Connect with us

शीशफूल

आलेख

शीशफूल

(कहानी)

सुनीता भट्ट पैन्यूली

मां नि: शब्द हूं। शब्द नहीं हैं मेरे पास।

मां विस्थापन की क्रिया में शायद पूर्णरूप से इसलिए भी सफलतापूर्वक ताल-मेल बिठा पाती हैं क्योंकि वह हमेशा अपनी साड़ी के पल्लू में अपने परिवेश को गांठ बांधकर रखती हैं । अपनी संस्कृति और परिवेश को बचाये रखने की जीवटता में यदि कोई झंडाबरदार हैं तो वह मां ही हैं।

कहानियों का नदी की तरह कोई मुहाना नहीं होता ना ही सितारों की तरह उनका कोई आसमान।एक सजग दृष्टि और कानों की एकाग्रता किसी भी विषयवस्तु को कहानियों का चोला पहना देती हैं।

पलायन, बाढ या भूकंप के कारण लोग अपना घर छोड़कर कुछ अरसे के लिए बाहर ज़रुर चले जाते हैं किंतु आफत कम होते ही वापस अपने घर-परिवेश में आ जाते हैं।किंतु स्त्रियों के संदर्भ में ऐसा विरल ही होता है। वह पलायन नहीं करती हैं किसी भी हारी-बीमारी और विपदा में। उन्हें तो पेड़ की तरह फलने-फूलने के लिए उनकी जड़ों को एक जगह से खोदकर दूसरी जगह पर विस्थापित कर दिया जाता है । यद्यपि,अपनी मूल जगह से जहां कि उनकी जड़ों को मनमाफ़िक खाद-पानी मिल रहा था,मुश्क़िल होता है उनके लिए वह सब छोड़कर दूसरी ज़मीन पर जड़ें जमाकर पुनः हरा-भरा होना। किंतु फिर भी उन्हें जन्म से मिले संस्कार और सीख का परिणाम है कि अपने पैरों को नयी ज़मीन में गड़ाने की उनकी पुरज़ोर कोशिश स्त्रियों को एक स्थायी रिहायश दे देती है। जिसमें कि वह अपने पुराने व नये परिवेश को बहुत सहेजकर व संभाल कर रखती हैं । स्त्री का सबसे उच्च कोटि का स्वरुप मां है वह भी तो आदी हैं जन्मजात उस परिवेश की जहां दादी,नानी,काकी,ताई सब विस्थापित हुई हैं परंपरावश, और पुर्नस्थापित होकर भी वह रच-बस जाती हैं नये घर के नये चलन में।

मां विस्थापन की क्रिया में शायद पूर्णरूप से इसलिए भी सफलतापूर्वक ताल-मेल बिठा पाती हैं क्योंकि वह हमेशा अपनी साड़ी के पल्लू में अपने परिवेश को गांठ बांधकर रखती हैं । अपनी संस्कृति और परिवेश को बचाये रखने की जीवटता में यदि कोई झंडाबरदार हैं तो वह मां ही हैं।

मां पेड़ से ज़्यादा मज़बूत होती हैं तभी तो वह एक स्थान से उखड़कर खुशी-खुशी दूसरी जगह उग कर हरहराने लगती हैं।

मां के अंतर्मन को मैंने अधिकांशतः फोन पर ही जाना क्योंकि शादी से पहले मां को एकाग्रता से सुनने की ना ही मुझमें समझ थी,ना ही समय मिला और मां को भी कहां हमें कुछ सुनाने की फ़ुर्सत रही, वह अपने घर के कामों, मेहमानों और हमें संभालने में व्यस्त रहतीं और हम अपनी दुनिया में व्यस्त रहते।आज महसूस करती हूं मैं कि मां को अब फोन पर मैं बड़ी एकाग्रता और कौतुहलता से सुनने लगी हूं।अब स्वयं भी मां बन गयी हूं ना ! एक मां को दूसरी मां का जीवन ज़्यादा समझ आने लगा है अब शायद।

