Connect with us

कौन है देवी सरस्वती ?

आलेख

कौन है देवी सरस्वती ?

“प्रकृति की कल्याणकारी शक्तियों पर देवत्व आरोपित करने की हमारी सांस्कृतिक परंपरा के अनुरूप कालान्तर में ब्राह्मण ग्रंथों और पुराणों में सरस्वती नदी को देवी का दर्जा दिया गया।”

ध्रुव गुप्त

सरस्वती हिन्दू धर्म की तीन प्रमुख देवियों – लक्ष्मी, दुर्गा और सरस्वती में से एक हैं। लक्ष्मी जहां धन-वैभव-ऐश्वर्य की और दुर्गा शक्ति की देवी मानी जाती है, सरस्वती को विद्या और कलाओं की अधिष्ठात्री देवी का दर्ज़ा हासिल है। कुछ पुराण उन्हें ब्रह्मा की मानसपुत्री मानते हैं, लेकिन देवी भागवत के अनुसार वे ब्रह्मा की पत्नी हैं। सदियों से माघ शुक्ल पंचमी को देवी सरस्वती का दिन मानकर उनकी पूजा की परंपरा चली आ रही है। सरस्वती का यह पौराणिक सच है। वास्तविकता यह है कि सरस्वती प्राचीन और अब विलुप्त सरस्वती नदी का मानवीकरण मात्र है।

प्राचीन आर्य सभ्यता और संस्कृति का केंद्र उत्तर और उत्तर पश्चिम भारत हुआ करता था। आज की विलुप्त सरस्वती तब इस क्षेत्र की मुख्य नदी हुआ करती थी जो पहाड़ों से निकलकर अरब सागर में गिरती थी। भारतीय पुरातत्व परिषद् के अनुसार सरस्वती का उद्गम-स्थल उत्तरांचल में रूपण ग्लेशियर है जिसे अब सरस्वती ग्लेशियर कहा जाने लगा है। वह सदानीरा थी। ऋग्वेद में नदी के रूप में ही सरस्वती के प्रति श्रद्धा-निवेदन किया गया है। ऋग्वेद में उसका अन्नवती तथा उदकवती के रूप में भी वर्णन आया है। ऋग्वेद के नदी सूक्त के एक मंत्र में सरस्वती नदी को ‘यमुना के पूर्व’ और ‘सतलुज के पश्चिम’ में बहती हुई बताया गया है। प्रयाग के निकट आकर यह गंगा तथा यमुना में मिलकर त्रिवेणी बनाती थी। यजुर्वेद की वाजस्नेयी संहिता में उल्लेख है कि पांच नदियां अपने प्रवाह के साथ सरस्वती नदी में प्रविष्ट होती हैं। ये पांच नदियां पंजाब की सतलुज, रावी, व्यास, चेनाव और दृष्टावती हो सकती हैं। ‘वाल्मीकि रामायण: में भरत के कैकय देश से अयोध्या आने के क्रम में सरस्वती नदी पार करने का वर्णन है। मनुसंहिता के अनुसार सरस्वती और दृषद्वती के बीच का भूभाग ब्रह्मावर्त कहलाता था। किसी देवी के रूप में सरस्वती की वेदों में कोई चर्चा नहीं है। नदी का यह मानवीकरण परवर्ती ब्राह्मण ग्रंथों और पुराणों की देन है।

सरस्वती नदी के तट पर बसी सभ्यता को हड़प्पा सभ्यता या सिन्धु-सरस्वती सभ्यता कहा जाता है। इस सभ्यता की ढाई हजार बस्तियों में से पाकिस्तान में सिन्धु तट पर मात्र 265 बस्तियां हैं। शेष बस्तियां सरस्वती नदी के तट पर मिलती हैं। अभी तक हड़प्पा सभ्यता को सिर्फ सिन्धु नदी की देन माना जाता रहा था, लेकिन नये शोधों से सिद्ध हुआ है कि सरस्वती का सिन्धु सभ्यता के निर्माण में ज्यादा बड़ा योगदान था। वेदों के अनुसार आर्य-सभ्यता के सारे गढ़, नगर, व्यावसायिक केंद्र सरस्वती के तट पर ही अवस्थित थे। सरस्वती के रास्ते अरब सागर होकर आर्य व्यापारियों का दुनिया के दूसरे हिस्सों से समुद्र व्यापार होता था। उस युग में ऋषियों की तपोभूमि और आचार्यों के आश्रम तथा शिक्षा के केंद्र सरस्वती नदी के तट पर ही स्थित थे। वे आश्रम अध्यात्म, धर्म, कला, संगीत, चिकित्सा, विज्ञान, शिक्षा और अनुसंधान के केंद्र थे। वेदों, उपनिषदों और अनेक स्मृति-ग्रंथों की रचना उन्हीं आश्रमों में हुई थी। प्रकृति से प्रेरित संगीत की राग-रागनियां सरस्वती के तट पर ही उद्भुत हुईं। वैदिक काल में सरस्वती को परम पवित्र नदी माना जाता था क्योंकि उसके तट पर, उसके जल का सेवन करते हुए ऋषियों ने वेद तथा उपनिषद रचे औ‍र वैदिक ज्ञान का विस्तार किया। ऋग्वेद के एक सूक्त के अनुसार – ‘प्रवाहित होकर सरस्वती ने जलराशि ही उत्पन्न नहीं की, समस्त ज्ञानों का भी जागरण किया है।’ वैदिक भारत में सरस्वती को ज्ञान के लिए उर्वर अत्यंत पवित्र नदी माना जाता था।

