आलेख
स्वामी विवेकानंद की पुण्यतिथि पर विशेष।
“नीरज कृष्ण“
स्वामी विवेकानंद ऐसे सन्यासी हैं, जिन्होंने हिमालय की कंदराओं में जाकर स्वयं के मोक्ष के प्रयास नहीं किये बल्कि भारत के उत्थान के लिए अपना जीवन खपा दिया। विश्व धर्म सम्मेलन के मंच से दुनिया को भारत के स्व से परिचित कराने का सामथ्र्यं स्वामी विवेकानंद में ही था, क्योंकि विवेकानंद अपनी मातृभूमि भारत से असीम प्रेम जो स्वामी करते थे। भारत और उसकी उदात्त संस्कृति के प्रति उनको अनन्य श्रद्धा थी। समाज में ऐसे अनेक लोग जो या फिर अन्य महान आत्माओं के जीवन से प्रेरणा लेकर भारत की सेवा का संकल्प लेते हैं। रामजी की गिलहरी के भारत वे भी भारत निर्माण के पुनीत कार्य में अपना योगदान देना चाहते 老 । परन्तु भारत को जानते नहीं, इसलिए उनका गिलहरी योगदान भी ठीक दिशा में नहीं होता।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक, चिंतक एवं वर्तमान में सह-सरकार्यवाह डॉ. मनमोहन वैद्य अक्सर कहते हैं कि ह्यभारत को समझने के लिए चार बिंदुओं पर ध्यान देने की जरूरत है। सबसे पहले भारत को मानो, फिर भारत को जानो, उसके बाद भारत के जनो और सबसे आखिर में भारत को बनाओ। भारत के निर्माण में जो भी कोई अपना योगदान देना चाहता है, उसे पहले इन बातों को अपने जीवन में उतरना होगा। भारत को मानेंगे नहीं तो उसकी विरासत पर विश्वास और गौरव नहीं होगा। भारत को जानेंगे नहीं तो उसके लिए क्या करना है, आवश्यकता यह ध्यान ही नहीं • क्या करने आएगा। भारत के बनेंगे नहीं तो बाहरी मन से भारत को कैसे बना पाएंगे ? भारत को बनाना है तो भारत का भक्त बनना होगा। उसके प्रति अगाध श्रद्धा मन में उत्पन्न करनी होगी।
स्वामी विवेकानंद भारत के ऐसे ही बेटे थे, जो माता उनके एक-एक धूलि कण की चंदन की तरह माथे पर लपेटते थे। उनके लिए भारत का कंकर-कंकर शंकर था उन्होंने स्वयं कहा है- हापश्चिम में आने से पहले में भारत से केवल प्रेम करता था, परंतु अब (विदेश से लौटते समय) मुझे प्रतीत होता भारत की धूलि तक मेरे र है. भारत की हवा तक मेरे लिए पावन है, भारत लिए पवित्र अब मेरे लिए पुण्यभूमि है, तीर्थ स्थान है। भारत के बाहर जब स्वामी विवेकानद ने अपना महत्वपूर्ण समय बिताया तब उन्होंने दुनिया 1 की नजर से भारत नजर में को देखा। भारत के भारत को देखा, दुनिया की बनाई गई मिथ्या प्रतिमा खंड-खंड हो गई। भारत का अप्रतिम सौंदर्य उनके सामने प्रकट हुआ। दुनिया की संस्कृतियों के उथलेपन ने उन्हें सिन्धु सागर की अथाह गहराई दिखा दी। एक महान आत्मा ही लोकप्रियता और आकर्षण के सर्वोच्च शिखर पर बैठकर भी विनम्रता से अपनी गलती को स्वीकार कर सकती है।
