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आखिर क्यों भूल गए मुस्कुराना….

आलेख

आखिर क्यों भूल गए मुस्कुराना….

विश्व हास्य दिवस

नीरज कृष्ण

जिम्मेदारियों की ऐसी हवा चली है
खुलकर जीना भूल गए हैं
खुद के लिए वक्त ही नहीं है
खिलखिलाकर हँसना भूल गए हैं

किसी दिवस को मनाने का क्या मकसद क्या है। वर्ष भर हम राष्ट्रिय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के तरह-तरह के दिवस मनाते रहते हैं, हर एक का अपना प्रयोजन है ऐसा दावा किया जाता है। लोग जन्मदिन मनाते हैं, मैं उसके पीछे का प्रयोजन समझ सकता हूं, कुछ यही बात दिवंगत आत्माओ से जुड़े दिवसों की भी है जिसमे हम देश एवं समाज के प्रति अपने समय में उनके द्वारा किये गये कार्यों का हम स्मरण करते हैं और उनका आभार मानते हुए अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं।

सामान्यतः कोई भी दिवस सिर्फ किसी ध्येय की याद दिलाने के लिए नहीं मनाये जाते हैं, परंतु कुछ दिवस ऐसे भी होते हैं जिनको मनाने के पीछे कोई ध्येय नियत रहता है। ये वे दिवस होते हैं जब हम वर्तमान वस्तुस्थिति का आकलन कर देखते हैं कि हम घोषित उद्येश्य की दिशा में कितना आगे बढ़े हैं, हमारी कमियां क्या रही हैं और अब आगे क्या करना है, इत्यादि। हम हर दिवस को जश्न मनाने के लिए नहीं बल्कि संकल्प लेने के लिए भी मानते हैं।

क्या आज हास्य दिवस के अवसर पर ईमानदारी से हमें मंथन/आत्मचिंतन नहीं करना होगा पैसा, पद, प्रतिष्ठा के पीछे भागते-भागते हम कहाँ आ गए कि आज हम मुस्कुराना भी भूल गए या कहूँ खास बिहारीपन अंदाज में कि हम ठठाना भी भूल गए?

आज के प्रगतिशील विज्ञान की प्रगति ने हमें काफी सुख सुविधाएं दी परन्तु इंसान आपस में इतनी दूरियाँ बना लिया कि आज परिवार विभक्त हो गए है, सब की खुशियाँ गायब सी हो गई है, आज हर किसी का चेहरा डरा-सहमा सा, व्यर्थ की उल्झनो मे उलझा हुआ, चिडचिडाता हुआ, चिंता की लकीरों वाला दिखाई देता है। आज सामाज के प्रत्येक व्यक्ति को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे, हँसना एक गंभीर अपराध हो गया है। आज की इन हालातों पर कभी कोई ध्यान दे रहा है कि चंद दशकों पहले जिस हंसी-ख़ुशी के माहौल और वातावरण में हमलोगों ने अपना बचपन जिया है, क्या हम वह बचपन, वह माहौल हम आज के बच्चो को दे पा रहे हैं? इन सारी समस्याओं की जड़ ‘एकल परिवार’ का प्रचलन नहीं, बल्कि हमारी “संवादहीनता” ही प्रमुख कारण है।

हास्य हमारे आपसी सम्बंधों का एक प्रतिबिम्ब भी है। हास्य हम सबके जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। न केवल यह हमारा मनोरंजन करता है, बल्कि आपसी सम्बंधों पर पड़ी उदासीनता की धूल को हटाकर उन्हें तरोताज़ा भी करता है। हास्य लोगों को पास लाने का एक सशक्त माध्यम है। यह सम्बंधों में जमी बर्फ़ को पिघलाता है तथा लोगों को एक-दूसरे के समीप लाता है। हास्य का उद्देश्य ही नकारात्मकता तथा निराशा को दूर कर वातावरण सकारात्मकता से भर देना है।

चार्ली चैपलिन ने अपनी पुस्तक में इस बात की चर्चा की है कि “जीवन तब भी सार्थक है अगर तुम सिर्फ मुस्करा सको”, यदि गंभीरतापूर्वक हम चैपलिन की बातों का मनन करे तो उन्होंने बहुत ही गंभीर बातों की तरफ हमारा ध्यान खींचा है।

