Connect with us

भारतीय समाज में आदिवासी महिलाओं की स्थिति…

आलेख

भारतीय समाज में आदिवासी महिलाओं की स्थिति…

आर्य भारत में जिस जनजाति के रूप में आए थे उसका स्वरूप ग्रामीण था केवल पुरुषों के इस समूह में एक भी स्त्री नहीं थी। नदी किनारे, जंगलों, पर्वतों, घाटियों में अपने पशुओं सहित ये निवास करने लगे और इन्होंने वहाँ की आदिवासी लड़कियों से शादी करके परिवार बसाए। उन्होंने आदिवासी पुरुषों को अपना गुलाम बनाया और पितृसत्तात्मक परंपरा का निर्वाह करने लगे। आदिवासी समाज बदलता चला गया।

भारत की पूरी आबादी का आठवां हिस्सा आदिवासी है। हर आठ भारतीय में एक व्यक्ति आदिवासी है। आदिवासी महिलाओं का सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और सामयिक पि रवेश में महत्त्व कहीं अधिक है। फिर भी शिक्षा के क्षेत्र में इनका प्रतिशत शून्य है। औरत चाहे महानगर या नगर की सभ्य, पढ़ी-लिखी जागरुक औरत हो या जंगलों में बसी, कबीलों में बंटी निरक्षर आदिवासी औरत…. पुरुष की सोच मैं कोई फर्क नहीं है।

आदिवासियों में और कई जनजातियों में आज भी मातृसत्ता ही है। सामाजिक सत्ता स्त्री के हाथों में ही है। इनका गोत्र भी माँ के नाम से ही चलता है। कमोबेश यह स्थिति पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में भी है। स्त्रियों का यहाँ वर्चस्व है और सा री संपत्ति पर बेटियों का अधिकार है फिर भी फैसलों के मामलों में परिवार मामा और पिता पर निर्भर रहते हैं। बाजार पर स्त्रियों का ही अधिपत्य रहता है। चूँकि महिलाएं श्रम से जुडी हुई हैं, इसलिए वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं और यही कारण है कि वे अपना निर्णय लेने के लिए भी आजाद हैं। अर्थ का तंत्र उनके हाथों में है इसलिए आर्थिक रूप से वे ही परिवार की धुरी हैं।

आदिवासी समाज में कुछ परंपराएँ औरतों के हित में भी हैं। उन्हें दहेज के लिए प्रताड़ित नहीं किया जाता शादी और तलाक को लेकर भी उनके अपने अधिकार हैं। वे मर्दों के साथ खेती, जंगल, पशुपालन आदि कामों में बराबरी का हिस्सा लेती है।अगर कोई स्त्री अपनी इच्छा से किसी से भी विवाह कर लेती है तो माता-पिता या परिवार उसका बहिष्कार नहीं करता। इसके साथ ही हमारे यहाँ दहेज जैसी भी कोई प्रथा नहीं है, बल्कि इसके विपरीत वर पक्ष एक किस्म का वधू मूल्य लड़की को देता है, जो कि जमीन या धन के रूप में हो सकता है। कोई भी स्त्री अगर अपने विवाह से सुखी नहीं है या रिश्ते में किसी प्रकार की कोई अनबन होती है तो वह उस रिश्ते को निभाने के लिए बाध्य भी नहीं की जाती। यह पुनर्विवाह करने के लिए भी आजाद है, जिसमें कि जो भी दूसरा पति होगा वो उस महिला का वधूमूल्य उसके पूर्व पति को लौटा देता है। यही वजह है कि यहाँ बेटी का जन्म कोई बोझ नहीं समझा जाता।

आदिवासियों में आज भी पति-पत्नी के बीच सम्बंध-विच्छेद होते हैं। मामूली बातों को लेकर पत्नी अपने पति को अलविदा कह देती है। बस उसे दावा बूंदी प्रथा के अनुसार अपना फैसला पंचों को बताना होता है। पंच पूर्व पति को विवाह में आए खर्च का भुगतान करवाकर एक बैठक में किसी फलदार वृक्ष की लकड़ी को दोनों पक्षों से तुड़वा देते हैं और मान लिया जाता है कि अब इनके बीच जिनके के बराबर भी रिश्ता नहीं रहा।