स्वामी विवेकानंद लिखते हैं हम सभी भारत के पतन के बारे में काफी कुछ सुनते हैं। कभी में भी इस पर विश्वास करता था। मगर आज अनुभव की हद भूमि पर खड़े होकर दृष्टि को पूर्वाग्रहों से मुक्त करके और स्त्रोपरि अन्य देशों के अतिजित चित्रों को प्रत्यक्ष रूप से उचित प्रकाश तथा छ्याओं में देखकर में विनग्रता के साथ स्वीकार करता हूँ कि मैं में गलत था। हे आयों के पावन देश तू कभी पतित नहीं हुआ। राजदंड टूटते रहे और फेंके जाते रहे, शक्ति की गेंद एक हाथ से दूसरे में उछलती रही, पर भारत में दरबारों तथा राजाओं का प्रभाव सदा अल्प लोगों को ही छू सका उच्चतम से निम्नतम तक जनता की विशाल राशि अपनी अनिवार्य जीवनधारा का अनुसरण करने के लिए मुक्त रही है।
19वीं सदी के उत्तरकाल में भौतिकवाद, व्यक्तिवाद, •एकेश्वरवाद (ह्यमेरा भगवान् ही सच्चा है की मानसिकता जिसने लोगों को मत परिवर्तन करने के लिए बाध्य किया), अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए दूसरों का शोषण अपने चरम सीमा पर था ऐसा लगता था, मानो परस्परावलंबन, संवेदनशीलता और आध्यात्मिकता जैसे मूल्य अपना आधार खोते जा रहे थे।
भारतभूमि जिसने इनको अपने राष्ट्रीय जीवन में उतारा ● ऐसा लगने था कि इन सदियों पुराने मूल्यों पर था, लगा अविश्वास के कारण स्वयं गहरे संकट में है परन्तु, चुनौतियों से सामना करने का इस चिरंतन राष्ट्र का अपमन ही मार्ग रहा है। भारत की ऐसी पृष्ठभूमि पर, औरामकृष्ण परमहंस और उनके श्रेष्ठ शिष्य स्वामी विवेकानंद का प्रादुर्भाव हुआ भारत भ्रमण करके विवेकानंद को पता चला कि धर्म ही भारत की शक्ति और सम्पदा है। अपने देश के प्रति प्रेम होने पर भी विवेकानन्द ने उसको गलतियो को अनदेखा नहीं किया। लोगों की गरीबी, शिक्षा शिक्षा का अभाव और स्त्रियों की दुर्गात पर उनका ध्यान गया।
“विवेकानंद को समझने और आत्मसाध्य न करने का दंड आज सारा देश और समाज भोग रहा है। बुद्ध के बाद भारत लम्बे अन्तराल के बाद विवेकानन्द के रूप में एक व्यवहारिक चिन्तक मिला जिसने बार-बार कहा करोड़ों दलितों और गरीबों को केन्द्र में रख कर ही धर्म और राजनीति सर्व-हिताय हो सकती है। ये विज्ञान के महत्व को रास्ता सुझाते हैं। क समझते थे और धर्म तथा विज्ञान को परस्पर विरोधी नहीं बल्कि इनके समन्वय हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति को विज्ञान के साथ आगे बढ़ना होगा। उनकी धारणा थी कि भारत का कल्याण तभी होगा जब यह पश्चिम के विज्ञान का भौतिक ज्ञान का राजनीतिक संगठनों का टीम स्पिरिट का टीम वर्क का कौशल सीखे। उन्होंने अनेक बार कहा कि भारत को अगर दुनिया की चुनोती का सामना करना है तो आत्मश्रद्धा- सेल्फ कॉन्फिडेन्स पैदा करनी होगी और इसे बराबर बनाए रखना होगा। यह समझते थे कि आज संसार का विकास जिस रूप में | चुका है उसमें कोई भी समस्या स्थानीय स्तर पर, अर्थात हो केवल राष्ट्रीय स्तर पर हल नहीं की जा सकती है हम भारतीय एक बड़ी संस्कृति के उत्तराधिकारी है और हमारे पास पश्चिम को देने के लिए अध्यात्म का सन्देश है। जय अध्यात्म और विज्ञान साथ-साथ चलेंगे तो विश्व बन्धुत्व हो नहीं विश्व कल्याण का सपना पूरा होगा। यह सन्देश भारत तभी दे सकता है जब भूख और गरीबी के मारे हुए -करोड़ लोग बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के करोड़ों लिए ईमानदारी से से जुट जाएं।
