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मुझे पेड़ नहीं मिलते अब गुनगुनाने को…

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मुझे पेड़ नहीं मिलते अब गुनगुनाने को…

नीरज कृष्ण

मुझे पेड़ नहीं मिलते अब गुनगुनाने को, /मेरा दिल नहीं करता अब चचहाने को… याद कीजिये, अंतिम बार आपने गौरैया को अपने आंगन या आसपास कब चीं-चीं करते देखा था। कब वो आपके पैरों के पास फुदक कर उड़ गई थी। सवाल जटिल है, पर जवाब तो देना ही पड़ेगा। गौरैया व तमाम पक्षी हमारी संस्कृति और परंपराओं का हिस्सा रहे हैं, लोकजीवन में इनसे जुड़ी कहानियां व गीत लोक साहित्य में देखने-सुनने को मिलते हैं। कभी सुबह की पहली किरण के साथ घर की दालानों में ढेरों गौरैया के झुंड अपनी चहक से सुबह को खुशगंवार बना देते थे।

मुझे पेड़ नहीं मिलते अब गुनगुनाने को, मेरा दिल नहीं करता अब चहचहाने को यह चंद अल्फाज नहीं बल्कि एक पूरी दास्तान है, हमारे घर में आने वाली गौरैया की, हालांकि पिछले पांच वर्षों में इनकी संख्या में इजाफा जरूर हुआ है, मगर यह आज भी इनकी संख्या 90 के दशक के दौर से 25 प्रतिशत कम हो गई है।

कुछ सालों पहले तक घरों में फुदकने और चहचहाने वाली चिरैया, यानि गौरेया, आज संकट में है। सुबह की पहली किरण के साथ घर की दालानों में ढेरों गौरैया के झुंड अपनी चहक से सुबह को खुशगंवार बना देते थे। नन्ही गौरैया के सानिध्य भर से बच्चों को चेहरे पर मुस्कान खिल उठती थी, लेकिन अब गौरैया के झुंड तो दूर की बात है, एक गौरैया भी मुश्किल से दिखाई पड़ती है।

गौरैया को सामाजिक पक्षी है माना जाता है। विशेषज्ञ कहते हैं कि गौरेया आम तौर पर झुंड में रहती है और उड़ती है। इसकी मुख्य आहार अनाज के दाने, ज़मीन में बिखरे दाने और कीड़े-मकोड़े हैं। इसकी कीड़े खाने की आदत के चलते इसे किसानों की मित्र माना जाता है। अब रहन-सहन बदल गया है लेकिन कुछ साल पहले तक घरों की छतों पर गेहूं सुखाने की प्रथा समान्य थी। छतों पर सुखाए जा रहे पर गौरेयों का हमला शायद ही किसी को भूला होगा।

प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी सलीम अली अक्सर दोहराया करते थे कि, ‘पक्षी हमारे पर्यावरण के थर्मामीटर हैं, उनकी चहचहाहट बताती है कि धरती प्रसन्न है।’ तभी तो कभी घर के आँगन में गौरया, मैना और बुलबुल जैसे पक्षियों की चहचहाहट सुनायी देती थी। कोयल की कू-कू मन को भाती थी तो कौए की काँव-काँव दूर बसे किसी अपने रिश्तेदार या इष्ट मित्र के आने को खबर देती थी। अमरूद के पेड़ पर इस डाली से उस डाली उछल-कूद करता हुआ तोता पेड़ के हर फल में चोंच मारता अपनी ही धुन में मगन रहता था और उसकी हर जूठन को बड़े प्यार से खाते और उसकी अठखेलियों को अपलक निहारते बच्चों ब बड़े-बुढ़ों के होठों पर बरबस मुस्कान फैल जाती। पर वक्त के साथ बहुत कुछ बदल गया है। पक्षियों की तमाम प्रजातियां आज विलुप्त होने के कगार पर हैं।

गौरैया सिर्फ एक चिडि़या का नाम नहीं है, बल्कि हमारे परिवेश, साहित्य, कला, संस्कृति से भी उसका अभिन्न सम्बन्ध रहा है। आज भी बच्चों को चिडि़या के रूप में पहला नाम गौरैया का ही बताया जाता है। ऐसा माना जाता है कि जिस घर में इनका वास होता है वहाँ बीमारी और दरिद्रता दोनों दूर-दूर तक नहीं आते और जब विपत्ति आनी होती है तो ये अपना बसेरा उस घर से छोड़ देती है।

वैसे भी मेरा मानना है कि गाँव का गरीब शहरों के अमीरों से बेहतर हुआ करते हैं क्यूंकि गाँव का गरीब कम से कम कुछ चिड़ियों को तो दाना खिला ही देता है लेकिन यह शहरों के अमीर गरीब को दो वक़्त भी खाना नहीं खिला पाते।
गौरैया के अस्तित्व के लिए हम सभी को अपने-अपने स्तर पर प्रयास करने होंगे, ताकि यह प्यारा सा, नन्हा सा जीव फिर से हमारे घर-आंगन में चहक सके, हमारे जीवन से लुप्त न हो जाए। हम अपने घरों में उचित स्थानों पर पानी, बाजरा, चुडा और चावल आदि रखकर अपना योगदान दे सकते हैं।

वो गोरैया जो रोज हम लोगों के घरों में फुदकती हुई दिखती थी, हमें इसे बचाने के लिए प्रयास करना ही होगा नहीं तो ये भी अन्य जीवों की तरह इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जायेगी और हमारे बाद की पीढियां इसे डिस्कवरी चैनल / एनिमल प्लेनेट पर देख कर हमें कितना कोसेगी की अपनी भौतिक सुविधावों के लिए प्रकृती के ना जाने कितनी खुबसूरत चीजों को सदा के लिए गवां दिया जो आने वाली पीढियां देख नहीं पायी। हमें इन्हें हर हाल पे बचाना ही होगा तभी विश्व गौरैया दिवस का मकसद पूरा हो पायेगा।

दुष्यंत कुमार ने क्या खूब कहा है इन नन्ही चिड़ियाओं के बारे में……. कौन शासन से कहेगा, / कौन पूछेगा / एक चिड़िया इन धमाकों से / सिहरती है।

नीरज कृष्ण, पटना (बिहार)

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