आलेख
सुबह-ए-बनारस।
✍️✍️✍️【राघवेंद्र चतुर्वेदी】
बनारस की सुबह—एक महाकाव्य, एक तीर्थ, एक मुक्ति-संगीत!
“बनारस की सुबह केवल भौतिक आँखों से देखने योग्य दृश्य नहीं, बल्कि आत्मा से अनुभूत करने योग्य रस है। यह वह क्षण है जब संपूर्ण सृष्टि शिवमय हो उठती है, जब हर हृदय में एक दिव्य स्पंदन होता है, और जब प्रत्येक जीव अपने भीतर के शिवत्व को पहचानने के लिए प्रवृत्त हो जाता है।“

जब गंगा की लहरों पर पहली किरण अपने स्वर्णिम आभा से अठखेलियाँ करती है, जब अस्सी से दशाश्वमेध तक के घाटों पर देवताओं के चरणधूलि से पावन धरा अपने दैदीप्यमान स्वरूप में मुस्कुराने लगती है, तब बनारस की सुबह अपने पूर्ण ऐश्वर्य और अलौकिक सौंदर्य के साथ दिव्यता की चादर ओढ़े खड़ी होती है।
यह काशी है! समय की धारा में अविचल, चिरंतन सत्य की जीवंत प्रतिमा, जहाँ सूर्योदय मात्र प्रकृति की घटना नहीं, बल्कि अध्यात्मिक जागरण की दिव्य वंशीध्वनि होती है। यहाँ की सुबह कोई साधारण विहान नहीं, बल्कि अनादि अनंत शाश्वत ब्रह्म की वाणी का उद्घोष है, जहाँ हर अणु में शिव का वास और हर कण में मोक्ष की गूँज सुनाई पड़ती है।
जब पूर्व दिशा में उगते हुए सूर्य की पहली किरणें गंगा की अठखेलियाँ करती तरंगों पर अपनी स्वर्णिम छाया बिखेरती हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है मानो स्वयं आदित्य देव माँ गंगा के चरणों में अर्घ्य चढ़ाने के लिए उतर आए हों। जल पर पड़ती सुनहरी किरणों की झिलमिलाहट, नावों की मद्धम गति, और घाटों की पवित्रता—सभी मिलकर बनारस की सुबह को एक अलौकिक अनुभूति में परिवर्तित कर देते हैं।
गंगा का जल उस समय किसी अमृत-सरोवर से कम प्रतीत नहीं होता। उसमें स्नान करते साधु-संत, मंत्रोच्चारण की गूँज, और दूर-दूर से आए श्रद्धालु जब अपने पापों का प्रक्षालन करते हैं, तो ऐसा आभास होता है कि समस्त सृष्टि ही इस पुण्य-प्रवाह में स्नान कर रही हो।
अस्सी घाट से लेकर मणिकर्णिका तक, दशाश्वमेध से पंचगंगा तक, हर घाट पर सुबह होते ही एक अनुपम दृश्य उपस्थित हो जाता है। कहीं वैदिक ऋचाएँ गूँजती हैं, कहीं ओंकार की ध्वनि आत्मा को गहन शांति प्रदान करती है, तो कहीं मंदिरों के घंटे और शंखनाद वातावरण को आध्यात्मिक चेतना से भर देते हैं।
ब्रह्ममुहूर्त में जब साधु-संत अपने जटाजूट समेटे, भस्म रमाए, त्रिपुंड धारण किए, कमंडल संभाले ध्यानमग्न होते हैं, तो लगता है जैसे स्वयं कालजयी परंपरा का जीवंत स्वरूप हमारी आँखों के सामने मूर्त हो उठा हो। घाटों पर यज्ञ-हवन की सुगंध, दीपों की मद्धिम लौ, और श्रद्धालुओं की श्रद्धा से भरी आँखें—यह सब मिलकर बनारस की सुबह को अपूर्व गरिमा प्रदान करते हैं।
काशी के कोने-कोने में बसे देवालय जब अपनी प्राचीनता का गौरव लिए सूर्योदय का स्वागत करते हैं, तो वातावरण देवमय हो उठता है। काशी विश्वनाथ की गली में गुज़रते हुए जब ‘हर-हर महादेव’ की गगनभेदी गर्जना सुनाई पड़ती है, तो हृदय रोमांच से भर उठता है। मंदिरों में जलते दीपक, चंदन और पुष्पों की सुगंध, और भक्तों की श्रद्धा इस नगरी को साक्षात कैलाश का प्रतिबिंब बना देती है।
सुबह के इस आध्यात्मिक उन्मेष के साथ जब कहीं तुलसीदास की रामचरितमानस की चौपाइयाँ गूँजती हैं, तो कहीं कबीर के दोहे आत्मा को आत्मबोध कराते हैं। यहाँ सूर्योदय केवल प्रकृति की लीला नहीं, बल्कि आत्मा के मोक्ष का द्वार खोलने वाला एक दैवीय संकेत है।
बनारस की सुबह केवल भौतिक आँखों से देखने योग्य दृश्य नहीं, बल्कि आत्मा से अनुभूत करने योग्य रस है। यह वह क्षण है जब संपूर्ण सृष्टि शिवमय हो उठती है, जब हर हृदय में एक दिव्य स्पंदन होता है, और जब प्रत्येक जीव अपने भीतर के शिवत्व को पहचानने के लिए प्रवृत्त हो जाता है।
इस नगरी की सुबह में केवल सूरज का उगना नहीं, बल्कि अनंत काल से बह रही आध्यात्मिक ऊर्जा का पुनर्जागरण होता है। यह सुबह हमें जीवन के क्षणभंगुरता का बोध कराती है और यह भी सिखाती है कि मोक्ष का मार्ग केवल इसी पावन भूमि से होकर जाता है।
बनारस की सुबह—एक महाकाव्य, एक तीर्थ, एक मुक्ति-संगीत!
राघवेन्द्र चतुर्वेदी (बनारस)

