरीय कार्य करने का अवसर मिला। इसी बीच उद्योगपतियों की होड़ ने विलासिता को जन्म दिया। अर्थ के कारण सब अनर्थ करने लगे। दिन रात भौतिक संसाधन जुटाने सभी वर्ग द्वारा मात्स्य न्याय (बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है अर्थात शक्तिशाली निर्बल को नष्ट कर देता है) का चलन शुरू हुआ। पहले गिने चुने भ्रष्ट मिलते थे आज इन गिने ईमानदार मिलते हैं।

देश में राजनैतिक अस्थिरता के कारण चारित्रिक गिरावट राजनीति के साथ अफसरशाही में आयी और फिर तो पैसे बटोरने कौ अंधी दौड़ शुरू हुई, देश में जो जो विकास की गति बढ़ी वैसे वैसे विनाश भी शुरू हुआ स्वाभाविक रूप से शुरुआत में निर्माण कार्य में धन की बहुलता होने से बहती गंगा में सबने हाथ धोये। उसके बाद काला धन विदेशों में जमा किया जाने लगा। मंहगाई ने गगन चुम्बी छलांग लगाना शुरू किया। एक समय निर्माण कार्य जैसे भवन सड़क, स्कूल, कॉलेज, हॉस्पिटल जैसे सभी निर्माण कार्यों में बेहताशा धन आने से बहुत विकास हुआ। एक बात यह समझ में आयी कि जितने जितने हम आजादी में युवा से वृद्धावस्था में पहुँच रहे हैं उतनी उतनी धन लोलुपता के कारण हम जितने विकासशील होना चाहिए थे नहीं हो पाए।

भ्रष्टाचार और अनैतिकता के घुन ने देश को खोखला भी कर दिया। अब जब गंगोत्री ही अपवित्र हैं तो गंगा कहाँ तक पवित्र होगी। सबसे उच्चतम स्तर पर नियम कायदे कानून नहीं बचे, उनके द्वारा धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं तो सामान्य जन से क्या अपेक्षा करे। ऐसा नहीं हैं की हमने विगत 76 वर्षों में विकास नहीं किया। बहुत किया जबकि उससे भी अधिक हो सकता था। उसका मूल कारण  सामाजिक ढांचा बिगड़ चूका हैं। हम दूसरों से अपेक्षा रखते हैं स्वयं  को आत्मनिरीक्षण करने की फुर्सत नहीं हैं। हम कितने भी विकसित हो जाएं जब तक व्यक्तिगत, सामाजिक, नैतिक, धार्मिक चारित्रिक सुधार नहीं होगा तब तक सही अर्थों में विकसित नहीं हो पाएंगे।

आज सब कुछ होते हुए भी व्यक्ति अशांत हैं, कारण आज भी हम मौलिक सुविधाओं से वंचित हैं। आज शिक्षा चिकित्सा के क्षेत्र में सम्मुनत नही हो पाये। आज देश को नैतिकता, देश भक्ति की बहुत जरुरत हैं, आज देश वासी स्वकेंद्रित होकर अपना हितार्थ -काम कर रहे हैं कारण जब शासक अपने क्रियाकलापन में नैतिकता का स्थान नहीं रखते तब अन्य से क्या अपेक्षा की जाय। राजनीति में कैसे सत्ता पायी जाय और अन्यों को नेस्तनाबूद किया जाय जिस कारण देश में प्रजातंत्र या लोकतंत्र कहीं नहीं दिखाई दी रहा हैं। आज आलोचना का कोई स्थान नहीं हैं। आलोचक देश द्रोही माने जाने लगे हैं।

सत्ता जब जनता के हांथों से सरक कर राज्यों के हांथों में केंद्रीकृत होने लगी तो इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम परिवारवाद को बढ़ावा देने के कार्य में हुआ। भारतीय राजनीति में वामपंथी दलों को छोड़कर सभी दलों ने अपने परिवार को बढ़ावा दिया है। ऐसा नहीं है कि वामपंथी दलों ने अपने परिवारवालों की मदद नहीं की लेकिन उनका मदद ज़्यादातर मामले में अपने परिवार वालों को स्कॉलरशिप दिलाकर विदेश भेजने तक सीमित रहा।

