आलेख
‘हिजाब Vs किताब ‘आधी आबादी को भी कुछ कुछ तय कर लेने दो।
“नीरज कृष्ण“
शिक्षा की कमी से ज्ञान की कमी होती है, जो न्याय की कमी की ओर ले जाती है। इससे प्रगति की कमी होती है, जिसके कारण धन की कमी होती है और फलस्वरूप कमजोर जातियों, वर्गों एवं समुदायों का उत्पीड़न होता है। देश में जब भी कोई बुर्का जैसा माइनॉरिटी से संबंधित विवाद जन्म लेता है देश के तथाकथित लिवरल बुद्धिजीवियों का डबल स्टैंडर्ड खुलकर सामने आ जाता है। इन बुद्धिजीवियों के इस रवैये का नतीजा होता है दोनों तरफ के कट्टरपंथियों की ताकत में इजाफा होना। यह देश में आजादी के पहले से होता रहा है। चाहे घूंघट प्रथा हो या बुकें की प्रथा हो परदा हमेशा से महिलाओं के उत्थान के लिए बाधक माना जाता रहा है। मुस्लिम महिलाओं के पिछड़ेपन या हिंदू धर्म के जिस समुदाय के लोगों में घूंघट की प्रथा का कड़ाई से पालन होता रहा है, वहां की महिलाओं के अन्य समुदाय से पिछड़ने का सबसे बड़ा कारण परदा ही रहा है। यूरोप के कई देशों में बुर्के पर बैन लग चुका है। सऊदी अरब को छोड़कर शायद ही कोई मुस्लिम देश हो जहां बुके की अनिवार्यता हो। ईरान और पाकिस्तान में भी बुकें की अनिवार्यता नहीं है। पर अचानक आज लिवरल बौद्धिकों के लिए बुर्का महिला सशक्तिकरण का प्रतीक बन कर उभर गया है।
हमारा देश, हमारा समाज उस मध्ययुगीन काल में नहीं है जब विदेशी आक्रांता आकर हमारी बहू-बेटियों की इज्जत लूटते थे और उन्हें लूट का मामला समझकर ले जाते थे घूंघट या बुक उसी वातावरण में पैदा हुए जब विदेशियों से देश जूझ भी रहा था और समाज त्रस्त भी था। हमारी लड़कियों को क्यों इस पर्दे में बंद रहने को मजबूर किया जाता है। मैं यह मानता हूं कि बुर्का और घूंघट दोनों ही महिलाओं के साथ अन्याय है। अंतर इतना है कि घूंघट के पीछे सामाजिक, सांस्कृतिक तर्क है और बुकें के लिए धर्म ग्रंथों और धर्म का नाम लिया जाता है। विदेशी मुस्लिम आक्रमणों से पहले देश में न बुर्का था, न घुघट हमारी देश की बेटियां महारानी झांसी, महारानी कर्मवती, जवाहर बाई, चत्रा मां किसी घुंघट में बंद होकर शत्रुओं से लोहा नहीं लेती रहीं। युगों पहले तक स्वयंवर की प्रथा इस देश में थी।
लड़की अगर बुर्का पहने तो दकियानूसी। बिकनी पहने तो चरित्रहीन नाक तक सिंदूर भरे तो मूर्ख लाल लिपस्टिक लगाए तो अवेलेबल ज्यादा पढ़े तो बासी न पढ़े तो कुंद पैर पसारकर बैठे तो बेशर्म, घर पर रहे तो घरघुस्सु बहस करे तो बदतमीज चुप रहे तो धुनी..!