वैसे इस परिपक्व उम्र की भुलभुलैया में मां से फोन पर बात करना, एकाग्रता और याददाश्त को दुरूस्त बनाये रखने का अच्छा -खासा अभ्यास है। क्योंकि जिसमें हमें रूचि होती है उसे हम बहुत ध्यानपूर्वक सुनते है।मां से रुचिकर तो कुछ भी नहीं है ना?? दुनिया में।मां के साथ एकाग्रता की नीरवता में यह मन‌ ही है जो स्मृतियों के खेत में न जाने कहां-कहां कुलांचे मार आता है। मेरे लिए तो, क्या कहूं? मां खजाना हैं मुझे अपार देने का। मां जब मुझे अपनी स्मृतियों के अनुभव व आपबीती बता रही होती हैं । इन्हीं स्मृतियों के विस्तृत भूखंडों से कहानियां,कवितायें , संस्मरण टूट-टूटकर मेरी झोली में आ गिरते हैं, कभी-कभी उनके जीवन के लिफ़ाफे में कैद मज़मून का रहस्योद्घाटन भी हो जाता है।

कल से मां ने फोन नहीं उठाया तो चिंता होने लगी थी।

आज दोपहर में मां का फोन आया तो मैंने तपाक से मां को पूछा,मां कल से तुम फोन क्यों नहीं उठा रही हो?

लेकिन मैंने तो सोचा,तुमने ही कल से मुझे फोन नहीं किया है ।शायद समय नहीं मिला होगा तुम्हें मां ने कहा, ओह!

तबीयत कैसी है अब मां तुम्हारी ?

अब कुछ ठीक है ।

मां ने कहा, क्या करूं बेटा?फोन न जाने कैसे साइलेंट पर हो जाता है,और मुझे पता ही नहीं चलता है।

मां कहने लगीं,”आजकल ठेलियों पर तरह-तरह के आम सजे हुए है,”मेरा आम खाने के लिए बहुत मन ललचाता है,”

मैंने सख्ती से कहा,मां तुम आम कैसे खा सकती हो? तुम्हें मधुमेह है, कल ही तो डाक्टर को दिखाकर आये हैं।तुम्हें अभी मीठे पर और नियंत्रण करने के लिए कहा गया है।

सो तो है बेटा, वैसे भी कहां खाती हूं मैं मीठा ? निश्चिंत रहो।

मां मैं भी आम नहीं खा रही हूं।

मेरे चेहरे पर आम खाने से फुंसियां निकल रही हैं।

अच्छा! आम खाने के बाद दूध पिया कर बेटा।

हमारे ज़माने में कहते थे कि आम खाने के बाद दूध पीना चाहिए,आम गर्मी नहीं दिखाता है।

हां आम खाओ!उसके बाद दूध पियो!

मोटी नहीं हो जाऊंगी ? मैंने हंसते हुए कहा।

आहा !

क्या याद दिलाई तूने मुझे अपने मायके की,

मेरे मायके में बम्बई,मालदे ,दूधी आम,खैरण आम (खैरण जगह का नाम है जहां ये आम का पेड़ खेत के बीच में लगा हुआ था।)रेतण का आम,दुबलड़खोली का आम,बक्रवाली आम बंदर आम,मथी रियार के आम,मां क्या तुम्हारे आम के बगीचे थे?मैंने आश्चर्य से पूछा।

नहीं बेटा, आम के पेड़ सभी के खेतों में होते थे और उन पर सभी का अधिकार होता था। कोई भी तोड़ के खा लेता था।

किसी को भी कोई रोक-टोक नहीं थी किसी भी पेड़ से आम खाने की।

मां ने फिर आगे कहा, मेरे पिताजी यानि कि तेरे नानाजी को पेड़ पर चढ़ने का अच्छा अभ्यास था, इसीलिए वही पेड़ पर चढ़कर आम तोड़ते थे।

आम तोड़ने का भी एक विशिष्ट प्रयोजन था। इन्हीं छोटे-छोटे अवसरों के बहाने गांव वालों के जीवन में हर्ष और उल्लास था।हम सभी आम भर-भर कर लाने के लिए ,बड़े-बड़े थैले लेकर मां-पिताजी के साथ चले जाया करते थे।आम तुड़ान का मतलब सारे दिन की व्यस्तता,

“पिताजी पेड़ को हिला-हिला कर ज़मीन पर आम झाड़ा करते थे।”

मां जमीन पर गिरने से आम टूटते नहीं थे क्या?

नहीं बेटा,कुछ एक टूटते थे बस ज़्यादा नहीं।

और हां! कुछ आम जो हाथ की पहुंच तक होते थे,पिताजी उन्हें सीधे नीचे खड़े हुए किसी भी व्यक्ति के हाथ में दे दिया करते थे। जिन्हें हथौड़ी आम कहा जाता था और उनको सिर्फ़ आम तोड़ने वाले के लिए ही रखा जाता था।

अरे वाह ! हथौड़ी आम!

