आलेख
निर्भया से अंकिता तक का सफर….
बेटी बचाओ, पर किससे?
【नीरज कृष्ण】
“यत्र नार्यस्तु पूज्यते, रमन्ते तत्र देवता” यानी जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवताओं का वास होता है। श्रृष्टि की शुरुआत से महिलाओं का सम्मान किया जाता रहा है। लेकिन युग, काल और सदियां बीतने के साथ महिलाओं के प्रति लोगों की सोच बदलती चली गई। बाल विवाह, दहेज प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या जैसी समस्याएं अभी भी समाज में व्याप्त है। आए दिन यौन शोषण, दुष्कर्म, गैंगरेप और हत्या की खबरें सामने आती रहती हैं। दुनिया भर में बेटियों के प्रति समाज का दोहरापन दिखता है। लड़कियों को आज भी शिक्षा, पोषण, चिकित्सा, मानवाधिकार और कानूनी अधिकारों से वंचित रखा जाता है। लड़कियों को उनके तमाम अधिकार देने और बालिका सम्मान के प्रति दुनिया को जागरूक करने के उद्देश्य से ही हर साल अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस / बेटी दिवस / अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस मनाया जाता है।
एंगेल्स ने कहा है कि मातृसत्ता से पितृसत्तात्मक समाज का अवतरण वास्तव में स्त्री जाति की सबसे बड़ी हार है। मानविकीविज्ञान शास्त्र (Anthropology) के विचारक ‘लेविस्त्रास’ ने आदिम समाज का अध्ययन करने के बाद कहा-‘सत्ता चाहे सार्वजनिक हो या सामाजिक, वह हमेशा पुरुष के हाथ में रही है। स्त्री हमेशा #अलगाव में रही। उसे यदि पुरुष ने देवी का रूप दिया, तो उसे इतना ऊँचा उठा दिया, निरपेक्ष रूप से इतनी पूज्या बना दिया कि मानव जीवन उसे प्राप्त ही नहीं हो सका।‘ जिस देश में स्त्री को स्वयं ही शक्ति स्वरुप माना और जाना गया है उसे शक्ति कौन देगा, और आदिशक्ति, काली, दुर्गा के रूप में महिमा मंडित किया गया है वहां पर महिला सशक्तिकरण की मांग कुछ विचित्र ही लगती है।
महिला सशक्तिकरण का मतलब महिला को सशक्त करना नहीं हैं। महिला सशक्तिकरण या वूमन एम्पोवेर्मेंट का मतलब फेमिनिस्म भी नहीं हैं। महिला सशक्तिकरण या वूमन एम्पोवेर्मेंट का मतलब पुरूष की नक़ल करना भी नहीं हैं, ये सब महज लोगो के दिमाग बसी भ्रान्तियाँ हैं। महिला सशक्तिकरण या वूमन एम्पोवेर्मेंट का बहुत सीधा अर्थ हैं की महिला और पुरूष इस दुनिया मे बराबर हैं और ये बराबरी उन्हे प्रकृति से मिली है। महिला सशक्तिकरण या वूमन एम्पोवेर्मेंट के तहत कोई भी महिला किसी भी पुरूष से कुछ नहीं चाहती और ना समाज से कुछ चाहती हैं क्योकि वह अस्वीकार करती हैं कि पुरूष उसका “मालिक” हैं। ये कोई चुनौती नहीं हैं, और ये कोई सत्ता की उथल पुथल भी नहीं हैं ये “एक जाग्रति हैं” कि महिला और पुरूष दोनो इंसान हैं और दोनों समान अधिकार रखते हैं समाज मे। बहुत से लोग “सशक्तिकरण” से ये समझते हैं कि महिला को कमजोर से शक्तिशाली बनना हैं, नहीं ये विचार धारा ही ग़लत हैं।
“सशक्तिकरण” का अर्थ हैं कि जो हमारा मूलभूत अधिकार हैं यानी सामाजिक व्यवस्था मे बराबरी की हिस्सेदारी वह हमे मिलना चाहिये। “महिला सशक्तिकरण” पुरूष को उसके आसन से हिलाने की कोई पहल नहीं हैं अपितु “महिला सशक्तिकरण” सोच हैं कि हम तो बराबर ही हैं सो हमे पुरुषों से कुछ इसलिये नहीं चाहिये कि हम महिला हैं।
आज की नारी और भी अधिक शोषित,पीडित है। बदला है तो बस शोषण करने का स्वरुप। आज नारी जिस स्थिति में है उसे उस स्थिति तक पहुँचाया किसने? मैने, आपने और इस समाज ने क्योंकि नारी को नारी हमने बनाया। अबला, निरीह हमने बनाया है । जब एक बच्चा जन्म लेता हैं तब उसे खुद पता नहीं होता कि वह क्या हैं। अबला नारी का रुप ले लेता है क्यों आखिर क्यों जबाब नही क्योंकि औरत को औरत बनाने वाली भी औरत ही होती है। वो औरत जो आधी आबादी का हिस्सा है जो आदिम युग से अपने त्याग बलिदान के कारण वन्दनीय रही है। आज की नारी जो पढ़ी लिखी, सुसज्जित है। आँखिर क्यों शिकंजो से आजाद नही हो पा रही है।
सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में महिलाओं की पहचान के मानक भी बदले हैं। आज महिलाओं की पहचान का जो मानक प्रचलन में है वह दो सौ साल पहले नहीं था। अत: महिलाओं के बारे में बात करते समय ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य का होना प्राथमिक शर्त्त है। ऐतिहासिक नजरिए के बिना औरत को समझना मुश्किल है। महिलाएं सिर्फ सामयिक ही नहीं है। वह सिर्फ अतीत भी नहीं है। उसे काल में बांधना सही नहीं होगा। उसकी पहचान को ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए।
महिलाओं की धारणा को लेकर साहित्यकारों और राजनीतिज्ञों में पुरूष-संदर्भ अभी भी वर्चस्व बनाए हुए है। औरत अभी भी साहित्य में बेटी, बहन, बीबी, बहू, माँ, दादी, चाची, फूफी, मामी आदि रूपों में ही आ रही है। महिलाओं को हमारे साहित्यकार परिवार के रिश्ते के बिना देख नहीं पाते, पुरुष-संदर्भ के बिना देख नहीं पाते।
स्त्री के सामाजिक यथार्थ को रूपायित करने के लिए स्त्री-पुरूष की सही इमेज या अवस्था की सटीक समझ परमावश्यक है। औरत की सही समझ के अभाव में समूचा विवेचन अमूर्त्त हो जाता है, प्रभावहीन हो जाता है, औरत अमूर्त्त या अदृश्य हो जाती है। औरत की अदृश्य स्थिति के कारण विकृत विश्लेषण जन्म लेता है, और जो निष्कर्ष निकाले जाते हैं वे अप्रामाणिक और अधूरे होते हैं। यह स्थिति आज भी हमारे साहित्य में मौजूद है।
समाज में स्त्री का जो स्थान है उसके प्रति सवाल उठ खड़े हुए हैं। महिलाओं की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक अवस्था संतोषजनक नहीं है। महिलाओं के चर्चा में आने या बने रहने का अर्थ है कि औरत के मसले अभी सुलझ नहीं पाए हैं। महिलाओं के मसले क्यों उलझते हैं क्योंकि आम लोगों में उसकी वास्तविकता का ज्ञान नहीं होता। औरत के प्रति पूर्वाग्रह काम करते रहते हैं।
फरवरी 1931 में प्रेमचंद ने अपने एक लेख “नारी जाति के अधिकार” में उन्होंने लिखा-“’पुरुषों ने नारी जाति के स्वत्वों का अपहरण करना शुरू किया, लेकिन राष्ट्रीयता और सुबुद्धि की जो लहर इस समय आई हुई है, वह इन तमाम भेदों को मिटा देगी और एक बार फिर हमारी माताएं उसी ऊंचे पद पर आरुूढ़ होंगी, जो उनका हक है।
महात्मा गांधी ने स्पष्ट शब्दों में कहा, जब तक पुरुषों और स्त्रियों के पास बराबर अधिकार नहीं है और स्त्रियों को जन्म से असमान माना जाता है, यह देश के आधे हिस्से को अपंग बनाने के समान है। स्त्रियों का शोषण और कुछ नहीं, अहिंसा के सिद्धांत को छिन्न-भिन्न करता है। मैं स्त्रियों के प्रश्न पर समझौता नहीं करूंगा।”
महादेवी वर्मा ने आदिम युग से लेकर सभ्यता के विकास तक भारतीय समाज में स्त्री की दयनीय दशा का वर्णन किया है। उनकी दृष्टि में इसका कारण स्त्री और पुरूष के अधिकारों की विचित्र विषमता है। वे कहती है, “पुरूष ने उसके अधिकार अपने सुख की तुला पर तोले, उसकी विशेषता पर नहीं, अतः समाज की सब व्यवस्थाओं में उसके और पुरूष के अधिकारों में एक विचित्र विषमता मिलती है।… एक ओर सामाजिक व्यवस्थाओं ने स्त्री को अधिकार देने में पुरूष की सुविधा का विशेष ध्यान रखा है, दूसरी ओर उसकी आर्थिक स्थिति भी परावलम्बन से रहित नहीं रही। वे स्पष्ट रूप से कहती हैं कि आर्थिक रूप से जो स्थिति स्त्री की प्राचीन समाज में थी, उसमें अब तक परिवर्तन नहीं हो सका है। “भारतीय नारी का मुख्य दोष महादेवी जी ने यह बतलाया है कि उसमें व्यक्तित्व का अभाव है। उसे न अपने स्थान का ज्ञान है, न कर्त्तव्य का। जो लोग उसकी सहायता करना चाहते हैं, वह उन्हीं का विरोध करती है।
