आलेख
आदमी मुसाफिर है ………
.…. 2020 में आज के ही दिन यह मुसाफिर अपने अंतिम सफर में निकल पड़ा,,,,इरफान खान की याद में ‘नीरज कृष्ण” जी का यह आलेख।
नीरज कृष्ण
फ़िल्में देखना मुझे पसंद नहीं है और 1984 के बाद कभी न फिल्म देखा और न इन विषयों पर चर्चा करने के योग्य कभी खुद को पाया। न जाने कैसे आज उंगलिया की-बोर्ड पे थिरकने लगी आज इरफ़ान खान को लेकर। निश्चित ही इनकी भी किसी फिल्म को नहीं देखा हूँ, पर इत्तेफाक से एक बार मुझे एक क्लिप भेजी गयी थी इनकी एक फिल्म की (हिंदी मीडियम), जिसे देखने के पश्चात मुझे उनकी पत्रिका के लिए कुछ लिखने का निर्देश था……
जैसे ही आज यह खबर सुर्ख़ियों में आई कि वर्तमान हिंदी फिल्म जगत के बेहतरीन कलाकार इरफ़ान खान की कैंसर से लड़ते हुए मृत्यु हो गयी है तो उनके प्रशंसकों की पहली प्रतिक्रिया यह ही थी कि इरफ़ान की आसमयिक मृत्यु हो गयी, समय से पहले चले गए।
प्रश्न उठता है कि ‘सही समय क्या होता है’! यह किसको पता है। दुनिया में अमूनन पूछकर चीज़ें नहीं की जातीं, बस हमको-आपको सांकेतिक रूप से सूचित कर दिया जाता है कि अब यह होगा। और हमको-आपको उसे क़बूल करना पड़ता है।
कभी हमने विचार किया कि ‘मृत्यु क्या है’? मृत्यु कुछ और नहीं बस “एक पल पहले का भाव, अभी का अभाव…” , बस मात्र इतनी ही सी तो बात है।
जिस शरीर में/ रूप में/ नाम में हमने प्रियजन का #भाव किया था.. उसी शरीर के अनुपस्थिति होते ही उस प्रियजन का अभाव हो जाता है। उसी को हम मृत्यु कह देते हैं।
कभी कभी सोचता हूँ कि किसी व्यक्ति की किसी निश्चित दुर्घटना में या किसी भी एक विशिष्ट कारण से ही मृत्यु क्यों हुई? वो ठीक ठीक उन्ही परिस्थितियों के बीच कैसे पहुंचा जहाँ मृत्यु ने उसका वरण किया? क्या कुछ निश्चित सा होता है सबकुछ? या मात्र संयोग?
किन्तु मृत्यु असुन्दर भी तो है! प्राणांत से पहले होने वाली पीड़ा के कारण नही… वो पीड़ा तो देह छूटने के साथ ही छूट जाती है। और उसके साथ ही छूट जाते हैं झूठे मोह बंधन! किन्तु मृत्यु असुन्दर होती है बाद में छूटने वालों के लिए! इसका कारण भी मोह नही है। किसी के बिना किसी दूसरे का जीवन नही रुकता, वैकल्पिक व्यवस्थाये हो जाती हैं, कमियां पूरी हो जाती हैं। किन्तु असुन्दर इसलिए है की कोई भी मृत्यु मन विराग छोड़ जाती है। जीवन की नश्वरता का भाव छोड़ जाती है! यह मृत्यु के बाद का वैराग्य आनंददायक भी है और कष्टकारक भी। यह वो अवस्था है जब मोह समाप्त होता हुआ लगता है। #नश्वरता में आस्था बढती है.. क्यूंकि खुद की मृत्यु याद आती है। आनंद आता है क्योंकि समझ आता है कि सत्य क्या है, और कष्ट होता है कि ऐसा क्यों है?
ज़िंदगी में हमने क्या-क्या सपने देखे, क्या सोचा, क्या पाया, कितनी मेहनत की और कितनी प्रतिष्ठा कमाई, इन सब बातों का आख़िर मतलब नहीं है। हम कह सकते हैं कि यह होना ज़रूरी नहीं था, यह नहीं भी हो सकता था। लेकिन हमारे पास वैसा कहने का अधिकार नहीं है।
क्या इरफ़ान खान बेवक़्त चले गए? पता नहीं। यह #तय करने वाले हम हैं भी नहीं, परन्तु यह ध्रुवसत्य है कि इरफ़ान खान आज की तारीख़ में हिंदी फिल्म जगत के बड़े कलाकार थे, यक़ीनन। यह सिर्फ इस बात से तय हो जाती है कि वह फ़िल्म-उद्योग के लिए अपरिहार्य (Indispensable) हो गए थे और उनको केंद्र में रखकर उनके लिए सिनेमा में भूमिकाएं लिखी जाने लगी थी। अस्सी के दशक में कला फिल्मों में जो मुकाम नसीरूद्धीन शाह, फारुख शेख, ओम पुरी ने अपनी बेहतरीन अदाकारी से पाया था। वही स्थान वर्तमान समय में इरफ़ान खान उसी मुक़ाम को अपने नैसर्गिक अदाकारी से पाया ही नहीं बल्कि नसीरूद्धीन शाह से भी ज्यादा लोकप्रिय हो गए।
नियति ने इतने बड़े और हरदिल अजीज फनकार को अल्पायु क्यों प्रदान किया, यह हमारा-आपका विषय-वस्तु ही नहीं है। वास्तव में मनुष्य की आयु उसके शरीर की आयु नहीं होती है बल्कि उसके भीतर की चमक कब तक रही, वही उसकी वास्तविक आयु होती है। यही ज़िंदगी है। हम अपनी जिंदगी में खुद को यह समझा पाने के लिए मानसिक तौर से कितना तैयार कर पाये है कि एक दिन मैं नहीं होऊंगा, वह नहीं होगा और वह क्षण कभी भी आ सकता है किसी की जिंदगी में, कष्ट कम हो जायेंगे, बिछुड़ने का गम कम होगा।
अशोक सलिल ने कितना सही कहा है कि “मौत से बचने का एक ही तरकिब है आदमी की सोच में जिन्दा रहो”।
पान सिंह तोमर के एक संवाद को याद करते हुए विदा लिख रहा हूँ कि “बीहड़ में तो बागी रहते हैं, डाकू तो पार्लियामेंट में रहते हैं ……”
नीरज कृष्ण
एडवोकेट पटना हाई कोर्ट
पटना (बिहार)