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“अब वतन भी कभी जाएंगे तो मेहमां होंगे”….

आलेख

“अब वतन भी कभी जाएंगे तो मेहमां होंगे”….

प्रतिभा की कलम से

‘अब वतन भी कभी जाएंगे तो मेहमां होंगे’ .. इंतज़ार हुसैन साहब क्या जानते थे कि मोमिन खां के दिल का दर्द एकदम सच बैठेगा कभी उन पर भी।पाकिस्तानी अदीब इंतज़ार हुसैन एशिया के चहेते अफ़साना निगार थे।
हुसैन साहब जब फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की जन्म शताब्दी समारोह के मौके पर साहित्य अकादमी दिल्ली में आए तो उन्होंने अपने एक पुराने मित्र के साथ उनके पैतृक घर को खोजने की इच्छा जताई। इंतजार साहब का पुश्तैनी घर बुलंदशहर डिबई में था । 1947 में बंटवारे के वक्त वतनबदर होकर वो पाकिस्तान तो चले गए लेकिन अपने घर को दिल में साथ लेते गये। हिंदुस्तान से पाकिस्तान रुख़सती के वक्त उनके अब्बा हुजूर ने किसी हिंदू परिवार को अपना घर बेच दिया था। इत्तेफ़ाकन अब जब उनके घर का पता मिल ही गया तो वहां पहुंचने पर मोहल्ले वालों ने उनका जोरदार स्वागत किया । घर की बहुओं ने सिर पर पल्लू रखकर इंतजार साहब की आरती उतारकर पैर छुए। दिल जुड़ा गईं यह सारी बातें और इंतजार साहब को लगा कि जैसे वह कभी कहीं गए ही नहीं और अब वह घर की दीवारों को चूमते-चूमते नहीं थक रहे हैं। हर तरफ यादें चस्पां थी इस घर में बिताए उनके सुहाने बचपन की। सदियों के फासले जैसे पल में मिट गए हों।
यह सच्चा किस्सा उसी तरह सुखद लगता है जिस तरह “जिन लाहौर नि वेख्यां” के सिकंदर मिर्जा ने बंटवारे के वक्त अपने परिवार से अलग छूट गयी रतन की बूढ़ी अम्मा को सगी मां जैसा दर्जा देकर उनके जनाजे को अपना कांधा देने में गुरेज़ न कर हिंदू-मुसलमान के बीच के मज़हबी फर्क को ताक पर रख दिया। असगर वजा़हत का यह मशहूर नाटक वतन के बंटवारे की पृष्ठभूमि पर आधारित है।
उस दौर के अधिकतर लोग अब सुपुर्द-ए-खाक हो चुके हैं, लेकिन उनके रिसते हुए जख़्म कराहते रहे मरते दम तक।। तभी तो खुशवंत सिंह अपने हर मुलाकाती से ये पूछना नहीं भूलते थे कि ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ पढ़ी है तुमने?
रोंगटे खड़े कर देने वाली आंसुओं से सच्ची दास्तान है ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’। लफ्ज़- लफ्ज़ लिथड़ा हुआ हो जैसे इंसानों के ताज़ा खून से।
इस्मत चुगताई की “जड़ें” जैसा सुखांत कम ही पढ़ने को मिलता है जिसमें पाकिस्तान जा रहे मुस्लिम परिवार के लड़के,बहुओं को रेलवे स्टेशन से वापस लौटा लाएं उनके हिंदू पड़ोसी ।
इस किस्से के मुख्य किरदार अम्मी और डॉक्टर रूपचंद की तरह सभी अपना-अपना मज़हबी वजूद आधा-आधा भी भुला देते तो यह ज्यादा दिन तक याद रखी जाने वाली बात न होती कि हिंदुस्तान- पाकिस्तान कभी अलग भी हुए थे।
न जाने कब हम समझेंगे कि नफरत के बीजों से खिले फूलों में कभी तरक्की की ख़ुशबू नहीं आ सकती।

प्रतिभा नैथानी (देहरादून)

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