आलेख
मेरा शरीर ही दुनिया मेरी
दीपशिखा गुसाईं
कभी एकांत में बैठती हूँ तो बहुत से विचार मन में आते है।।कि काश ऐसा होता या वैसे होता। पर जब आस पास देखती हूँ तो सोचती हूँ कि मैं कितनी बेहतर हूँ।।
बस इसी तरह खुद के शरीर के प्रति भी नकारात्मक ख्याल आये पर…लेकिन जब बहुत सोचा कि मैं ये ख्याल क्यूँ लाऊँ दूर दूर तक भी अपने मन में।। एक यही शरीर तो है जो मेरा वास्तविक घर है। जो मुझे कभी खुद से अलग नहीं करेगा।।
हम जैसे हैं उसी हाल में खुद को स्वीकारें। मैं खुलकर हंसना चाहती हूँ और हँसते हुए अपनी आँखों के आस पास पड़ने वाली लकीरों को देखकर खुश होना चाहती हूँ ।।महसूस करना चाहती हूँ कि खूबसूरत हूँ, अपने सीने में धड़कते दिल के साथ ताल मिलाकर गुनगुनाना चाहती हूँ, इतना दौड़ना चाहती हूँ कि मेरा अंग अंग थककर एक गहरी आरामदायक नींद में सो सके।
जोर जोर से हंसना चाहती हूँ, खुलकर रोना चाहती हूँ, ताकि गालों में बहते गर्म आंसुओ के अहसास को महसूस कर सकूँ।मैं इसलिये ये सब करना चाहती हूँ क्योंकि ये सब करके मुझे ख़ुशी और सुकून का अहसास होता है।। खुद को इसलिए प्यार नहीं करना चाहती क्योंकि मुझे ऐसा करना चाहिए, मुझे पता है कि संसार मुझे मेरे तरीके से कभी प्यार नहीं कर सकता, मैं ये सब इसलिए करना चाहती हूँ कि ये शरीर ही मेरा वास्तविक घर है।।
मेरे शरीर पर सिर्फ मेरा हक है और मुझे इससे प्यार है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मेरा वजन बढ़ जाये या मेरा फिगर परफेक्ट न रहे।। मैं खुद से शर्तों पर प्यार नहीं करना चाहती।। मैं तब भी इसे प्यार करुँगी जब ये मेरा साथ देना छोड़ देगा।।
मेरा शरीर मेरी दुनिया है मेरा घर है। चाहे कितने भी बदलाव आए ये मुझे कभी खुद से अलग नहीं करेगा।। इसलिए मेरा भी फर्ज बनता है कि मैं इसे सजाऊँ , सवारूँ, और खूबसूरत बनाकर रखूं, क्योंकि यही मेरा वास्तविक घर।।
“दीप”