मां ये तो कुछ अलहदा और नयी परंपरा का जन्म हुआ हैं गांव में। हथौड़ी आम की परंपरा मैंने पहले कभी नहीं सुना..

यही विशद और सरल परंपरायें तो संस्कृतियों को धनाढ्य बनाती हैं।

तुम्हें क्या पता सुनीता?

हमने कैसा समृद्धशाली जीवन जिया है।घर में घी,दूध,मक्खन की कोई कमी नहीं थी।अनाज-भंडार भरे रहते थे।

हमारे यहां खेतों की मेड़ पर मुंगरी(मक्का)आलू,प्याज की ढेरियां औंधे-मुंह पड़ी होती थीं जिन्हें व्यापारी घोड़े की पीठ में लादकर शहर बेचने के लिए ले जाया करते थे।

केले की भी बहुत अच्छी फसल होती थी हमारे यहां!

पता है हम केले को घी में मसलकर रोटी के साथ खाया करते थे।

अरे मां! क्या कह रही हो? मैंने हंसते हुए कहा,

ये भी कोई स्वाद हुआ?

घी बहुत होता था आपके मायके में इसका मतलब ये तो नहीं कि किसी भी चीज के साथ घी का घालमेल कर दिया जाये।

मां हंसते हुए बोलीं, और तो सुनो!

खीर में कभी घी मिलाकर खाओगी तो उंगलियां चाटती रह जाओगी।

मैंने फिर हंसते हुए कहा, ओहो मां ! ये क्या अजीब सा स्वाद बता रही हो तुम?

ख़ैर तुम कह रही हो तो घी में रली-मिली हुई खीर वास्तव में स्वादिष्ट ही होती होगी।

बेटा हमारे मां-बाप के पास रुपये पैसे भले ही नहीं थे किंतु घर में राशन-पानी, खाने-पीने की कोई कमी नहीं थी। जीवन समृद्ध और खुशहाल था।

फोन पर एक नीरवता छा गयी थोड़ी देर के लिए, फिर मां ने एक लंबी उच्छास लेकर कहा, मानो अपने पुराने स्वर्णिम दिनों में डूब गयी हों।

फिर थोड़ा रुककर उन्होंने संवाद शुरु किया,

तुम्हें पता है ? किशोरावस्था में मेरे बाल बहुत लंबे और घने थेऔर इतने भारी कि मेरे कान मुड़ चले थे,मां मेरे बालों का बहुत लाड करती थीं।उस ज़माने में चांदी की किलिप चला करती थी।पिताजी एक दिन जब शहर जा रहे थे नया गुड़ लेने और दूसरे सौदा-सुलुफ़ के लिए, मां ने उन्हें मेरे लिए चांदी की किलिप लाने को भी कहा। पिताजी मेरे लिए चांदी की किलिप क्यों नहीं लाते भला? बहुत ही सुन्दर किलिप लाये थे पिता मेरे लिए।

चांदी की किलिप? मैंने विस्मित एवं हर्ष मिश्रित भाव से पूछा,

कितनी ख़ूबसूरत होती होंगी ना चांदी की किलिप।

किलिप ही नहीं, मेरे पास चांदी की सात जोड़ी पायजेब एक गुलबंद,चवन्नीहार और एक ख़ूबसूरत शीशफूल भी।

क्या चांदी का शीशफूल?

मैंने अति उत्साहित होकर कहा।

लेकिन मां कहां गया सब?

अब तो कुछ भी नहीं है आपके पास?

हां ! अब तो कुछ नहीं बचा मां ने कहा।

बीते वक्त के साथ समलौंड़(धरोहर) या तो नया रंग-रूप ले लेती हैं या फिर याद ही नहीं रहता है स्मृतियों में भी उनका बिछुड़ना।

हमारे ज़माने में व्यापारी गांवों में फेरी लगाते थे। चांदी के बदले में पीतल के बर्तन दे दिया करते थे या पीतल के बर्तन के बदले चांदी ले जाया करते थे।इसी अदल-बदल के फेर में चांदी की पायजेब और किलिप न जाने कहां चले गये,इस बीते समय के पड़ाव पर अब मुझे कुछ याद नहीं है।

हां!किंतु शीशफूल को मैं कभी इधर-उधर नहीं करती,

यदि, यदि क्या मां?

यदि शीशफूल मेरा चोरी न हुआ होता।

ओह मेरी प्यारी मां!ऐसा कैसे हुआ?