जब नारी ही नारी को न तो समझ पायी है आज तक, न सम्मान दे पायी तो यह प्रश्न तो पुरुषो के पाले में डालना अभी जरा जल्दबाजी होगी। सबसे पहले नारी खुद अपना सम्मान करना सिखे और अपने को खुश रखना जाने तभी आपका उचित मूल्यांकन होगा। स्त्रियों के तेज और ओज को स्त्रियोचित चेतना की कसौटी पर ही देखने की आवश्यकता है, तभी उसकी पहचान को नया आयाम मिलेगा तब ही महिला-दिवस की सार्थकता पूर्ण होगी।
मुझे इस्मत चुगतई की वह विद्रोही पंक्ति याद आ रही है जब उन्होंने ललकारते हुए कहा था कि “कहां है भारत की वह महान नारी, वह पवित्रता की देवी सीता, जिसके कमल जैसे नाजुक पैरों ने आग के शोलों को ठंडा कर दिया और मीराबाई जिसने बढ़ कर भगवान के गले में बाहें डाल दीं। वह सावित्री जिसने यमदूत से अपने सत्यवान की जीवन-ज्योत छीन ली। रजिया सुल्ताना जिसने बड़े-बड़े शहंशाहों को ठुकरा कर एक हब्शी गुलाम को अपने मन-मंदिर का देवता बनाया। वह आज लिहाफ में दुबकी पड़ी है….।“
घुटन भरी ज़िंदगी से खुले वातावरण की हवा अधिक श्रेष्ठ होती है। अतः बेटी को इस काबिल बनायें कि वह किसी पर आश्रित न रहे। साथ ही ऐसे संस्कार भी दें कि परिवार को जोड़कर रखे परन्तु अन्याय का पुरजोर विरोध भी करे।
महादेवी वर्मा की एक पंक्ति जो सदैव मुझे उद्वेलित करती है- “जो देश के भावी नागरिकों की विधाता हैं, उनकी प्रथम और परम गुरू हैं, जो जन्म भर अपने आपको मिटाकर, दूसरों को बनाती रहती हैं, वे केवल तभी तक आदरहीन मातृत्व तथा अधिकार शून्य पत्नीत्व स्वीकार करती रह सकंगी, जब तक उन्हें अपनी शक्तियों का बोध नहीं होता। बोध होने पर वे बन्दिनी बनाने वाली शृंखलाओं को स्वयं तोड़ फेकेंगी।”
अपने ऊपर हुए अन्यायों के लिए दर-दर भटकने वाली बेटियों के मुल्क में बेटी दिवस मनाना……कितना हास्यास्पद लगता है- है न !
देश में लड़कियों एवं महिलाओं का भववाह_सच
जनवरी 2013 से 30 सितंबर 2020 तक अर्थात 7 वर्ष 9 माह मतलब 2825 दिन में 2 लाख 48 हजार 600 (2,48,600) अर्थात #प्रतिदिन88बलात्कार मामले देश के विभिन्न स्थानीय थाना में सूचीबद्ध हुए है। यह सरकार द्वारा जारी आंकड़ा है एवं इस बात से सभी अवगत है कि बलात्कार के कितने मामले थाना तक पहुँच पाते है।
61436 मामले न्यायालय तक पहुंचे, जिनमे 31448 मामलों का ट्रायल हुआ, 7955 मामले मे सजा बहाल हुई और 21000 अभियुक्त छूट गए तथा 2994 मामले खारिज हो गए। अर्थात कुल मामले का 03% एवं अदालतों तक पहुंचे मामलों का 27% का ही किसी प्रकार से निस्पदन हो सका।
उपरोक्त आंकड़ा सिर्फ बलात्कार जैसे घृणित कुकृत्य के है। नारी-उत्पीड़न के लगभग 25 लाख मुकड़में देश भर के जिला एवं अधीनस्त न्यायालय मे अलग लंबित है।
पूर्व मुख्य न्यायाधीश गोगाई ने अपने स्तर पर देश भर मे हुए 6 वर्ष से कम उम्र के लड़कियों के साथ हुए अमानुषिक अत्याचार के आँकड़े मँगवाए थे। यदि उन आंकड़ों को यहाँ लिख दिया जाए और माननीय न्यायमूर्ति गोगाई का उस आँकड़े को देखने के बाद जो प्रतिक्रिया हुई उसे सुन कर न सिर्फ सर शर्म से झुक जाएगी, बल्कि छाती फट जाएगी।
मुझे तो आज पूर्ण विश्वास था कि आज हर माँ अंकिता भंडारी को अपनी बेटी मान कर अपने डीपी को ब्लैक कर अपना सांकेतिक विरोध सत्ता के शीर्ष तक अवश्य पहुंचाने की कोशिश करेंगी, … अफसोस कि अंकित के माँ –बाप कोई और हैं, हम-आप नहीं।
……..कौन सी नैतिकता हमें इजाजत दे रही है कि हम बेटी दिवस जैसे आयोजन की शुभकामनाएं किसी को भी प्रेषित करें। अंकिता भंडारी भी किसी की बेटी ही तो थी। शर्म से डूब कर मर जाना चाहिए सत्ता में बैठे लोगों से.. अंतिम आदमी (पुरुष वर्ग) तक को।
【नीरज कृष्ण】