आज प्रश्न केवल हिजाब का नहीं, प्रश्न यह है कि बहुत सी लड़किया कुछ धर्म के ठेकेदारों से प्रभावित इन बंधनों की वकालत करने के लिए सड़कों पर आ जाती है। यदि लड़कों की सुंदरता को देखकर कुछ पुरुष गिद्ध की तरह उन्हें झपट लेंगे। अगर यह सच भी है तो पुरुष समाज के कुछ सदस्यों के अनाचार के कारण सारी महिलाओं को दंड दिया जाए। उन्हें बुकें में बद कर लिया जाए दुनिया देखने के लिए आंखों पर भी जाली लगा दी जाए। जो अनैतिक लोग हैं, जिनकी कामुकता उच्छृंखल हो चुकी है उन्हें किसी मेंटल अस्पताल में या कारागार में बंद किया जाए।
एक पोशाक में क्या है? कुछ नहीं, यह कपड़ों का एक रूप है, लेकिन राजनीतिक रूप से यह बहुत कुछ बताता है। कौन सोच सकता था कि जब कर्नाटक के उड़पी में मुस्लिम स्कूली छात्राओं ने कक्षाओं में भाग लिया तो अहानिकर मुस्लिम हिजाब एक तूफान पैदा कर देगा। पहले उनके प्रवेश पर रोक लगा गई और फिर बिना पढ़ाई के अलग-अलग कक्षाओं में बैठने के लिए कहा गया। हिंदू छात्रों ने विरोध के सांकेतिक रूप में भगवा शॉल पहनकर जवाबी कार्रवाई की, जिससे देशव्यापी आंदोलन छिड़ गया।
अनुच्छेद 25 में कहा गया है कि सभी लोगों को धर्म को अपनाने, उसका पालन करने तथा प्रचार करने का बराबर का अधिकार है। इसका सीधा-सा अर्थ यह हुआ कि व्यक्तियों के अधिकारों को आवश्यक तौर पर प्रमुखता देनी चाहिए। युवा महिलाओं का कहना है कि सिर ढकना उनके लिए एक धार्मिक प्रथा है और संविधान इसकी एक मूलभूत अधिकार के तौर पर गारंटी देता है। मगर राज्य, जैसा कि इसने हमेशा किया है, का तर्क है कि व्यक्ति क्या कर सकते हैं और क्या नहीं। इसमें उसका बहुत दखल है। आमतौर पर न्यायिक प्रक्रिया राज्य का समर्थन करती है। इस कारण भारतीयों को कागज पर स्वतंत्रताएं प्राप्त हैं और वे वास्तविकता में इनका इस्तेमाल नहीं कर सकते। 26 जनवरी, 1950 को हमने भारत के संविधान को अपनाया और अधिनियमित किया जिसने हमारे साथ समान व्यवहार किया और व्यक्ति की गरिमा को सुनिश्चित करते हुए भाईचारे की अपेक्षा की। औपनिवेशिक शासन से आजादी पाने के उत्साह में और बेहतर भारत के सपने के साथ, हमने अनुच्छेद 39 में यह स्पष्ट किया कि सरकार अपनी नीतियों से यह सुनिश्चित करेगी कि बच्चों को सौहार्दपूर्ण माहौल में और स्वतंत्रता तथा गरिमा को स्थिति में विकसित होने के अवसर और सुविधाएं दी जाएं। आगे अनुच्छेद 46 में हमने उल्लेख किया कि राज्य कमजोर वर्ग के लोगों के शैक्षिक और आर्थिक हितों को विशेष रूप से बढ़ावा देगा।
अनुच्छेद 39 और 46 को निर्देशक सिद्धांतों के रूप में रखा गया है, लेकिन अनुभवों ने बताया कि इन सिद्धांतों का सम्मान नहीं किया जा रहा है, इसलिए हमने अनुच्छेद 51ए के अंतर्गत मौलिक कर्तव्यों को जोड़, जिससे भारत के नागरिक होने के रूप में सद्भाव और बंधुत्व भावना को बढ़ावा देना अनिवार्य हो गया ताकि भारत के सभी लोगों के बीच धार्मिक, भाषाई और क्षेत्रीय विविधताओं से परे, भाईचारा सुनिश्चित किया जाए और महिलाओं की गरिमा के लिए अपमानजनक प्रथाओं को त्यागा जाए। संविधान बनाते समय हमारे पूर्वजों को अलग-अलग प्रवृतियों के बारे में पता था, मुख्य रूप से उसके बारे में जो कमजोर वर्गों, अल्पसंख्यकों और हाशिए पर के लोगों को दबाना चाहती है, इसलिए उन्होंने अनुच्छेद 25 और 29 को मौलिक अधिकारों के रूप में रखा, जो कि विवेक और व्यवसाय की स्वतंत्रता, अपने धर्म के पालन और प्रचार-प्रसार की गारंटी देते हैं तथा अल्पसंख्यकों को अपनी विशिष्ट भाषा, लिपि या संस्कृति की रक्षा का भी अधिकार देते हैं।