दरिद्र वर्ग के लिए उनका चिन्तन भारतीय नव जागरण के सभी चिन्तकों से उन्हें अलग करता है, किसी भी चिन्तक के चिन्तन के केन्द्र में गरीब नहीं है। उन्होंने एक नया कॉन्सेप्ट दिया। उन्होंने कहा कि गरीबों के लिए तो रोटी ही ईश्वर है, भूखे पेट को धर्म का उपदेश देने से उसकी दुर्बलता और बढ़ेगी। उन्होंने अपने सन्यासियों से कहा कि इनकोटि-कोटि जागृत दरिद्र-नाययण की सेवा करो और हो जाओ। मोक्ष का यह नया मार्ग उन्होंने हमने उनकी बातों के विपरीत रास्ता पकड़ा। हर प्रकार के नशे को सुलभ बनाने का पक्का इन्तजाम करके युवकों को अपनी संस्कृति से ही अधिया बनाने का धतकरम किया जा रहा है। अपनी सांस्कृतिक विरासत से वंचित नशेड़ी गिरोह दुधमुही नि बच्चियों औरतों को खा चला रहे हैं। मैकाले ने शिक्षा के नाम पर हमें जो ममी सौंपी थी हमने उसे सजा-धजा कर अपने कों के कन्धों पर लाद दिया है। इस शिक्षा ने डरपोक, स्वार्थी तथा आत्महीन कायरों की अन्तहीन कतार लगा दी है। उन्होंने अंग्रेजों की शिक्षा प्रणाली को बदल कर भारत की गुरु-शिष्य वाली शिक्षा के लिए बार-बार आग्रह किया, किन्तु हमारे भाग्यविधाताओं ने इसी मैकाली शिक्षा को बनाए रखा क्योंकि उन्हें भी गैर-बराबरी और र गुलाम सोच वाले युवकों की की फौज से ही अपने स्वार्थ की पूर्ति का मौका सुलभ होता है। वह कहते थे कि पदेशलिखे और समाज तथा धर्म के मुखिया लोग बरसों से यहीं सोचते रहे कि लोटा भर पानी दाहिने हाथ में ले कर पिए कि बाए हाथ में कर पिए। हाथ चार बार धोए या पांच बार कुल्ला आठ बार करना चाहिए कि दस बार करना चाहिए। वे धर्म के नाम पर किए जा रहे पाखन्ड का विरोध करते हैं। उन्होंने कहा कि हमने धर्म को रसोई घर में घुसा दिया और भगवान भात की पतीली बन गया। हमने अपना मंत्र छुओ मत को बना लिया है। कुल मिला कर धर्म ने हमें दुर्बल बना दिया। विवेकानन्द ने धर्म की नई परिभाषा गढ़ी। उन्होंने बार-बार कहा कि जो कुछ खाते-पीते हो, आचरण करते हो, उससे जो ताकत ग्रहण करते हो, वो सब पवित्र है। यह परिभाषा उपनिषदों के आधार पर है और असाधारण रूप से उदार है।
विवेकानन्द ने देश और समाज में बदलाव के लिए युवकों से उम्मीद की थी। उनकी धारणा और मान्यता थी कि युवा शक्ति हो अपनी ऊर्जा से भारत में ऐसा बदलाव ला सकता कि देश दरिद्रता, अमीरी-गरीबी, जातीय भेद भाव, वंचितों और नारियों के प्रति असमानता से छुट पा लेगा लेकिन उनकी उम्मीद के साथ हम लोगों ने जो उदासीनता और बेगानापन दिखाया है उससे तो लगता है कि हमें उनका नाम तक लेने का अधिकार नहीं है। आज देश में सर्वाधिक आबादी युवा वर्ग की है किन्तु विवेकानन्द के समय जो समाज तथा देश में विसंगतियां थी, वे कम होने की जगह बढ़ी है।