मां-पिताजी मेरे घने लंबे बालों का बहुत दुलार किया करते थे,मां कि ख़्वाहिश थी की मैं अपनी बेटी को शादी में उपहारस्वरूप शीशफूल दूंगी,पिताजी ने मां की ख़्वाहिश झट से पूरी भी कर दी।पिताजी बहुत सुंदर बड़ा सा चांदी का फूल मेरे लिए ले आये।मां ने मेरे बालों पर शीशफूल लगाया तो मां के अनुसार मुझ पर शीशफूल बहुत फब रहा था।

ख़ैर अठारह वर्ष की उम्र में मेरा लगन जुड़ा। मां-पिता ने अपनी हैसियत के अनुसार मेरा लगन किया।

जिस घर में मैं ब्याही गयी थी वहां बड़ा परिवार था। तुम्हारी दादी ने मेरे विवाह से पहले ही दादाजी को खो दिया था। चार-बहनों और दो भाई में सबसे बड़े थे तुम्हारे पिताजी और अब आठवीं मैं बढ़ गयी थी परिवार में।ज़िम्मेदारी बहुत थीं मुझ पर और तेरे पिताजी पर।घर दूध और घी बेचकर चलता था। किंतु तुम्हारे पिता की अच्छी सरकारी नौकरी थी तो परिवार का भरण-पोषण ठीक-ठाक ही हो रहा था।

ख़ैर! जैसे मैं अपने नये घर में आकर बीतते समय के साथ शीशफूल को भूली वैसे ही बात करते-करते मैं तुम्हें शीशफूल के बारे में आगे बताना भूल गयी हूं।मेरे विवाह पर मुझे शीशफूल पहनने की उत्कंठा थी और सबसे ज़्यादा इस बात का उलार और उत्सुकता कि मैं शीशफूल बालों पर लगाकर कैसी दिखूंगी?

मुझे तैयार किया गया सब आभूषण पहनाये गये किंतु शीशफूल नहीं पहनाया गया।शादी की रंग-दंग में शीशफूल पहने का हर्ष मुझसे बिसर गया।जब ससुराल पहुंची तो शीशफूल न मिलने की कसक मेरे हृदय पर मानो कुंडली मारकर बैठ गयी। लेकिन उस पुराने ज़माने में सहज जीवन और रिश्तों में तदात्मयता के साथ-साथ बड़ों को सम्मान देने की प्रवृत्ति इतनी प्रगाढ थी कि मेरे मुंह से कुछ भी नहीं फूटा।बस बदलते समय की तीव्र-गति में जो धीमा पड़ गया था वह था शीशफूल। एक-एक कर ननदों का विवाह हुआ समय अंतराल कम होने से उनके लिए आभूषणों को जुटाना भी मुश्क़िल हो रहा था।जितना मुझसे हो पाया मैं अपने परिवार के एश्वर्य की वृद्धि हेतु अपने प्रयासों का पैबंद लगाती रही। एक-एक करके सात जोड़ी पायजेब में से चार जोड़ी निकल गयीं।तीन जो बची रह गयी थीं मुझे अब याद नहीं कहां-कहां मुझसे बिछुड गयीं।

जैसे-जैसे जीवन बदलता है जीने की परिभाषा और सलीका भी बदलता चला जाता है,हम उसी जीवन-शैली में जीने के अभ्यस्त हो जाते हैं। अब शीशफूल मुझसे कोसों दूर पीछे छूट गया मुझे आभास तक नहीं हुआ। तुम्हारी दादी के पोता देखने की चाह में मैं चार बेटियों और एक बेटे की मां बन गयी थी।तुम्हारे पिताजी की सरकारी नौकरी कुछ इस तरह की थी कि पांच बजे के बाद आफिस घर में स्थानांतरित हो जाता था।

उम्र बढ़ने के साथ-साथ मेरे बालों में चांदी चढ़ गयी थी और तुम्हारी बड़ी दीदी ने भी कालेज पास कर लिया था, इसी दौरान मेरी मां और पिताजी सालों बाद मेरे पास रहने आये।मां का हृदय मुझे देखकर व्यथित होता था क्योंकि काम और अपनी ज़िम्मेदारियों से मुझे मुक्ति ही नहीं मिलती थी।मां ने अपनी वृद्ध वयस में भी मेरे काम में मेरा हाथ बंटाना शुरु कर दिया था। कैसे देख पाती मां मुझे मेरा हमेशा व्यस्त और परेशान रहना? फिर क्या था मुझे भी थोड़ा समय मिलने लगा अपने माता-पिता के साथ समय बिताने का।जितने भी दिन वह मेरे साथ रहे शाम की चाय के साथ कभी मैं उनके लिए आलू-प्याज के पकोड़े ,कभी अरबी के पत्तों के पकोड़े (पतोड़,पत्यूड़)बनाती।और कभी सूजी का हलुआ बनाती। बहुत समय बाद जो माता-पिता मेरे घर पर आये थे। हम -पुराने समय के गांव- परिवार की बात करते,मैं मां से पूछती मां अलाना कैसा है ?फलाना कैसा है?कभी मां मेरे सिर पर रेचकर तेल लगाती,कभी मैं मां के सिर पर तेल की मालिश करती।