हजारों साल पहले सरस्वती-क्षेत्र में हुई विनाश-लीला में इसके अधिकांश नगर, आश्रम और शिक्षा के केंद्र नष्ट हो गए थे। कुछ इतिहासकार इस विनाश लीला का कारण नदी में आई प्रलयंकारी बाढ़ मानते हैं। कई प्राचीन ग्रंथों में इस भयंकर जलप्रलय की चर्चा भी है। कुछ इतिहासकार इस सभ्यता के विनाश की वजह भयंकर सूखा बताते हैं। जैसा भी हो, सबकुछ नष्ट हो जाने के बाद आर्य सभ्यता धीरे-धीरे गंगा और यमुना के किनारों पर स्थानांतरित हो गई। इस पलायन में भी सैकड़ों साल लगे होंगे। कालांतर में सरस्वती तो अज्ञात कारणों से विलुप्त हो गई, लेकिन लोगों की धारणा है कि वह अब भी अंत:सलिला होकर बहती है। सरस्वती के तट से आर्यों के विराट पलायन के बाद भी जनमानस में सरस्वती की पवित्र स्मृतियां बची रहीं।

प्रकृति की कल्याणकारी शक्तियों पर देवत्व आरोपित करने की हमारी सांस्कृतिक परंपरा के अनुरूप कालान्तर में ब्राह्मण ग्रंथों और पुराणों में सरस्वती नदी को देवी का दर्जा दिया गया। धीरे-धीरे उनके गिर्द पुराणों ने असंख्य मिथक गढ़े। ऐसे असंख्य मिथकों का नतीजा यह हुआ कि सरस्वती धीरे-धीरे अनुभव और सम्मान की जगह कर्मकांड की वस्तु बनती चली गई। अब सरस्वती का वास्तविक रूप और भारतीय संस्कृति को उसके अवदानों की याद शायद ही किसी को होगी। अब वह मिट्टी-पत्थर की एक मूर्ति भर बची रह गई है जो अपने भक्तों के पूजा-पाठ से प्रसन्न होकर बुद्धि और कला के वरदान बांटती रहती है।

जैसा कि आम तौर पर होता है, प्रकृति की शक्तियों को सम्मान देने के लिए हम प्रतीक गढ़ते हैं और फिर उन प्रतीकों की ही पूजा करने लगते हैं। प्रतीक हमारे आराध्य बन बैठते हैं और वे तमाम चीज़ें विस्मृत हो जाती हैं जिनकी याद दिलाने के लिए वे प्रतीक गढ़े गए। स्त्रीत्व और मातृशक्ति की प्रतीक दुर्गा के साथ यही हुआ। प्रकृति के विराट रूपक के रूप में स्थापित गणेश के साथ यही हुआ। सरस्वती के साथ भी यही हुआ। तमाम मिथकों और कर्मकांडों की बात छोड़ दें तो हमारी सभ्यता और संस्कृति के निर्माण में सरस्वती नदी का विराट योगदान रहा है। सरस्वती-पूजा किसी काल्पनिक देवी को समर्पित कर्मकांड नही, हमारी सभ्यता-संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान, संगीत, धर्म-अध्यात्म के क्षेत्रों में विलुप्त सरस्वती नदी की भूमिका के प्रति हमारी कृतज्ञता की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है। यह बात हमें समझ आ जाय तो अपनी प्रकृति, पर्यावरण और नदियों को सम्मान और संरक्षण देने के कुछ जरूरी सबक भी हमारी जीवनचर्या में शामिल हो सकेंगे।

ध्रुव गुप्त
(पूर्व आईपीएस,
प्रसिद्ध कवि और साहित्यकार)
पटना (बिहार)

Continue Reading
You may also like...

More in आलेख

Trending News

Follow Facebook Page

About Us

उत्तराखण्ड की ताज़ा खबरों से अवगत होने हेतु संवाद सूत्र से जुड़ें तथा अपने काव्य व लेखन आदि हमें भेजने के लिए दिये गए ईमेल पर संपर्क करें!

Email: [email protected]

AUTHOR DETAILS –

Name: Deepshikha Gusain
Address: 4 Canal Road, Kaulagarh, Dehradun, Uttarakhand, India, 248001
Phone: +91 94103 17522
Email: [email protected]