2019 में हिजाब विवाद पर बांग्लादेश की प्रसिद्ध लेखिका तसलीमा नसरीन कहती है कि जब भी भारतीय मुसलमानों से संबंधित कोई बात होती है भारतीय लिबरल समान अधिकारों के रास्ते के बजाय मुस्लिम धर्म, मदरसा, ईद, मस्जिद, मुहर्रम ही नहीं शरिया कानून तक की बातों पर उन्हें संरक्षण देने के लिए ह्यूमन राइट्स की बात करने लगते हैं। वो कहती हैं कि जुमे की नमाज के लिए रास्ता रेकने की बात पर इन लिबरल्स और वामपंथियों का समर्थन हमेशा मिल जाता है पर कभी भी इनका समर्थन मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिए नहीं मिलता, चाहे वो मस्जिद में नमाज़ की बात हो, तीन तलाक हो या समान सिविल सहिता की बात हो। आज हमें महात्मा गांधी के इस कथन का स्मरण करना चाहिए मुस्लिम महिलाओं को पर्दे की गुलामी से बचाना चाहिए।… अगर आधी आबादी एक खराब प्रथा की वजह से से पंगु बनी रहती है तो हम कभी भी स्वतंत्र और महान होने की आकांक्षा कैसे कर सकते हैं? 25 सौ ईसा पूर्व मेसोपोटामिया (अब इराक) में एक नियम बना अमीर घरानें की औरते एक खास किस्म का घूंघट काढती, जो सिर से होते हुए कमर तक गिरा रहता, वहीं आर्थिक तौर पर कमजोर महिलाओं को इसकी इजाजत नहीं थी। अगर वे ऐसा करें तो सजा के तौर पर उन्हें नग्न होकर चौराहों पर खड़ा रहना पड़ता था। हमारे देश में भी ब्रेस्ट टैक्स हुआ करता था। केरल समेत कई दक्षिणी राज्यों में तथाकथित छोटी जाति की औरतों को सीने पर कपड़ा रखने की मनाही थी। माना जाता था कि देवताओं और पुरुषों के सामने % अकुलीन% स्त्री को कपड़ों की जरूरत नहीं। तब भी अगर वे ब्रेस्ट ढंकना चाहें तो उन्हें पैसे भरने होते थे। 1870 से लेकर अगले सौ सालें तक तहजीब का पूरा कारखाना चला, जिसमें औरत को सिखाया जाता था कि पुरुष से कैसे मिलना-जुलना है। वक्तह बदला, लेकिन मर्दमानस का नजरिया एवरेस्ट की तरह अडोल रहा। साल 1969 में एक किताब आई थी, बुक ऑफ एटिकेट एंड गुड मैनर्स। ये किताब बिदकी स्त्रियों को काबू में लाने के लिए चाबुक का काम करने लगी। सुझाया गया कि औरतों को क्या और कैसे करना चाहिए, ताकि पुरुषों को किसी किस्म की दिक्कत न हो। हमें और खासकर मुस्लिम समाज को गम्भीरतापूर्वक यह चिंतन करना ही होगा कि हिजाब जरूरी है या पढ़ाई? ऐसे सवाल ही हमें यह समझने में मदद करेंगे कि कर्नाटक का मामला असल में मुस्लिम महिलाओं के हक का नहीं, बल्कि उसकी आड़ में उन्हें पर्दे में रखने और अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने का है।
