आलेख
मुफ्तखोरी का सामाजिक दृष्टिकोण क्या हैं.?
“देवेश आदमी”
मुफ्तखोरी का सामाजिक दृष्टिकोण क्या हैं? इसे समझने के लिए दक्षिण सभ्यता को समझना होगा। भारतीय उपमहाद्वीप में मुफ्त की सुविधाएं यदि न दिए जाएं तो आधी जनता यूं ही मर जाएगी। दुनियां की आधी आवादी हम से है और यहीं सब से अधिक भुखमरी गरीबी बेरोजगारी हैं जब कि सरकारें प्रयास कर रही हैं। अनेकों देश एक साथ आजाद हुए हैं जिस का अस्तित्व आज भी खतरे में हैं। भारत में मुफ्तखोरी ओर हरामखोर में फर्क महसूस न हो इस लिए राजनीतिक दलों द्वारा जनता को दी जाने वाली मुफ़्त की सुविधाओं को हरामखोर साबित कर दिया। जनता के दिलों में उस सुविधा के खिलाप भ्रांतियां फैला दी जिस के लिए जनता ने स्वराज मांगा था जिस के लिए अनेकों बलिदान हुए। जब कि यही सुविधाएं राजनीतिक व्यक्ति बड़े हक़ से ले रहे हैं। सोशलमीडिया अखबारों में मुफ्त की सुविधाओं को हर कोई नकार रहा हैं किंतु प्रत्यक्ष रूप से हर कोई मुफ्त का भोग लगाना चाहता हैं। मगर क्या यह वाकई में मुफ्तखोरी है, इसे समझने के लिए जरा इन आंकड़ों पर गौर कीजिए। हम बात सिर्फ दिल्ली की करते हैं जहां के लिए यह कहा जा रहा हैं कि दिल्ली की वर्तमान सरकार ने लोगों को अपाहिज बना दिया। तो आंकड़ें देखें। दिल्ली में 200 यूनिट बिजली मुफ्त देने में सरकार हर साल 1720 करोड़ रुपये खर्च करती है, पानी मुफ्त देने का खर्च 400 करोड़ रुपये सालाना है और महिलाओं को मुफ्त यात्रा कराने का खर्च 140 करोड़ रुपये है। यानी इस कथित मुफ्तखोरी का कुल बजट 2260 करोड़ रुपये है। यानी दो करोड़ की आबादी वाली दिल्ली के हर व्यक्ति को सरकार सिर्फ 1130 रुपये की मुफ्तखोरी करा रही है। और इस मुफ्तखोरी को कुछ इस तरह प्रचारित किया जा रहा है कि सारा खजाना लुटाया जा रहा है।
इसके बनिस्पत इस आंकड़े पर गौर कीजिए। एनडीए सरकार (मोदी जी की सरकार) ने अपने पहले कार्यकाल में कुल 6 लाख करोड़ की कर्जमाफी की थी। इसमें किसानों का कर्जा सिर्फ 43 हजार करोड़ था। शेष 5 लाख 57 हजार करोड़ पूंजीपतियों का कर्ज था। जो कि दिल्ली की जनता को मिलने वाले मुफ्त की सुविधाओं से 2 गुना अधिक हैं। इसके अलावा इसी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में कारपोरेट कम्पनियों का 4,30,000 करोड़ रुपये का टैक्स माफ कर दिया। इस तरह देखें तो देश के चंद उद्योगपति को सरकार ने लगभग दस लाख करोड़ का रिबेट दिया। क्या इसे हम मुफ्तखोरी में गिनते हैं। यह फ़िगर दिल्ली की जनता को मिलने वाले फ्री की सुविधाओं से 4 गुना अधिक हैं। सोचने वाली बात हैं कि राजनीतिक दलों द्वारा जनता को कैसे बेवकूफ बनाया जा रहा हैं।
देश के हर सांसद को हर महीने सरकार की तरफ से 2,70,000 रुपये की सुविधाएं दी जाती हैं। एक एमएलए चाहे वह किसी भी दल व राज्य का हो वह भी औसतन सवा दो लाख की सुविधा हर महीने पाता है। क्या हम इसे मुफ्तखोरी कहते हैं? जब कि राजनीतिक आजादी से पूर्व सेवाभाव के लिए होती थी। देश के मंत्रियों, सांसदों, विधायकों, अफसरों और दूसरे कई लोगों को शहर के प्राइम लोकेशन पर कई एकड़ में फैला बंगला मिलता है। इस बंगले में वह खेती करवाता है और कई लोग तो यह जमीन शादी के लिये किराए पर भी देते हैं। इसे क्या हम मुफ्तखोरी कहते हैं? यह पैसा हमारे टेक्स का हैं न किसी दल का न किसी व्यक्ति का। देश के सरकारी अधिकारी, नेता और कर्मचारी मिल कर अनुमानतः हर साल 70 हजार करोड़ का भ्रष्टाचार करते हैं, क्या इसे हम मुफ्तखोरी कहते हैं? हमारी मानसिकता इस कदर बनाई हुई हैं कि हम स्वयं को मिलने वाली सुविधाओं का बहिष्कार करते हैं। इतना हल्ला देश में फैले भ्रष्टाचार के खिलाप नही हो रहा जितना दिल्ली में मुफ्त की योजनाओं का हो रहा हैं।