मनुष्य के मुख पर मुस्कान सौभाग्य का चिन्ह है। हंसना मनुष्य की स्वाभाविक क्रिया है। विधाता की सृष्टि का कोई दूसरा प्राणी हंसता हुआ दिखाई नहीं देता। प्रसिद्ध चिंतक वायरन ने ठीक ही लिखा है- ‘जब भी संभव हो सदा हंसो, यह एक सस्ती दवा है, हंसना मानव जीवन का उज्जवल पहलू है।‘ पाश्चात्य तत्ववेत्ता स्टर्न ने तो यहां तक कहा है- ‘मुझे विश्वास है कि हर बार जब कोई व्यक्ति हंसता मुस्कुराता है तो वह उसके साथ ही अपने जीवन में वृद्धि करता है।‘

जीवन ने हमें हँसी के रूप में एक अद्भुत उपहार दिया है, लेकिन यह उपहार आजकल अधिकांश परिवारों में धूल फांक रहा है। बचपन तक खुशी और हंसी स्वाभाविक रूप से सभी को आती है। लेकिन जैसे-जैसे बच्चे किशोरावस्था में बढ़ते हैं और युवावस्था में सांसारिक सस्पेंस बढ़ने लगते हैं और हंसी की स्वाभाविकता से बाहर होने लगती है।

युवा चेहरों पर चमकने वाली हंसी बड़े होते-होते कहां गायब हो जाती है? यह हमेशा हमारे साथ क्यों नहीं रहता? हर तत्व को भरने के लिए जीवन में एक खाली जगह की जरूरत होती है और हंसी के साथ भी यही सच है। यदि किसी कली पर एक बड़ा पत्थर रख दिया जाए तो यह कल्पना करना व्यर्थ है कि वह कभी फूल बन जाएगी।इसके अलावा, एक बहुत ही नरम वस्तु भी जब एक भारी भार के नीचे रखी जाती है, तो कठोर और कठोर हो जाती है, जैसे कि गद्दे में भरी हुई कपास शुरू में काफी नरम होती है, लेकिन लगातार उपयोग से सपाट और कठोर हो जाती है।वैज्ञानिक रूप से, एक वस्तु तब नरम होती है जब उसके अणुओं के बीच पर्याप्त जगह होती है, जो उन्हें एक दूसरे के संबंध में स्थानांतरित करने की अनुमति देती है। हंसी के लिए भी यह काफी हद तक सही है।

हंसी का कोमलता, सरलता, सहजता, करुणा और संवेदनशीलता जैसे गुणों से घनिष्ठ संबंध है। जब तक ये गुण हममें रहते हैं, हँसी स्वाभाविक रूप से हमारे पास आती है।हालाँकि, जिस क्षण जटिलताएँ, तनाव और चिंताएँ हमारे जीवन में प्रवेश करती हैं, हमारे जीवन की स्वाभाविकता समाप्त हो जाती है।ये नकारात्मक भाव हमारे जीवन को असंवेदनशील बना देते हैं और उसकी सारी कोमलता कठोरता में बदल जाती है।

यदि हँसी केवल कुछ शारीरिक क्रियाओं जैसे होठों का कुछ इंच चौड़ा फैलाना या गले से कुछ आवाज़ें पैदा करना होता, तो यह बहुत मायने नहीं रखता। लेकिन ऐसा नहीं है। हंसी वास्तव में उन भावनाओं की अभिव्यक्ति है जो मन में विलीन हो जाती हैं और हमारे अंतर्मन को गुदगुदाने की क्षमता रखती हैं। कई यादें हमें हंसाने की क्षमता रखती हैं हास्य कविताएं, कहानियां, कार्टून और कॉमेडी सीरियल में कई अलग-अलग भाव होते हैं जो हमें हंसने पर मजबूर कर देते हैं। हँसी एक व्यक्ति के आंतरिक आनंद, मन की स्वतंत्रता, दिल की हर्षित धड़कनों और शरीर के हर रोम-रोम से निकलने वाली प्रशंसा का प्रतिनिधित्व करती है। यह प्रार्थना का एक रूप है जिसे हमारा अंतःकरण प्रकृति के लिए गाता है। यह उनके प्रति हमारी कृतज्ञता की एक काव्यात्मक अभिव्यक्ति है।