कर्नाटक के उदुपी जिले में उपजे हिजाब विवाद ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय चर्चा का रूप ले लिया है। इसके पक्ष विपक्ष में कई तरह के तर्क रखे जा रहे हैं। हिजाब की पैरवी करने वालों की ओर से यहां तक कहा जा रहा है कि हिजाब-बुर्का आदि पहनना मुस्लिम महिलाओं का मौलिक अधिकार है और विद्यालयों में स्कूली यूनिफार्म पहनने को कहना मुस्लिम महिलाओं पर अत्याचार है। एक पार्टी ने तो यह नारा देकर हद ही कर दी कि हिजाब नहीं तो पढ़ाई नहीं। महाराष्ट्र में ऐसे पोस्टर नजर आए, जिनमें लिखा था, पहले हिजाब-फिर किताब,
इस सारे विवाद में हम भूल गए कि इसके मूल में क्या है? महिलाओं को अपनी पहचान छिपानी चाहिए और इसके लिए हिजाब-बुर्का पहनना चाहिए, इस तरह का सोच आखिर किस प्रकार से महिलाओं के हित में है? वास्तव में इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर गहन विचार होना चाहिए था, लेकिन हमारे लिबरल तबके ने अपनी विचारधारा को धता बताकर हिजाब को पसंद के अधिकार से जोड़ दिया। उन्होंने ऐसा करते समय इस पर भी ध्यान नहीं दिया हिजाब को च्वाइस का मसला बनाकर वे अपनी ही विचारधारा के उलट जाकर मुस्लिम समाज को गुमराह कर रहे हैं। जिस परिधान यानी हिजाब-बुके के पीछे पितृसत्तात्मक मानसिकता काम कर रही है, उसे महिलाओं के अधिकारों के रूप में प्रचारित करने से दुर्भाग्यपूर्ण और कुछ और नहीं हो सकता। बात केवल इस दुर्भाग्यपूर्ण चिंतन की ही नहीं है। हम यह भी देख रहे हैं कि यह अफवाह फैलाई जा रही है कि भारत में हिजाब-बुके पर पाबंदी लगाने की कोशिश की जा रही है। यह दुष्प्रचार कुछ बाहरी ताकतों की ओर से भी किया जा रहा है, जबकि सच्चाई यह है कि केवल इतना कहा जा रहा है कि स्कूल का जो ड्रेस कोड है, वह सभी छात्र-छात्राओं पर लागू होता है और उसका पालन सभी को करना चाहिए।
अगर कर्नाटक की छात्राओं के लिए हिजाब इतना ही जरूरी है तो जब 2019 में केरल मुस्लिम एजुकेशन सोसायटी ने अपने करीब डेढ़ सौ शिक्षा संस्थानों में बुर्के को प्रतिबंधित किया, तब वहां यह मुद्दा क्यों नहीं बना था? जाहिर है। इसीलिए कि वहां इस तरह का नैरेटिव काम नहीं आता कि मुस्लिम समाज पर जुल्म हो रहा है। हमें और खासकर मुस्लिम समाज को हिजाब बुके के मामले में सवाल पूछने ही होंगे? ये सवाल ही हमें यह समझने में मदद करेंगे कि दरअसल मामला मुस्लिम महिलाओं के हक का नहीं, बल्कि उसकी आड़ में उन्हें पर्दे में रखने और अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने का है। मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि जो लोग महिला अधिकार की बातें करते हैं और इन दिनों कुछ ज्यादा ही कर रहे हैं, क्या उन्हें वास्तव में मुस्लिम लड़कियों और महिलाओं के हितों की चिंता है? यह याद रखना चाहिए कि हिंदुस्तानी मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई को सबसे बड़ा धक्का उस दिन लगा था, जिस दिन शाहबानो प्रकरण में आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के दबाव में राजीव गांधी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया था।
मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड कोई सरकारी संवैधानिक संगठन नहीं, बल्कि महज एक गैर सरकारी संगठन है। शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को जिस तरह पलटा गया, उससे मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई कमजोर पड़ी और शायद इसी कारण तीन तलाक को कुरीति से छुटकारा पाने में 70 साल से अधिक का समय लग गया। इस कुरीति को खत्म करने के बाद भी मुस्लिम महिलाओं को अभी भी अन्य समुदायों को महिलाओं जैसे कानूनी अधिकार नहीं मिले हैं। इस समुदाय में सामाजिक बदलाव भी अभी दूर की बात हैं। हिंदू कोड बिल के जरिये तमाम सुधारों से हमारी हिंदू बहनों के अधिकारों की रक्षा हुई। जहां अन्य समुदायों में सामाजिक सुधारों का सिलसिला कायम है, कहीं मुस्लिम समाज का नेतृत्व धार्मिक स्वतंत्रता की आड़ में अपनी महिलाओं के अधिकारों का हनन करने में लगा हुआ है। बहु-विवाह, हलाला जैसी अमानवीय प्रथाएं जारी हैं। इसी तरह अन्य अनेक कुरीतियों और महिला विरोधी पुरानी परंपराओं से भी मुस्लिम महिलाएं जकड़ी हुई हैं।
अफसोस की बात यह है कि जो लोग हिजाब को मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों से जोड़कर मचा रहे हैं, वे कभी भी इन महिलाओं की वास्तविक समस्याओं पर एक लफ्ज बोलना पसंद नहीं करते। आखिर यह दोहरा रवैया क्यों न? हिंदुस्तानी होने के नाते हमें अपनी मुस्लिम महिलाओं की वास्तविक समस्याओं क समाधान के बरे में सोचना चाहिए, न कि उन पर हिजाब थोपने और उन्हें बुके में कैद करने की कोशिश करनी चाहिए। फिलहाल यही हो रहा है। यह याद रखना चाहिए कि जब तक मुस्लिम महिलाएं दोयम दर्जे की नागरिक बनी रहेंगी, तब तक मुस्लिम समाज कभी भी तरकीह नहीं कर पाएगा हिजाब को लेकर अखाड़ा खुला है। कुछ का कहना है, ये औरतों पर बंदिश है। कुछ तर्क है कि ये उनकी चॉइस है। बहसवीर एक-दूसरे पर पिले पड़े हैं। इस सबके बीच औरतों की मर्जी धुंधला रही है, लेकिन यही वक्तक है, जब तमाम औरतों को साथ आना होगा। रोटी बेलती स्त्री पॉलिसी बनाती स्त्री सब साथ आएं मिलकर तय करें। मर्जी शब्द बहुत खिलंदड़ है, अपने भीतर प्याज से भी ज्यादा परतें लिए हुए तो प्यारी लड़कियों जितनी बार भी तुम इस शब्द को दोहराओ, याद रखना कि तुम्हारी मर्जी सिर्फ तुम तक रहे, तुम्हारे आसपास की मर्जियों को छुए बगैर जरा भी चूके कि मर्जी नाम की ये गेंद पुरुषिया पाले में चली जाएगी। फिर आप क्या पहनेंगी और क्या सोचेंगी इस पर आपका बस शायद ही चल सके।
जब हम समस्याओं के हल के बारे में विचार करते हैं तो दो तरीके समझ आते हैं। या तो सभी पर्सनल ला कोडिफाइड हो या फिर बिना किसी भेदभाव के सभी समुदायों को समान नागरिक संहिता के दायरे में लाया जाए। भारत की सभी महिलाओं के अधिकारों को संरक्षित करने के लिए समान नागरिक सहिता का निर्माण मील का पत्थर साबित हो सकता है। चूंकि यह संहिता सार्वभौमिक नागरिक अधिकारों पर आधारित होगी, इसलिए सभी को उसका समर्थन करना चाहिए। इससे ही उन लोगों को हतोत्साहित किया जा सकता है, जो मुस्लिम समाज की महिलाओं को पर्दे में रखने और उनकी हैसियत दोयम दर्जे की बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं।
नीरज कृष्ण
एडवोकेट पटना हाई कोर्ट
पटना (बिहार)