आलेख
आधुनिक दौर की नन्दा
राष्ट्रीय बालिका दिवस (24 जनवरी)
【हरदेव नेगी】
“सुबह का सूरज पहाड़ की चोटी से तब धवड़ी लगाता है उससे पहले ये डांडा गौं की स्त्रीयाँ व बेटियाँ खरसू, पमड़ि , बांँज, ऊळा का भारा गुठ्यार में ला देती हैं,,,, बकरियों का रमणाट इनको देखकर खुशी – खुशी भट्याने लगते हैं, सुबह का लूंण और जौ खाने के लिए,,,,,”
नन्दा सिर्फ वो नहीं है जो हर बारह साल में रिसांसों से हिमालय की ओर जाती है, दिशा ध्यांणियों भै – भोजों, सौर्यास मैंत्यों को भैंटती हैं,, दूर हिमालय के डांडा गावों में रहने वाली हर स्त्री, या उन गाँवों में बिवायी जाने वाली हर लड़की नंन्दा का प्रतीक है, और आज भी साक्षात वही घटना क्रम आँखों के सामने देखने को मिलता है,,,, जैंसा नन्दा का जीवन था। उन डांडा गाँव में रहने वाली महिलाओं के हिस्से भी ” ह्यूँ का ढक्योंण – ह्यूँ का बिछौंण ” आया है,,, बारह महीने धांण- काज की झुरै उनके हिस्से आई हैं,,, वहाँ रहने वाले बैख भी शिव का प्रतीक हैं,,,,” बुग्याळों की सैर – ना रिख ना बाग की डैर” बीड़ी तम्बाकू की स्वौण और इन हिमालय की पगड़डियों के साथ जीवन जीने की मरोड़ उनके जिकुड़े में थपी है….,!
उन बैखों के साथ अपना जीवन यापन करने वाली स्त्री कोई साधारण स्त्री नहीं हो सकती, ह्यूँ सी जमीं ये स्त्रियाँ या बेटियाँ भी कठोर सरील वाली होती हैं,,, अगर इनकी जुबाँ पर “हरयाँ देबो भी है तो इनकी जुबाँ पर गमठम रहने वाले शब्द भी,,,! सुबह का सूरज पहाड़ की चोटी से तब धवड़ी लगाता है उससे पहले ये डांडा गौं की स्त्रीयाँ व बेटियाँ खरसू, पमड़ि , बांँज, ऊळा का भारा गुठ्यार में ला देती हैं,,,, बकरियों का रमणाट इनको देखकर खुशी – खुशी भट्याने लगते हैं, सुबह का लूंण और जौ खाने के लिए,,,,, भैंसियाँ रींगना शुरु करती हैं किल्ले पर,,, बल्द सींग पळ्याने लगते हैं , गाय की बाछियां उछल कूद करती हैं,,, अपनी गुस्यांण को देखकर.”शेरु कुकूर” रक्षक के रूप में गुठ्यार के मेंड पर बैठार रहता”, बिराळु दूध की धादी लगता है, अपनी गुस्यांण के पैरों पर अपना गात रगड़ता है कि सुबह का ताजा दूध मिलेगा”..! सुबह के अंधेरे में भी डाल्यों के ठुक पर चढ़ने का सग्वोर, और बंदर की तरह एक फांगे से दूसरे फांगे पर जाने की कला इनसे बेहतर कौन समझ सकता है,,,,!
घर के खतरों पर पल रही मधुमक्खियाँ इनको देखकर भिन्न भिनाती हैं पर स्नेह इतना कि अपनी गुसेंण को नहीं चड़काती,,,,! म्वारों को बींणने का सग्वोर गजब का इनका..! घने जंगलों के बीच का उबड़-खाबड़ रस्तों से निडर होकर स्कूल को जाती, अपने छोटे भाइयों को भी साथ ले जाती,,,, सांगो तराती कभी – कभी जंगली जानवरों से भिड़ जाती,,,, यहाँ तक कि उनकी छांटी लगाने का जिगर एक अदम्य साहस का प्रतीक है…, लोक गीतों की धनी ये स्त्रीयाँ आंछरी, पयारी, गीतों की किताब हैं,,,,! बाजूबंद गीतों से अपनी खैरी बिपदा, मैत की खुद डाळी बोट्यों से लगाती हैं…, शायद यही पीड़ा देखकर नेगी जे ने लिखा है ” मुल -मुल केकु हैंसड़ि छै तू, हे कुंळै की डाळी, कखि तिन मेरि आँख्यों का सुपिन्यां, देखि त् नि याली”””
अहा कितनी स्वांणी लगती हैं ये डांडी कांठी जब ये स्त्रीयां घास काटते वक्त बाजूबंद गीत लगाती हैं,,,, ह्यूंद के दिनों के लिए अलाव कठा करती हैं तो बसग्याळ बुग्याळों की सैर,,, च्वोरू, फरंण, कड़वे, कंथुलु ,,, बनी बनी की जड़ी बेटियाँ समेटती, दुख्यारी पीड़ा को हरती,,,, स्वळटियां बुनती,,,, उन कातती,,, क्या धांणि नहीं जानती ये डांडा गौं की ब्वारियाँ….! खुद हिमालय की सेवा में लगी रहती हैं, और अपनी औलादों को भी देश की सीमा पर भेजती हैं, डरती नहीं हैं,,, निडर बनकर न्यौछावर कर देती हैं अपने जिगर के टुकड़ों को…
नेगी जी ने लिखा है ” प्रीत सी कुंगळी डोर छिन ये, परबतूं जन कठोर सि हमरा पहाड़ों की नारी, बेटि ब्वारी पाड़ों की..
नन्दा के हिस्से भी यही सब कुछ था,,,, आज भी अगर कोई पिता अगर दो तीन बेटियों में से किसी एक को दूर डांडा गाँव में बिवाता है, तो उसकी सबसे ज्यादा चिंता रहती है पिता को,,,, वहाँ के कठोर जीवन को मेरी बेटी कैंसे सहेगी, इसी खुद में बार – बार अपनी ब्यटुली को समूंण, रंत रैबार भेजते रहते हैं,,,, खुद बेदने और ख्यौदने जाते हैं..! मायके से जब सौर्यास पैटती है तो गौं की धार में पहुंचते ही आंसुओं की पणंधार से अपनी ब्वे – बाबा जी का गात रुझा देती है,,, दादी तो यही कहती जा मेरी पोथळी रो ना,,,, सरासैर पैट, पैथर ना हेरि,,,,, भलि मेसि रै,,, सुख संपन्न रै…!
कुछ बेटियाँ ऐंसी भी,
नन्दा सी,
आज भी हैं इन हिमालय गाँव में।।।
हरदेव नेगी गुप्तकाशी(रुद्रप्रयाग)