आलेख
‘जुगनू’
रात का घुप्प अंधेरा तब बड़ा चमकदार लगने लगा जब देखा कि बहुत सारे जुगनू टिमटिमा रहे हैं आज आँगन में। । यादों की बिजली एक पल में ही सामने खड़ा कर गई सावन-भादों की उन भूली-बिसरी रातों को जब जुगनुओं के पीछे भाग-भागकर इकट्ठा करना हमारा सबसे प्रिय खेल हुआ करता था। बचपन की नन्हीं हथेलियों में आखिर कितने जुगनू समा पाते ! इसलिए बार-बार मन होता कि इकट्ठा किए सारे जुगनुओं को काश हम कहीं संभालकर रख सकते। तब काम आया टेल्कम पाउडर का एक खाली डिब्बा। जुगनू बैंक के रूप में उसका अच्छा इस्तेमाल होने लगा। घर में बड़ों की नजर से छुपाकर वह डब्बा हमने रख लिया कपड़ों की अटैची में। बारिश वाली रातों में जब बाहर जाना मुश्किल होता तब अटैची खोलकर हम अपना जुगनू बैंक उलट-पुलट कर देखते । जुगनुओं की हरी,पीली,नारंगी रोशनी वाला वो डब्बा हमें रंगीन टॉर्च सा लगता ।
अब सर्दियां आ गई थीं शायद जो माँ ने एक दिन सारे कपड़े धूप में डाल दिए सुखाने को और उनके हाथ लग गया वह डब्बा । ढक्कन खोलकर उन्होंने तत्काल जमीन में उड़ेल दिए सारे जुगनू। गुस्से से हमें देख बड़बड़ाने लगीं – कोई तुमको रख दे कभी भूखे-प्यासे कैद करके तो क्या हो ? सोचा है कभी ?
तब तो सच में सोचा नहीं कि क्या हो ? लेकिन अब सोचते हैं कि ये उसी पाप की सज़ा है शायद जो हमारे बच्चे प्रकृति के बीच से उठकर कैद हो गए हैं टी.वी.और गैजेटस के बीच। मोबाइल की रोशनी से ख़राब होती आंखों से अपने लिए गायब होता कौतूहल देख जुगनू भी शरमा कर छुप गये हों जैसे कहीं किसी अंधेरे कोने में ।
धुंधला गए लम्हों को फिर से चमका देने की चाह में एक जुगनू कुछ देर को फिर मुट्ठी में कैद कर लिया मैंने। अंगुलियों के बीच से छनकर आती वही हरी-पीली रोशनी। अहा ! पलकें चमक उठी खुशी से और होंठ बुदबुदाए –
वो महकती पलकों की ओट से कोई तारा चमका था रात में / मेरी बंद मुट्ठी न खोलिये वही कोहिनूर है हाथ में (बशीर बद्र)
प्रतिभा नैथानी