आलेख
मैं उन्हें मनाता नहीं…मैं उन्हें जीता हूं।
【मदर्स डे स्पेशल】
✍️✍️राघवेंद्र चतुर्वेदी
लोग कहते हैं, “आज मां को याद किया क्या?” मैं कहता हूं, “कभी छोड़ा ही कब है जो याद करूं?” मैं तो आज भी जब ज़रा भी लड़खड़ाता हूं, कहीं भीतर से वही पुरानी आवाज़ आती है “गिर मत जाना, मैं हूं न।”

लोग आज के दिन मां को याद कर रहे हैं ! फूलों की तस्वीरों के साथ, पुराने एलबम की धूल झाड़ते हुए, सोशल मीडिया की भीड़ में ‘आई लव यू मां’ कहते हुए। मैं देख रहा हूं यह सब। महसूस कर रहा हूं, पर कुछ कह नहीं रहा। क्यों?
मैं कभी उनसे जुदा ही नहीं हुआ। मां को याद करने के लिए उन्हें खोना पड़ता है या कम से कम उनसे दूर जाना पड़ता है। पर मैं तो अब भी वहीं हूं, उनकी आंखों की नमी में, उनकी हथेलियों की ऊष्मा में, उनके आंचल की महक में।
मेरे लिए मां कोई दिन नहीं, कोई तारीख नहीं, बल्कि एक सतत प्रवाह है जैसे कोई नहर बहती है मन के भीतर,जैसे कोई मंत्र अनजाने में होंठों पर आ जाए, जैसे भूख में सबसे पहले रोटी नहीं, मां याद आए।
लोग कहते हैं, “आज मां को याद किया क्या?” मैं कहता हूं, “कभी छोड़ा ही कब है जो याद करूं?” मैं तो आज भी जब ज़रा भी लड़खड़ाता हूं, कहीं भीतर से वही पुरानी आवाज़ आती है “गिर मत जाना, मैं हूं न।”
उनकी उंगलियों की पकड़ अब मेरे हाथ पर नहीं है, पर उनका स्पर्श मेरे फैसलों में है, मेरी सोच में है, मेरे शांत रहने के तरीक़ों में है। कभी-कभी जब दुनिया बहुत तेज़ हो जाती है, मैं अनजाने ही रुक जाता हूं, शायद कहीं उनकी सिखाई गई चुप्पी मुझे थाम लेती है।
उनका जाना एक भ्रम है, क्योंकि मां कभी जाती नहीं ,वो बस रूप बदल लेती है। कभी ख़ामोशी बन जाती हैं,कभी आसमान की नीली चादर, कभी मेरी कविता की आख़िरी पंक्ति, तो कभी मेरी मुस्कान का सबसे पहला कारण।
मैं उनके बिना हूं, पर अधूरा नहीं! क्योंकि मां अपने बच्चे में बसी होती हैं,जैसे मिट्टी में खुशबू बसी होती है बारिश से पहले, और मैं अब भी उन्हीं की खुशबू में सांस ले रहा हूं।
इसलिए आज मैं मां को याद नहीं कर रहा..क्योंकि उनका होना कभी बीता हुआ नहीं रहा! वो आज भी हैं हर सुबह की रौशनी में, हर नींद में बुनते किसी पुराने लोरी के छंद में, और मेरी हर ख़ामोशी के भीतर कहीं धीरे से मुस्कुराती हुई।
मैं उन्हें मनाता नहीं…मैं उन्हें जीता हूं।
राघवेन्द्र चतुर्वेदी