एक दिन यूं ही बातों-बातों में शीशफूल अतीत से वर्तमान में हमारे मुख से से उछल पड़ा।

मां ने कहा बेटी तुझे जो शीशफूल हमने दिया था,तूने संभालकर रखा हुआ है ना?

तेरे पिताजी बड़े लाड़ से तुम्हारे लिए लेकर आये थे,उसे संभालकर रखना। जानती हूं आज शीशफूल,चांदी के जेवर चलन में नहीं हैं किंतु प्राचीन धरोहर रूपक हैं बीती हुई संस्कृतियों और चैतन्य हैं समृद्ध कलाओं का।

मां अपने ही प्रवाह में बहने लगी,मैंने जब सुमति के हाथ तुझे शीशफूल पहनाने को दिया,एकटक उसकी आंखें उस सूरज से चमकते शीशफूल पर गड़ी रह गयी। ताई जी कितना ख़ूबसूरत है ये शीशफूल..!उसने फटी हुई आंखों और चौड़े हो गये मुंह से कहा। बेटा तेरी शादी में भी ऐसा ही शीशफूल मिलेगा तुझे,मैंने सुमति के सिर पर हाथ रखते हुए कहा।

मैं !

गोया मेरी नसों का सारा खून सूखकर मेरी ज़ुबां को शुष्क कर गया। शब्द आना-कानी करने लगे होंठों से बाहर निकलने के लिए। मेरे मनोभावों ने शब्दों की ढीठता के आगे समर्पण कर दिया। बस इतना ही कहकर होंठों को कष्ट दिया। जी, शीशफूल कहां मुझसे दूर हो सकता है?

हमेशा संभालकर रखूंगी मां! आप चिंता मत कीजिए।

आख़िर मां और पिता का उम्र के इस पड़ाव पर मैं कैसे हृदय तोड़ती, यह कहकर कि शीशफूल तो मुझ तक पहुंचा ही नहीं था। पुनः स्फूरित किया मैंने स्वयं को और बुदबुदायी..

मां शीशफूल मुझसे कभी दूर हुआ ही कहां था ?बस बीते वक्त की धूल पड़ गयी थी उस पर।

तुम्हारा शुक्रिया मां तुमने शीशफूल के ऊपर पड़ी धूल को हटाकर उसे फिर से चमका दिया।

अब कभी शीशफूल पर गर्द नहीं पड़ेगी।

हमेशा मेरे हृदय के आले में मणि की तरह चमकती रहेगी अपने मां-पिता की धरोहर बनकर।

मैं फोन पर मां को उनके विवाह पर नाना-नानी द्वारा शीशफूल उपहार स्वरूप दिये जाने की कहानी एकाग्रतापूर्वक सुन रही थी।

आज महसूस हुआ मुझे कितना समृद्ध होता है मां का सानिध्य..! फोन पर ही सही मुझे मां ने अपने माता-पिता की धरोहर को सहेजने,अपनी संस्कृतियों को अपने साथ हमेशा लेकर चलने और जीवन में परिस्थितियों के अनुरूप तदात्मयता बिठाने के असंख्य गुर दे दिये थे।

मां नि: शब्द हूं। शब्द नहीं हैं मेरे पास।

(सुनीता भट्ट पैन्यूली)

More in आलेख

Trending News

Follow Facebook Page

About Us

उत्तराखण्ड की ताज़ा खबरों से अवगत होने हेतु संवाद सूत्र से जुड़ें तथा अपने काव्य व लेखन आदि हमें भेजने के लिए दिये गए ईमेल पर संपर्क करें!

Email: [email protected]

AUTHOR DETAILS –

Name: Deepshikha Gusain
Address: 4 Canal Road, Kaulagarh, Dehradun, Uttarakhand, India, 248001
Phone: +91 94103 17522
Email: [email protected]