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‘मैं तैनू फिर मिलांगी’….

आलेख

‘मैं तैनू फिर मिलांगी’….

प्रतिभा की कलम से

【”अमृता कहती हैं कि कई बार उन्हें लगा कि औरत होना गुनाह है। लेकिन इस गुनाह को वह बार-बार दोहराना चाहेंगी अगर अगले जन्म में भी ईश्वर उनके हाथ में कलम दे दे तो।
वाह ! इसे कहते हैं कलम का सिपाही होना।
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अमृता अपने पति प्रीतम, प्रेमी साहिर और दोस्त/ हमसफर इमरोज से परे भी बहुत कुछ थीं । ये जाना जा सकता है उनकी कविताऐं,कहानियाँ, उपन्यास और आत्मकथा पढ़कर । अमृता के रचना संसार और व्यक्तिगत जीवन पर लिखने के लिए अनगिनत आकर्षण हैं । लेकिन इन्हें जोड़कर शायद ही कोई इतना अच्छा लिख सके जितना बढ़िया साहित्य और बेहतरीन अफ़साने वो इस दुनिया को दे गयी हैं । इमरोज कहते हैं कि अमृता की उंगलियां हर वक्त कुछ न कुछ लिखती रहती थीं । इसीलिए शायद उनका रचना संसार इतना विस्तृत है कि यहां उसे समेट पाना जरा मुश्किल काम होगा । लेकिन उनकी लिखी एक नज़्म ‘अज्ज आखां वारिस शाह नूं’ और आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ का जिक्र किए बगैर तो काम चल ना पाएगा।
‘अज्ज आखां वारिस शाह नूं’ में भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय लाहौर से देहरादून वाली ट्रेन में बैठकर उन्होंने सिर्फ दस लाइनें लिखी थीं। लेकिन यह पंक्तियां दस न होकर बीसियों हो गई जब हजारों-लाखों विस्थापित औरतों की दर्द की जुबां बन यह उस वक्त के पंजाब के हर बाशिंदे के दिल में इस कदर घर कर गईं कि लोग इस कविता को जेब में रखा करते और पढ़-पढ़ कर रोते। वाकई इस कविता ने बहुत कम उम्र में ही अमृता को हिंदुस्तान- पाकिस्तान में बराबर मशहूर कर दिया।
उसी तरह ‘रसीदी टिकट’ भी है, जिसे लोग समझते हैं कि यह साहिर लुधियानवी और उनके किस्सों का पुलिंदा होगा । लेकिन ऐसा नहीं है । जैसा कि खुशवंत सिंह ने कहा था कि तुम्हारे और साहिर के किस्से को तो बस एक टिकट पर भी लिखा जा सकता है। पढ़ कर पता चलता है कि वाकई इसमें साहिर का जिक्र तो कुछ ही पन्नों तक सीमित है। बाकी तो इसमें वह सब लोग हैं जिनसे अमृता या फिर वो लोग कभी- ना- कभी उनसे बहुत गहरे तक मुतासिर रहे हैं। इसमें वह भी शामिल है जो बहुत गाढ़े वक्त में अमृता के काम आए हैं। अपने बारे में वह क्या सोचती थीं और लोग उनके बारे में क्या कहते थे ! यह सब बहुत बेबाकी से ‘रसीदी टिकट’ में अमृता जी ने बयान किया है।
इस किताब के एक पृष्ठ की एक पंक्ति में वह लिखती हैं कि ‘सच्चाई का अपना एक बल होता है’ । यह छोटी सी बड़ी बात वाकई लालायित कर जाती है अमृता की ‘रसीदी टिकट’ खरीदने को।
किसी मशहूर शायर या लेखक की चाहत होना तब तक बहुत ज्यादा मायने नहीं रखता जब तक कि आप खुद एक बड़ी शख्स़ियत ना हों। अगर वास्तव में ऐसा होता तो गायिका सुधा मल्होत्रा की खोजबीन भी लोग उसी शिद्दत से करते जिस तरह सौ बरस बीत जाने के बाद भी अमृता को लोग इस तरह ढूंढते हैं जैसे वह मिल जाएंगी उनकी किताब के पन्नों में ‘मैं तैनू फिर मिलांगी’ कहते हुए।
अमृता कहती हैं कि कई बार उन्हें लगा कि औरत होना गुनाह है। लेकिन इस गुनाह को वह बार-बार दोहराना चाहेंगी अगर अगले जन्म में भी ईश्वर उनके हाथ में कलम दे दे तो।
वाह ! इसे कहते हैं कलम का सिपाही होना।
अमृता सिर्फ साहिर और इमरोज के दिल की ही धड़कन नहीं थी बल्कि वह तो आज भी अपने करोड़ों पढ़ने वालों की आंखों का नूर हैं । इसलिए बेहतर है कि साहिर से प्रेम और इमरोज के साथ लिव-इन में रहने वाले किस्सों से परे उनकी लिखी हुई तमाम किताबों में उन्हें ढ़ूंढ़ा जाये ।
साहित्य अकादमी पाने वाली पहली पंजाबी साहित्यकार, ज्ञानपीठ पुरस्कार, पद्म विभूषण पुरस्कार भी प्राप्त हैं उन्हें। अपनी सौ भी से अधिक किताबों के लिए देश- विदेश में ऐसा कौन सा पुरस्कार जो अमृता प्रीतम को ना मिला हो !
उनकी रचनाएं वाकई साहित्य का अमृत हैं। दो रचनाओं को फिल्मों में भी स्थान मिला। ‘पिंजर’ और ‘कादंबरी’ उन्हीं की रचनाओं पर आधारित फिल्में है।

प्रतिभा नैथानी

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