और पढ़ें  परिवार को बंधक बनाकर गहने व नकदी लूटी।

आदिवासी स्त्री दुबारा शादी तो कर सकती है पर बेहद सादे तरीके से जबकि पुरुष चाहे जितनी शादी करे धूमधाम से ही करता है। औरत के दुवारा शादी करने पर कुछ रीतिरिवाज बदल जाते हैं। पुरुषों के साथ ऐसा नहीं है औरतों का अपने पिता कि संपत्ति पर कोई कानूनी अधिकार नहीं है। उसके पैदा होते ही जमीन का एक टुकड़ा उसके नाम कर दिया जाता है। उसी से उसका भरण-पोषण और विवाह का खर्चा निकलता है। विवाह के बाद वह जमीन भाइयों के नाम कर दी जाती है। अगर भाई नहीं है तो रिश्ते के भाई वह जमीन ले लेते हैं। भारत में आदिवासियों के त्यौहार और धार्मिक परंपराएँ हिन्दू धर्म से अलहदा है। आदिवासी विवाह में साल वृक्ष से बनाया गया स्तंभ मंडप के द्वार पर सजाया जाता है। साल और मोहा वृक्षों की वेदी पर ही दूल्हा बैठता है। यह आवश्यक माना जाता है।

उड़ीसा के गंगम जिले में गोडापट्टी जाति में औरतों को बेचने की प्रथा है। भूख, लाचारी और आर्थिक संकट के समय आदिवासी अपनी औरतों को या तो बेच देते हैं या गिरवी रख देते हैं। उड़ीसा के अंदरूनी इलाकों जैसे फुलवनी आदि में बसे आदिवासी आज भी मुट्ठीभर चावल के लिए मोहताज हैं। आदिवासियों में पति की मृत्यु के पश्चात औरत अपने देवर से शादी कर सकती है। यदि देवर अविवाहित है तो उसे पहले किसी अन्य स्त्री से विवाह करना होता है तब वह अपनी विधवा भाभी से विवाह कर सकता है। दापुर के आदिवासी सरपंच की चौदह बीवियाँ हैं मुसीबत के समय वह अपनी पत्नी को बेच देता है। आदिवासी अपनी लड़कियों को रुपये के लालच में कभी-कभी ऐसे दलालों के हाथ बेच देते हैं जो उन्हें वेश्याचल तक पहुँचा देते हैं। कई लड़कियाँ योगिनी बनाकर मंदिरों में रखी जाती हैं यानी धार्मिक वेश्याएँ बन जाती हैं।

आदिवासी समाज में स्त्रियों को लांछित करना, उनका अपमान करना आम बात है ऐसा नहीं कि सारे आदिम समुदाय स्त्री की दशा को लेकर दूध के धुले हैं। ऊपरी हवा यानी भूत-प्रेत, जादू-टोना, देवात्मा का किसी व्यक्ति के शरीर में आ जाना जैसी कुप्रथाओं से संबंधित खबरें देखने-सुनने को मिलती रहती हैं। स्त्री की दशा को लेकर सबसे खतरनाक डायन प्रथा मानी जाती है। इस प्रथा को पूरी तरह आदिवासी समाज से जोड़ कर देखा जाने लगा है। भारत ही नहीं, इस प्रथा को वैश्विक संदर्भ में देखें तो ये तथ्य सामने आते हैं कि इसका अस्तित्व प्राचीन काल से संसार के अनेक भू-भागों में मिलता है।

भारत में शाकिनी, डाकिनी, चुड़ैल और डायन जैसी संज्ञाएं इस परंपरा को दी गईं। वात्स्यायन के कामसूत्र में शाकिनी का जिक्र मिलता है। भगवान शिव के पौराणिक संदर्भों में शाकिनी, डाकिनी, पिशाचिनी, भैरवी, चंडिका, जोगिनी आदि नाम शक्ति की उपासना से संबंधित हैं। बौद्ध और जैन ग्रंथों में भी शकुनिका के नाम से स्त्री संबंधी इस मिथक को स्थान दिया गया है।