जब नेता अधिकारी अपनी फ्री की सुविधाओं के लिए बहिष्कार नही कर रहे चुपचाप अपनी सैलरी बढाते है अपनी सुविधाओं के लिए सब नेता सदन में एकजुट हो जाते हैं। तो फिर हम आमलोगों को मिलने वाली चंद वाजिब सुविधाओं को क्यों मुफ्तखोरी कहते हैं। इसी तरह मनरेगा, खाद्य सब्सिडी, उर्वरकों की सब्सिडी और रसोई गैस की सब्सिडी को भी मुफ्तखोरी कहने चलन है। स्कूल और कॉलेजों में कम फीस वाली व्यवस्था को पिछले दिनों न जाने कितनी गालियां दी गईं। रेलवे टिकट पर सब्सिडी का उल्लेख कर देश के आम लोगों को अपमानित किया जाता है। जबकि यह हमारा ही तो पैसा है जिससे देश के लोगों को सुविधाएं मिलती हैं।
आप अगर किसी विकसित मुल्क की व्यवस्था पर गौर करें तो वहां आपको शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवहन जैसी व्यवस्था को सस्ता रखने के जरूरी सरकारी प्रयास नजर आएंगे। यह मुफ्तखोरी नहीं है, यह सिर्फ अवसर की समानता बहाल करने की कोशिश है। ताकि एक गरीब परिवार भी समान रूप से विकसित हो सके। मगर एक गरीब मुल्क होने के बावजूद हमने इस व्यवस्था को अपमानित करने का, खुद को अपमानित करने का एक नजरिया विकसित कर लिया है। जिस नजरिये को हम पर राजनीतिक दलों द्वारा थोपा गया हैं। जबकि उद्योगपति, नेताओं, सरकारी अफसरों को मिली सरकारी धन की लूट की छूट हमें अखरती नहीं है। हमारी व्यवस्था इसी द्वंद्व पर आधारित है कि हम गरीबों को सुविधा देने के नाम पर बिदकते हैं और सत्ता प्रभुत्वशाली लोगों को हर तरह की रियायत देती है। राजनीतिक पार्टियां नही चाहेगी कि जनता उन के समान बैठे इस लिए जनता को करदाता बना कर खुद हरामखोर बन जाएं। यह बात मैं किसी एक दल या व्यक्ति के लिए नही कह रहा हूँ मेरा यह नजरिया सभी दलों के हर नेता के लिए हैं।
अपने ही अधिकारों का बहिष्कार करना हमें कैसे आया किस ने यह सोच हमारे दिलों में डाली यह समझना जरूरी हैं। दरअसल यह कोई राजनीतिक विचार नहीं, यह मूलतः दक्षिणपंथी अर्थव्यवस्था का मुख्य विचार है। वह गरीबों को दी जाने वाली सब्सिडी का विरोध करती है और उसे चरणबद्ध तरीके से खत्म करने के रास्ते सुझाती है। जिस के खिलाप उसी गरीब को खड़ा किया जाता हैं जिस के विकास हेतु मुफ्त की सुविधाएं चलाई जाती हैं।बैंक खाते में सब्सिडी भी उसी विचार का हिस्सा है। गुरुचरण दास जैसे विचारक भारत मे इसके पैरोकार हैं। यह विचार गरीबों की सुविधाओं पर होने वाले व्यय को मुफ्तखोरी और उद्योग पर होने वाले सरकारी व्यय को उदारवाद कहती है। उदारवाद से जनता को आजतक कुछ नही मिला क्यों कि उद्योगपति किसी न किसी रास्ते बच जाता हैं यदि बहुत अधिक कर्ज होने पर विदेश भागता हैं अन्यथा राज्यसभा मेम्बर बन जाता हैं इस उदारवादी नीति का बोझ जनता के कांधों पर आजाता है। जिस की भरपाई वह हर गरीब करता हैं जो अपने लिए मुफ्त सुविधाओं का बहिष्कार करता हैं।
अगर आप इस देश के गरीब और मध्यम वर्ग नागरिकों में से एक हैं, तब भी आप आम लोगों की सुविधाओं पर खर्च होने वाले सरकारी पैसों को मुफ्तखोरी कहते हैं तो बात हास्यास्पद मालूम होती है। क्योंकि आंकड़े गवाह हैं कि आम लोगों के हित में देश का पैसा उतना खर्च नहीं हो रहा जितना होना चाहिये। यह पैसा राजनीतिक दलों व उद्योगपति पर खर्च हो रहा हैं जिस के उपभोक्ता हमें बनाया गया हैं। प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से कर का बहुत वडा हिस्सा आम जनता देती हैं और ऋण उद्योगों को मिल रहा हैं। पैसा उसी को मिलता हैं जिस के पास पैसा होता हैं और जो खाने के लिए मोताज हैं उस को मिलने वाली सुविधाओं का बहिष्कार हो रहा हैं। यह विचार तो आम जनता को ही करना होगा।
(लेखक के अपने विचारों पर आधारित यह लेख )
देवेश आदमी