उन्होंने कहा कि युगों से जनता को आत्मग्लानि का पाठ पढ़ाया गया है। उसे सिखाया गया है कि वह नगण्य है। संसार में सर्वत्र जनसाधारन को बताया गया है कि तुम मनुष्य नहीं हो। शताब्दियों तक वह इतना भीरु रहा है कि अब पशु-तुल्य हो गया है। कभी उसे अपने आत्मन का दर्शन दाझ जानने नहीं दो क गया। उसे आत्मन को पहचानने अधमाधम जीव में भी आत्मन का निवास है जो र है, अजन्मा है जिसे न शस्त्र छेद सकता अनश्वर है, न अग्नि जला सकती है, न वायु सुखा सकती है, जो अमर ह है, अनादि है, अनन्त उसी नियोकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी आत्मन को जानने दो।
हम उस धर्म के अन्वेषी है जो मनुष्य का उद्धार करे. हम सर्वत्र उस शिक्षा का प्रसार चाहते हैं जो मनुष्य को मुक्त व का हित करें ऐसे ही शास्त्र हम चाहते हैं। सत्य करे। मनुष्ठा काथ में लोह जो कुछ तुम्हें मन से, बुद्धि की कसोटी शरीर से निर्बल करे उसे विष के समान त्याग दो, उसमें जीवन नहीं यह मिथ्या है, सत्य ही ही नहीं सकता। सत्य । शक्ति देता है। सत्य ही शुचि है, सत्य ही परम ज्ञान है सत्य शक्तिकर होगा ही, कल्याणकर होगा ही, प्राणप्रद होगा होयह दैन्यकारक प्रमाद त्याग दो, शक्ति का वरण करोत कण-कण में हो तो सहज सत्य व्याप्त है झ तुम्हारे अस्तित्व जैसा ही सहज है वह उसे ग्रहण करो। मेरी परिकल्पना है, हमारे शास्त्रों का सत्य देशादेशान्तर मार में प्रचारित करने की योग्यता नवयुवकों को प्रदान करने वाले विद्यालय भारत में स्थापित हो मुझे और कुछ नहीं चाहिए साधन चाहिए, समर्थ, सजीव, हृदय से सच्चे नवयुवक मुझे दो, शेष सब आप ही प्रस्तुत हो जाएगा। हो तो संसार सौ ऐसे युवक होतो में क्रांति हो जाए। आत्मबल सर्वोपरि है, वह सर्वजयी है क्योंकि वह परमात्मा का अंश हे निस्संशय तेजस्वी आत्मा ही सर्वशक्तिमान है दिक्कत ये है कि दक्षिणपंथी हो या वामपंथी सभी इन मुद्दों पर ध्यान देने से कतराते। हैं, रही बात विवेकानंद का नाम लेकर दुकान रहे झंडाबरदारों की, तो वो सिर्फ चला रहे उतनी ही बातें सामने लाते हैं जिनसे उनकी दुकान जारी रहे। । उनके लिये विवेकानंद जि जागृत से का होता है और शिकागों वाले सम्मेलन के जिक्र पर खत्म शुरू हो जाता है।
हमारे नायक अब फिल्मी सितारे और अपराधी-माफिया है। हमारी संसद में अभियुक्त भी प्रवेश पा रहे हैं। औरतें हर पल डर कर र और अनहोनी के घटने से भयभीत गिन गिन सांसे ले रही है। गरीब जिन्दा रहने के लिए सड़कों, नालियों में पड़े जूठन को बटोर कर पेट भर रहा है। जब इस तरह भी जीना दूभर हो जाता है तो आत्महत्या कर लेता है। खाए अघाए लोग करोड़ों-अरबों के बंगलों में दरिद्रनारायण के लिए हाथों में सोमरस का गिलास थामें बतकही-बहस कर रहे हैं। ये चाहते थे कि भारत के भूख, गरीबी, अकाल और बेरोजगारी के मारे करोड़ों लोग बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए जी-जान से जुट जाए। लेकिन हमने उनके परम्परागत धन्धे उनके खेत छीन कर सबसिडी की भीख दे कर उन्हें पराजीबी बना दिया है।
नीरज कृष्ण