और पढ़ें  पिंकी हत्याकांड का शातिर ईनामी हत्यारोपित गिरफ्तार।

भारत की अधिकतर आदिवासी भाषाओं में कोई स्त्री-सूचक गाली नहीं है। हालांकि आदिम समाजों में भी गालियां हैं, मगर उनके लिए दूसरे शब्द हैं। बाप बेटे जैसे परिवार के सदस्यों के बीच झगड़ा हो जाने पर जब गुस्सा फूटता है तो एक जना पूरी तरह चुप्पी साध लेता है या घर से निकल जाता है। मेरी आंखों से दूर हो जा या कि हामेरे सामने कभी नहीं आना जैसी प्रतिक्रिया व्यक्त कर देगा झारखंड की खड़िया भाषा में सबसे बुरी गाली है तुझे बाघ खा जाए। इसी तरह बस्तर में तुझे देवता उठा कर ले जाए। क्रोध के उग्रतम आवेश में मारपीट या कल जैसी घटनाएं भी हो सकती हैं, लेकिन स्त्री को लेकर गाली नहीं दी जाएगी।

आदिवासियों के समाज में औरतों को जो स्थिति पहले थी अब वह नहीं रह गई है। उन्हें नीची दृष्टि से देखा जाता है। संपत्ति पर उन्हें कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। धार्मिक मामलों में उन्हें बाहर रखा जाता है निर्णय लेने में भी उनकी कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं है आदिवासी आंदोलनों में औरतों की काफी सक्रिय भूमिका रही है लेकिन इसके बावजूद आदिवासी महिलाओं का कोई विशेष नेतृत्व नहीं रहा।

आदिवासी क्षेत्रों में सैनिकों ऍ पुलिस बल का दमन और आतंक दिनोंदिन बढ़ रहा है। अर्ध सैनिक बल के जवान छापे मारने के नाम पर नादान बच्चियों तक के गालों को जलती हुई सिगरेट से दाग देते हैं। उन्हें भद्दी गालियाँ देते हैं।उनके यौनागों से छेड़छाड़ करते हैं, बलात्कार की कोशिश करते हैं। ऐसे दमन और आतंक के क्षेत्रों की लड़कियाँ, औरतें जंगल जाने से घबराती हैं।

वैसे तो आदिवासी स्त्रियाँ सदियों से अपने प्रति हो रहे शोषण के खिलाफ लड़ रही हैं। अब गैर-सरकारी संस्थाएँ भी इन्हें सहयोग दे रही हैं। नारी जागरुकता आंचलिक इलाकों तक पहुँच गई है और इसका शंखनाद करने में वे पीछे नहीं हैं। उसने कुरीतियों के खिलाफ आंदोलन छेड़ा है जो धीरे-धीरे जंगल, पहाड़ तक पहुँचकर आदिवासियों के द्वार खटखटा रहा है। नई सोच और संस्कृति के प्रति आवाहन कर रहा है। दण्डकारण्य में कई स्त्रिया अपनी जान हथेली पर लेकर आदिवासी महिलाओं को संगठित कर उनका मार्ग प्रशस्त कर रही हैं। पुलिस और अर्ध सैनिक बलों के जवानों के अत्याचार के विरुद्ध कमर कस ली है आदिवासी महिलाओं ने। ये सूरज की वे किरणें हैं जो शबनम की बूंदों को मोती-सा चमकाने की जिद्द ठाने हैं।

आदिवासी समाज के लोग शमीले होते हैं, भोले होते हैं, उसका कारण है कि सरलता और सादगी आदिवासी समाज का अभिन्न अंग है वे मानते हैं कि कोई भी रीति-रिवाज मनुष्य से ऊपर या उससे बड़े नहीं हैं। वो भोले हैं, मूर्ख नहीं हैं। आदिवासी स्त्रियाँ प्रगतिशील हैं और निरंतर संघर्षरत हैं। इसका प्रमाण आप आदिवासी स्त्रियों के पर्यावरण संरक्षण से जुड़े बड़े आन्दोलनों में सहज ही देख सकते हैं। ऐसा भी नहीं है कि आदिवासी महिलाएं आज लिखना शुरू कर रही हैं, बल्कि 1930-31 से वे लिख रही हैं। उदाहरण के तौर पर आप रोज केरकेट्टा, ऐलिस एक्का या ग्रेस कुजूर का लेखन ले सकते हैं।

