आलेख
अनमोल_भेंट
लघु कथा (भाग-1)
“राजीव नयन पाण्डेय“
जेठ की दोहरी में गर्मी की बढती तपन को देखते हुऐ काॅलेज अचानक बंद किये जाने की खबर सुन कर हर कोई खुश था .कि चलो भई पढ़ाई व क्लास से कुछ दिन तो छुट्टी मिली।..पर निलोफर ये खबर पढ कर उदास सी हो गयी थी..क्योकि अब उसका काॅलेज जाना जो छूट रहा था..जिसके बहाने नीलांश यानी नील से मिलने का मौका जो मिल जाता था।
हाॅलाकि न नील ने कभी खुल कर बात कि और न ही कभी नीलोफर यानी नीलू ने। दोनो बस दुर से एक दुसरे को देख कर ही खुश जाते थे……….. जैसे छोटे बच्चे खुले आकाश में चंदा_मामा को देखकर खुश होते है . और वो खुशी जिसे शब्दो में बयाॅ करना मुश्किल होता है..और ये वही महसूस कर सकता है जो इस मझधार से गुजर रहा हो।
काॅलेज से छुट्टी होने का मतलब था गाॅव वापस जाना ..जहाॅ न तो बिजली कि सुविधा और न ही टेलिफोन की सुविथा। पहाड की तलहटी मे बसा गाॅव अपनी प्राकृतिक खुबसूरती के लिए भले ही पर्यटको के बीच मशहूर हो..पर नीलू यानि नीलोफर का मन कहाॅ लगने वाला था .नीलू को तो अब “जो तन लागे; वो तन जाने” की व्याधि लग चुकी थी। वो चाहती थी कि, हाॅस्टल से गाॅव जाने से पहले ..बस एक बार निलांश यानी नील से मिल ले .उसको कुछ कह सके .. वो अगर कुछ कहे तो वो सुन सके. .।
इसी उधेड़ बुन में अचानक हास्टल वार्डन की तेज कदमो की आवाज सुनाई दी ..नीलू माने गहरी नींद से जाग गयी है… “हैलो मैम; हैलो, कैसी हो नीलू; कब की बस है गाॅव जाने कि ?..कोई साथ जा रहा है या अकेले सफर कर लोगी ? वापसी कब होगी..।
. हाॅस्टल वार्डन मानो सारे सवाल रट के आई हो., नीलू बस जी मैम…जी मैम ओके मैम .. से आगे कुछ कह ही नही पा रही थी, क्यो कि ध्यान तो नील में था…किसी तरह से नीलू मैम से पीछा छुढाया..यह कह कर कि “मैम पैकिंग करना है.”
नील भी चाहता था कि वो भी नीलू के जाने से पहले एक बार बस पल भर के लिए ही सही .देख ले। वैसे तो नील ने कभी मन की बात नहीं बताई ..पर जब कभी भी वो नीलू के आस-पास किसी भी लड़के को देखता तो ..उसे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता. .उसे न जाने क्यो चिढन लगती…यह जानते हुऐ भी कि नीलू से कोई भी दोस्ती नही .ना एक जाति ना एक धर्म.फिर भी।
नीलू मन ही मन सोच ली कि वो जाने से पहले एक बार नील से जरूर मिलेगी.. पर मिलेगी तो वो उसे गिफ्ट क्या देगी ?…फिर कब मिलना हो..और मिलने से पहले कुछ न दे..तो याद कैसी रहेगी ..कि मिले थे ..। नीलू चाहती थी कि वो कुछ ऐसा गिफ्ट करे जो नील को हर पल याद दिलाती रहे..हर पल।
कुछ सोच कर नीलू ने अपना छोटा सा पर्श और लाईब्रेरी कार्ड उठाया.. कि वो अपने रूम पार्टनर को बिना बताये ही हाॅस्टल की सीढियों से जल्दी जल्दी उतरने लगी।
लाईब्रेरी में लगभग सन्नाटा ही था..सीढियाॅ जो कभी पढ़ाकू छात्र छातारोकी भीड से अटी रहती थी .. बस दो चार ही छात्र दिख रहे थे जो छुटियो से पहले किताबे वापस करना चाहते थे।
नीलू को मालूम था कि नील लाईब्रेरी मे ही होगा… क्योकि नीलू को भी एहसास हो चुका था कि वो भी चाहता है; वैसे ही जैसे वो चाहती है।
अलमारी की ओट से नील को देख नीलू की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. … पर वो नहीं चाहती थी कि बिना बात के कहानी बने … ।
सामने के टेबल पर बैठ वो चुपके से नील को देखनी लगी.. नील भी नीलू के महगें वाली खुश्बूदार सेंट (इत्र) को महसूस कर चुका था … पर आदतन गंभीर भाव से किताब के पन्ने अनयास पलटते हुऐ..चुपके चुपके नीलू को देखने लगा।
नीलू ने नील को देख …हल्की मुस्कुराहट से इधर-ऊधर देखते हुऐ .. किताबो के बीच से एक मुडे हुऐ कागज की पोटली.. की बढा दी। नील भी मानो इसी पल की प्रतिक्षा में हो..उसने भी किताब की ओट से ही वो पोटली ले ली।
नील ने जब तक पोटली खोली … नीलू बिन कुछ कहे बिन सुने जा चुकी थी ….पोटली किसी काॅपी से फटा हुआ कोरा पन्ना था. जिस पर कुछ लिखा हुआ तो नहीं था पर …उसके अंदर रूई का एक टुकडा था,..जिससे एक जानी पहचानी खुशबू आ रही थी।
नील समझ चुका था इस अनमोल भेंट की महत्ता का कि नीलू बिन बोले जो बोल गयी थी…वो शब्द यही थे कि “मेरे कोरे मन रूपी दिल के कागज पर जो भी लिखना तुम ही लिखना; और खुश्बू को हर पल महसूस करना . जो मेरे मौजूदगी का हर पल एहसास दिलाता रहेगा”।
तभी लाईब्रेरी में किसी छात्र के फोन की घंटी बजी…. “तु अपने दिल पे मेरा नाम पता लिख ले, जब याद मेरी आऐ तो चिट्ठी मुझे लिखना”..फोन की घंटी की धुन… सुन नील मन ही मन गीत की धुन में छुपे रहस्य को समझ रहा हो…. मानो दिल की तार के झंकार ताल से ताल मिल रहा हो…
क्रमशः……
(अगला भाग कल….)
“राजीव नयन पाण्डेय“