आलेख
शारदीय नवरात्र: रंग अलग पर भाव और श्रद्धा एक।
“दीपशिखा गुसाईं“
“जिस तरह बंगाली लोग माँ दुर्गा और माँ काली के रूप में माता को मायके यानि घर बुलाकर स्वागत सत्कार करते और अष्ठमी नौमी के दिन उनके आने की ख़ुशी का उत्सव मानते बिलकुल ऐसे ही देश के कई हिस्सों में भी अलग अलग रूपों या अलग तरीके से माता रानी का सत्कार किया जाता है,,हाँ भौगोलिक विभिन्नता के अनुसार समय अलग अलग होता है,,”
जी हाँ बहुत समृद्ध और पौराणिक संस्कृति है हमारी ,,,हिन्दू धर्म में 33 करोड़ देवी देवता ,,सबकी अपनी विशेषता,,,हाँ सही समझे त्योहारों का मौसम है पूरा देश मग्न है तैयारियों में ,,हमारी संस्कृति अपनी विशाल भौगोलिक स्थिति के समान अलग अलग है। यहां के लोग अलग अलग भाषाएं बोलते हैं, अलग अलग तरह के कपड़े पहनते हैं, भिन्न भिन्न धर्मों का पालन करते हैं, अलग अलग भोजन करते हैं किन्तु उनका स्वभाव एक जैसा होता है। तो चाहे यह कोई खुशी का अवसर हो या कोई दुख का क्षण, लोग पूरे दिल से इसमें भाग लेते हैं, एक साथ खुशी या दर्द का अनुभव करते हैं।
हर पल को उत्सव की तरह सेलेब्रेट किया जाता है ,,
जैसे कुछ दिन पहले नवरात्रों में दुर्गा पूजा का भव्य आयोजन हर जगह देखा गया ,,,दुर्गा उत्सव पश्चिम बंगाल, ओडिशा, असम, झारखंड और बिहार आदि राज्यों का प्रमुख त्योहार है लेकिन वर्तमान समय में भारत समेत विदेशों में शारदीय नवरात्रि में षष्ठी से लेकर दशमी तक धूमधाम से दुर्गा उत्सव मनाया जाता है।इन दिनों मां आती हैं अपने मायके,,दुर्गा उत्सव को मनाए जाने के पीछे अलग-अलग तरह की धार्मिक मान्यताएं हैं। जैसे एक मान्यता के अनुसार, देवी दुर्गा ने असुर महिषासुर का वध किया था, इसलिए बुराई पर अच्छाई के प्रतीक के रूप में नवदुर्गा की पूजा करने की परंपरा शुरू हुई, वहीं कुछ लोगों का मानना है कि साल के इन्हीं दिनों में मां दुर्गा अपने मायके आती हैं। जिस कारण इन दिनों को दुर्गा उत्सव के रूप में मनाया जाता है।
,,,हाँ गढ़वाली हूँ पर दूसरे प्रदेशों के त्योहारों के प्रति भी अलग आकर्षण रहा है ,,
जिस तरह बंगाली लोग माँ दुर्गा और माँ काली के रूप में माता को मायके यानि घर बुलाकर स्वागत सत्कार करते और अष्ठमी नौमी के दिन उनके आने की ख़ुशी का उत्सव मानते बिलकुल ऐसे ही देश के कई हिस्सों में भी अलग अलग रूपों या अलग तरीके से माता रानी का सत्कार किया जाता है,,हाँ भौगोलिक विभिन्नता के अनुसार समय अलग अलग होता है,,
गढ़वाली हूँ तो यही की बात करुँगी ,,,देखा है मैंने समय समय पर माँ की डोलियां अपने मायके आती हैं ,लोगो का विश्वास और उनके सत्कार में बिछ जाना ,,जैसे माँ गौरा का त्रियुगीनारायण में भव्य सत्कार ,,प्रसिद्ध नंदा राजजात ,,जिसमें माता अपने भव्य रूप में मायके आती हैं,,सभी जगह तो एक सा ही है ,,,हाँ सबसे भावुक पल माँ का अपने पीहर से विदा लेते वक़्त ,,,जैसे नव वधुएं अपने पीहर से विदा लेती है है तो उनको भव्य विदाई दी जाती है ,,जिससे वो ससुराल में किसी बात की कमी महसूस न कर सके ,,माँ के विदा के वक़्त स्थानीय औरतों का रुदन करते हुए भावुक गीत हर एक श्रद्धालु की ऑंखें जरूर नम कर देती है ,, बिलकुल ऐसा ही तो देवी माता के विदा के वक़्त भी भावुकता में सभी के आँखों में आंसू देखे जा सकते ,,माँ के पसंदीदा रंग लाल रंग सभी जगह एक सा जिसमें सभी रंग जाते हैं,, हाँ पहाड़ों वाली विदा होकर ससुराल अपने ऊँचे पहाड़ों में विदा होती तो ,,बंगाल में दशमी के दिन माता रानी विसर्जित की जाती हैं,,सिंदूर तो माँ के सौभाग्य का प्रतीक जिसे हर सुहागन स्त्री के लिए प्रसाद स्वरुप दिया जाता है ,,,इसी वजह से बंगाली “सिंदूर खेला” का अपना अलग महत्त्व ,,
जी हाँ किसी भी प्रदेश में जाओ बहुत कुछ मेल खाता है क्यूंकि ईश्वर एक ही है बस रूप उसके अलग अलग ,,और हमारी संस्कृति जैसा विशाल और समृद्ध दुनिया की कोई और संस्कृति नहीं ,,,
“दीप”