आलेख
फूलदेई छम्मा देई….
✍️✍️✍️राघवेंद्र चतुर्वेदी
फूलों से भरी टोकरियां लेकर जब बच्चे “फूलदेई, छम्मा देई” गाते हुए घर-घर पहुंचते हैं, तो पूरा वातावरण एक अलौकिक सौंदर्य से भर उठता है। ये शब्द केवल एक पारंपरिक गीत नहीं, बल्कि एक मंगलकामना होती है, जिसमें हर घर के लिए खुशहाली और समृद्धि की कामना की जाती है। जैसे ही वे किसी घर की चौखट पर फूल बिखेरते हैं, मानो वहां देवी-देवताओं का वास हो जाता है।

एक ऐसा पर्व जो केवल उत्तराखंड की संस्कृति का प्रतीक नहीं, बल्कि प्रकृति और मानव के बीच गहरे संबंध का जीवंत उदाहरण है। यह त्यौहार केवल फूल बिखेरने तक सीमित नहीं, बल्कि यह हमारे समाज, हमारी परंपराओं और हमारी मानसिकता को भी दर्शाता है। यह पर्व हमें सिखाता है कि प्रकृति के प्रति श्रद्धा और आभार प्रकट करना ही हमारे जीवन की वास्तविक समृद्धि है। इस पर्व में उत्तराखंड की समस्त पहाड़ी सभ्यता की आत्मा बसती है, जहां बच्चे अपनी मासूमियत, प्रेम और उल्लास के साथ इसे मनाते हैं और हर घर की चौखट को सुगंधित कर देते हैं।
जैसे ही चैत्र मास का पहला दिन आता है, वैसे ही पर्वतीय गांवों में हलचल शुरू हो जाती है। बच्चे उत्साह से अपने आंगन, खेतों और वनों में जाकर सबसे सुंदर और ताजे फूल चुनते हैं। बुरांश, फ्योंली, गुलाब, जंगली गेंदा, पलाश और अन्य तरह-तरह के रंग-बिरंगे फूलों से उनकी टोकरी भर जाती है। यह केवल फूलों को चुनना नहीं, बल्कि प्रकृति के प्रति प्रेम और सम्मान का भाव भी होता है, जिसे ये नन्हें हाथ अपनी निश्चल श्रद्धा से निभाते हैं। ये फूल केवल पेड़ों की डालियों पर लगे सुंदर रंगीन तत्व नहीं होते, बल्कि इन्हें हमारे पूर्वजों ने शुभता और समृद्धि का प्रतीक माना है।
फूलों से भरी टोकरियां लेकर जब बच्चे “फूलदेई, छम्मा देई” गाते हुए घर-घर पहुंचते हैं, तो पूरा वातावरण एक अलौकिक सौंदर्य से भर उठता है। ये शब्द केवल एक पारंपरिक गीत नहीं, बल्कि एक मंगलकामना होती है, जिसमें हर घर के लिए खुशहाली और समृद्धि की कामना की जाती है। जैसे ही वे किसी घर की चौखट पर फूल बिखेरते हैं, मानो वहां देवी-देवताओं का वास हो जाता है। बदले में उन्हें गुड़, चावल, पैसे या मिठाइयां मिलती हैं, लेकिन असली खुशी उनके चेहरों की वह चमक होती है, जो इस परंपरा को निभाने से आती है।

यह त्यौहार केवल धार्मिक और सांस्कृतिक आधार तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें पर्यावरण और प्राकृतिक संतुलन का गहरा संदेश छिपा है। उत्तराखंड के पहाड़, जंगल और नदियां इस पर्व के साक्षी हैं, जो हर वर्ष इसे नई ऊर्जा के साथ देखती हैं। यह पर्व हमें बताता है कि प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व ही असली जीवन है। जब हम फूलों को तोड़ते हैं, तो केवल सौंदर्य नहीं, बल्कि जीवन का सार भी अपने साथ लाते हैं। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि खुशहाली का असली मार्ग प्रकृति की गोद में ही बसता है।
फूलदेई केवल एक दिन का पर्व नहीं, बल्कि यह उत्तराखंड की सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ी एक जीवनशैली है। पहाड़ों में यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है और इसे निभाने की जिम्मेदारी हर पीढ़ी अपने कंधों पर उठाती है। आधुनिकता के प्रभाव से भले ही कई परंपराएं धुंधली पड़ रही हों, लेकिन फूलदेई का रंग और सुगंध आज भी वैसी ही है, जैसी सदियों पहले थी। यह पर्व हमें बताता है कि चाहे समय कितना भी बदल जाए, अपनी जड़ों से जुड़े रहने में ही असली आनंद और शांति है।
इस पर्व में बच्चों का विशेष स्थान है। वे केवल इस त्यौहार के सहभागी नहीं, बल्कि इसके वाहक भी हैं। उनके नन्हें कदम जब गांव की गलियों में दौड़ते हैं, तो यह केवल उनके कदमों की आहट नहीं होती, बल्कि यह पूरी संस्कृति की धड़कन होती है। उनके गीतों में केवल शब्द नहीं होते, बल्कि एक ऐसी सकारात्मक ऊर्जा होती है, जो हर घर को अपनी छाया में सुख और समृद्धि से भर देती है। उनके मासूम चेहरे पर जो खुशी होती है, वह इस पर्व की असली आत्मा है।
समय के साथ भले ही कई परंपराएं कमजोर पड़ गई हों, लेकिन फूलदेई आज भी अपनी पूरी शक्ति के साथ जीवित है। जब तक पहाड़ों पर फूल खिलते रहेंगे और बच्चों की टोली “फूलदेई, छम्मा देई” गाते हुए घर-घर जाएगी, तब तक यह पर्व अपनी पहचान को बनाए रखेगा। यह केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि एक संदेश है….प्रकृति से प्रेम करो, खुशियां बांटो और अपने सांस्कृतिक मूल्यों को सहेजकर रखो। यही फूलदेई का सार है, यही इसका संदेश है और यही इसका चिरंतन सौंदर्य भी।
राघवेंद्र चतुर्वेदी (बनारस)

