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“खिलते हैं गुल यहाँ “

आलेख

“खिलते हैं गुल यहाँ “

प्रतिभा की कलम से

“कभी साये का मुंतज़िर न हुआ / धूप बरसाओ अमलतास हूं मैं ” (ध्रुव गुप्त)

जून में सूरज की प्रचंड गर्मी से जहां परेशान हैं सारे जीव-जंतु ! वहीं कुदरत में कुछ ऐसे पेड़-पौधे भी हैं जिनको देखकर लगता है कि बढ़ता तापमान ही इनके लिए खाद-पानी का काम करता हो जैसे। सिर्फ फूलों से लदी गुलमोहर की सुर्ख़ी मौसम को मुंह चिढ़ाती हुई लगती है। प्रेम में पड़े दिल तो मचलते ही हैं गुलमोहर को देखकर, मायूस नजरें भी उससे जीने के तेवर और अंदाज़ सीख सकती हैं। गुलमोहर के पास से गुजरें तो अपने आप ही मन गुनगुनाने लगता है – “गुलमोहर गर तुम्हारा नाम होता” !
कभी जीवन के यथार्थ और सियासी विसंगतियों के शायर दुष्यंत कुमार भी नहीं बच पाए गुलमोहर के जादू से – “जिएं तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के लिए / मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए” । अब इससे ज्यादा तारीफ क्या हो सकती है किसी फूल के लिए ! गीत, ग़ज़ल, कविता या प्रेम की बारीक अनुभूतियों से मतलब न रखने वाले सामान्य लोग भी सौंदर्य और औषधीय गुणों की वजह से इसके खिलने का इंतज़ार तो करते ही हैं।

गुलमोहर की तरह ही तपते मौसम की जान अमलतास भी है । अपने मुलायम स्पर्श और नाजुक पीले रंग से हर नजर को लुभाने वाले अमलतास के फूल असल में होते बड़े सख़्तजान हैं – “कभी साये का मुंतज़िर न हुआ / धूप बरसाओ अमलतास हूं मैं” (ध्रुव गुप्त) ।
जिस तरह आग में तप के सोना कुंदन बनता है उसी तरह अमलतास का सौंदर्य सूरज के ताप में ही निखरता है।दोहरा उपयोग है अमलतास का। इसके फूलों को गजरे में सजा लीजिए और इसके छाल और फलियां के औषधीय गुणों से कई बीमारियों से छुटकारा भी पा लीजिए।

अब बात करेंगे कचनार की। जितना कमसिन और प्यारा सा नाम है, फूल भी इतने ही प्यारे खिलते हैं इस पर। इसकी फलियां तोड़कर सब्जी के रूप में खा लो तो निरोग रहने की सौ फीसदी गारंटी है। फूलों को निहारते रहिए तो इसका सौंदर्य आंखों के रास्ते दिल में उतर जाता है। मैदानी भागों में इन दिनों इन पेड़ों पर खूब बाहर छाई होगी। अब चलें जरा पहाड़ों की ओर जहां गर्मी कम पड़ती है। थोड़ी कम ऊंचाई वाले पहाड़ों पर इन दिनों खिलते हैं लाल रंग के बुरांश के सर्वप्रिय फूल। ज्यादा ऊंचाई वाले पहाड़ों पर ये हो जाते हैं गुलाबी या फिर सफेद। गुलमोहर के चटख लाल रंग के विपरीत बुरांस का सौम्य लाल रंग आंखों को शीतलता और सुकून पहुंचाता है। अपने औषधीय गुणों में भी बुरांश किसी से कम नहीं। लेकिन जंगल में आजीविका की तलाश में भटकते पहाड़ के लोगों को कहां फुर्सत कि इस पर कोई गुलमोहर, अमलतास और कचनार जैसा कुछ लिखे। इसी से शायद साहित्य के पन्नों पर रंग बिखेरने का मौका इसे नहीं मिल पाया । हां , राहुल सांकृत्यायन ने जरूर अपनी किताब ‘मेरी तिब्बत यात्रा’ में बुरांस के फूलों से आच्छादित गढ़वाल के जंगलों का वर्णन किया है।

ऐसे और भी अनेक वृक्ष हैं जिनके नैन-नक्श, रंग-रूप मौसम के गर्म तेवर के साथ निखर जाते हैं। लेकिन उनके नाम मालूम न होने के कारण उनकी चर्चा नहीं हो पाती। ऐसा ही फूलों से भरा एक विशाल उपवन है उत्तराखंड की धरती पर। यहां के फूलों के नाम किसी को मालूम हो या ना हो, लेकिन हिमालय की चोटियों से बर्फ की जालियां हटते ही इस घाटी में दूर-दूर तक रंग-बिरंगे फूलों की अलौकिक छटा फैल जाती है। “फूलों की घाटी” के नाम से विश्वप्रसिद्ध इस घाटी में तीन सौ से ज्यादा प्रजातियों के फूलों की अबतक पहचान हुई है। घाटी से नीचे के लोग कभी भेड़-बकरियां चराने जाते थे यहां जिसके कारण उन पशुओं के मल से इन फूलों को प्राकृतिक पोषक तत्व मिल जाते थे। बुग्यालों में चुगान पर रोक लगाने के बाद अब यहां फूलों के किस्मों के कुछ और घट जाने का अंदेशा बना रहेगा।

लॉकडाउन के चलते पिछले बरस बहुत कम पर्यटक जा पाए फूलों की घाटी का दीदार करने। इस वर्ष भी यहां पर्यटकों के आने की संभावना ना के बराबर है, लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह है कि लॉकडाउन के कारण सुधरे पर्यावरण ने वहां और सुंदर और उन्नत फूल खिलाए होंगे। बस उन्हें देखने और सराहने वाली नजरें नहीं होंगी।

प्रतिभा नैथानी

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