सत्ता दो पक्षों पर चलती हैं एक पक्ष और दूसरा विपक्ष पर आज विपक्ष किसी भी कारण से अतित्व में नहीं होने कारण उसे अनसुना किया जा रहा हैं। संसद और विधानसभा औचित्यहीन होती जा रही हैं। कोई मर्यादा नहीं कोई इज्जत नहीं। जिससे देश शिक्षित होता हैं वह अराजतकता का अड्डा बना हुआ हैं जनता सुरक्षित नहीं हैं दिन रात हत्याएं, बलात्कार, चोरियां, भ्रष्टाचार में बढ़ोतरी होती जा रही हैं। हम 75 वर्ष पूर्ण करने जा रहे हैं। हमने उतनी गंभीरता प्रौढ़ता पायी या अभी भी आजादी के पहले जैसे संघर्ष की जरूरत हैं। जब तक ईमानदारी देश भक्ति नैतिकता जीवन में नहीं आएँगी तक तक विकास जड़ तक नहीं पहुंचेगा। बिना नींव का महल कब तक टिकेगा।

राजनेता केवल अपने लिए और अपनों के लिए हो कर रह गये हैं। उनके लिये सत्ता पाने और वहां बने रहने के वास्ते उठाए जाने वाले सभी कदम जायज है। यही नीयत और नीति परवान चढ़ रही है। अपनी इस कमजोरी को हम पश्चिमी सभ्यता और वहां की नैतिकता पर दोष धरते हुए अपने अपराध बोध से बचने की कोशिश करते हैं। हमने अपनी कमजोरी को छुपाने का यह कहते हुए एक आसान तरीका खोज लिया है कि पश्चिम की संस्कृति में रंग कर हमारी पीढ़ी अनैतिक हो रही है। हिन्दुत्व का झण्डा लेकर चलने वाले कहते हैं घर्म की हानि के कारण ऐसा हो रहा है। पश्चिम की नकल कर लोग धर्म से विमुख हो रहे हैं। ये लोग इसीलिए धर्म की पुनर्स्थापना की राजनीति करते हैं। मगर समझदार लोग बार बार चेताते हैं कि संगठित धर्म का अनुयायी होना नैतिक होना नहीं हैं। धर्म के नाम पर ज़ेहाद करने वाला घोर धार्मिक हो सकता है परंतु नैतिक नहीं हो सकता। मगर जो नैतिक होगा वह धार्मिक होगा ही। मगर हमारे यहां कथा बाचकों ने धर्म को भी एक व्यवसाय बना दिया है। अपने इस उद्यम में उन्होंने अपने मंच पर धर्म और नैतिकता को मनोरंजन की वस्तु बना कर प्रस्तुत किया और लोकप्रिय हो कर स्वयंभू गुरु बन बैठे।

अब समय है जब हम खुद अपने को टटोलें और संवैधानिक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में नैतिकता के प्रतिमान फिर से स्थापित करें। भारतीय समाज में वह ऊर्जा हमेशा रही है कि वह विपरीत परिस्थितियों में गुजर करते हुए भी अपने को बचा पाया है। भारत के सारे के सारे मदांध, जिन्हें सत्ता के सिवाय कुछ भी दिखायी नहीं पड़ रहा है, वे सारे अंधे लोग इकट्ठे हो गये हैं। और उनकी जो शतरंज की चाल उस पर चली जा रही है, उस पर पूरा मुल्क दांव पर लगा हुआ है। पूरे मुल्क से उनको कोई प्रयोजन नहीं है, कोई संबंध नहीं है। भाषण में वे बातें करते हैं, क्योंकि बातें करनी जरूरी हैं।

(…..लेखक के अपने विचार)

डॉ नीरज कृष्ण पटना (बिहार)

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