और पढ़ें  शासन ने तीन आईएएस समेत सात अधिकारियों के बदले पदभार।

झारखंड की आदिवासी संथाली कवयित्री निर्मला पुतुल की कविताओं में सचमुच नगाड़े पर पड़ती चोट का आर्तनाद है। उसकी कविता बिटिया मुर्म के लिए शंखनाद है जैसे- उठो कि अपने अंधेरे के खिलाफ उठो / उठो, अपने पीछे चल रही साजिश के खिलाफ / उठो कि तुम जहाँ हो वहाँ से उठो / जैसे तूफान से बवंडर उठता है / सोचो, तुम्हारे पसीने से पुष्ट हुए दाने एक दिन लौटते हैं। तुम्हारा मुंह चिढ़ाते तुम्हारी हो बस्ती की दुकानों पर / कैसा लगता है तुम्हें जब तुम्हारी ही चीजें तुम्हारी ही पहुँच से दूर होती दिखती हैं ?

स्व. कमला भसीन ने एक बार प्रेस को संबोधित करते हुए कहा था कि विश्व के परिदृश्य में सबसे ज्यादा पुरुष और महिलाओं में समानता आदिवासी समाज में है। वर्ष 1901 से लगातार महिलाओं की प्रतिशत में कमी आई है, परंतु आदिवासी समाज की स्थिति अच्छी रही है। आज भी महिलाओं को वह अधिकार नहीं मिला है जो उन्हें मिलना चाहिए। आज भी भ्रूण हत्या, महिलाओं का शोषण एवं प्रताड़ना जारी है और जबतक इन सभी की समाप्ति नहीं होती तबतक महिलाओं की आजादी पूर्ण नहीं हो सकती।

एक तरफ यह समझा जाता है कि आदिवासी स्त्रियाँ बड़े खुले विचार की होती हैं, वहीं दूसरी तरफ यह कहा जाता है कि आदिवासी पिछड़े हुए हैं और विकास नहीं चाहते। वे बेहद हिंसक प्रवृत्ति के होते हैं। यह एक समाज के बारे में हमारी दोहरी मानसिकता को दिखाता है जिसे हम अक्सर हिंसा कह देते या समझ लेते हैं, वह अपने संरक्षण के लिए भी तो हो सकता है। जमीन और जंगल पर उनका हक है जो पीढ़ियों से उसका संरक्षण कर रहे हैं गरीबी और अन्याय हमारे देश की पुरानी समस्या है।

सिनेमा में हमेशा उन्हें गरीब लाचार दिखाया जाता है, यहाँ तक कि मुख्यधारा के हिंदी साहित्य में भी अक्सर आदिवासी समाज का एक खास नकारात्मक चित्रण देखने को मिल जाता है और इन्हें आधार बनाकर आदिवासी समाज के बारे में जो धारणा बनती है ज्यादातर भ्रान्तिमय और गलत होती है। आदिवासी समाज की वर्तमान स्थिति अब सुधरने लगी है। वै जागरूकता की ओर अग्रसर हैं। वे शिक्षा के महत्व को समझ रहे हैं। अपनी विरासत को संभाले हुए आधुनिकता की ओर बढ़ रहे हैं। इनमें कई ऐसे हैं, जो अपने क्षेत्र से निकलकर शहरों में सम्मान की जिंदगी जी रहे हैं। मगर आज भी ये सरकार द्वारा उपेक्षा का व्यवहार झेल रहे हैं। इनके विकास में परियोजना आदि अवश्य होती हैं मगर इनका लाभ इन्हें नहीं मिलता है। यह फाइलों के मध्य ही दब कर रह जाती है। इतना सब होते हुए भी इनका अस्तित्व बना हुआ है क्योंकि इन्होंने लड़ना सीख लिया है।

नीरज कृष्ण
एडवोकेट पटना हाई कोर्ट
पटना (बिहार
)

Continue Reading
You may also like...
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.

More in आलेख

Trending News

Follow Facebook Page

About Us

उत्तराखण्ड की ताज़ा खबरों से अवगत होने हेतु संवाद सूत्र से जुड़ें तथा अपने काव्य व लेखन आदि हमें भेजने के लिए दिये गए ईमेल पर संपर्क करें!

Email: [email protected]

AUTHOR DETAILS –

Name: Deepshikha Gusain
Address: 4 Canal Road, Kaulagarh, Dehradun, Uttarakhand, India, 248001
Phone: +91 94103 17522
Email: [email protected]