विज्ञान का प्रत्येक आविष्कार मनुष्य को अपने हाथों में जितना संभव हो उतना कम समय में पूरा करने में मदद करने के लिए प्रेरित होता है, वह अपनी पसंद के अनुसार अपने लिए पर्याप्त समय बचा सकता है। यह उसके आराम और खुशी के लिए समय के साथ बचा था, लेकिन आज हुआ यह है कि बेहतर जीवन के लिए समय बिताने के बजाय, वह तैनात और अधिक काम कर रहा है। परिणामस्वरूप अधिक कार्य करने के लिए वह अपनी चेतना में केवल कार्य संबंधी विचार, योजनाएं, और स्मृतियां ही समेट लेता है। हम काम से संबंधित गतिविधियों में इतने डूब जाते हैं कि हमारे पास किसी भी अन्य महत्वपूर्ण चीज के लिए समय नहीं होता है, परिणामस्वरूप, हंसी भी हमारे जीवन से कम हो जाती है और गायब हो जाती है।

मनुष्य के लिए बहुत खुशी सामाजिक मेलजोल से आती है- हमारे परिवारों के साथ आकस्मिक सैर, दोस्तों के साथ घूमना, काम के बाद सहयोगियों के साथ आराम करना और अजनबियों से दोस्ती करना। लेकिन आज की प्रौद्योगिकी-निर्भर, अति-प्रतिस्पर्धी दुनिया में, यह देखना आम है कि लोग मानवीय संबंधों पर अपने स्मार्टफ़ोन में खुद को दफनाने का विकल्प चुनते हैं, सामाजिक समारोहों को छोड़ देते हैं क्योंकि वे ‘उबाऊ’ हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हमारे पास कितनी कनेक्टिविटी है, यह व्यक्तिगत मानवीय संबंधों को प्रतिस्थापित नहीं कर सकता है, जो मिलने, याद दिलाने और हार्दिक हंसी साझा करने के बहुत सारे अवसर पैदा करते हैं। छुट्टियों में रिश्तेदारों से मिलने जाना या शादियों में पूरे दो-तीन दिन रुकना अब बीते दिनों की बात हो गई है।

जब हम दबावों और चिंताओं से रहित जीवन जीते हैं तो हम खुश होते हैं। वास्तव में इस मानव जीवन को सुखमय कैसे बनाया जाए, प्रारंभ से ही इसकी अधिकांश गतिविधियों के माध्यम से मानवता की मुख्य खोज रही है। आमतौर पर अपनाया जाने वाला दृष्टिकोण यह है कि खुश रहने के लिए मनुष्य को अधिक से अधिक खाली समय दिया जाना चाहिए। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इसने वास्तव में समय और मनुष्य के बीच एक रस्साकशी पैदा कर दी है। हम चिंता मुक्त जीवन जीने के लिए खाली समय का कम उपयोग करते हैं, और इसलिए, चिंता के लिए अधिक से अधिक अवसर पैदा करते हैं।

जीवन की सुंदरता, गुणवत्ता और संपूर्णता पूरी तरह इस बात पर निर्भर करती है कि हम जीवन के सभी अवयवों के बीच कितना संतुलन स्थापित कर पाते हैं और कितना अच्छा। और एक संतुलित जीवन जीने का तरीका जानना ही सच्चा है- जीने की कला। अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने और अपनी उच्च महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए, हम अपना ध्यान जीवन के अन्य सभी महत्वपूर्ण पहलुओं से हटा देते हैं। इस खोज में हम हंसी को भी पीछे छोड़ जाते हैं, जिसके बिना हमारा जीवन अधूरा है। यही वजह है कि बड़ी सफलता हासिल करने के बाद भी लोग अपने नैसर्गिक सुख और हंसी से कोसों दूर चले जाते हैं।

हँसी स्वाभाविक रूप से जीवन में आती है, लेकिन यह जीवन में तभी टिक सकती है जब व्यक्ति नीरस और कृत्रिम जीवन से दूर रहे। काम का बोझ ढोते हुए और कृत्रिमता में डूबा हुआ जीवन अगर यांत्रिक ढंग से जिया जाए तो वह अपना स्वाभाविक रस खो देता है। जीवन केवल वही नहीं है जो स्पष्ट है, इसमें बहुत कुछ है जो निहित है और फिर भी, यह हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। जो व्यक्ति जीवन के सभी आयामों को समझने की कोशिश करता है और उनमें से हर एक को विकसित करने का प्रयास करता है, वह जीवन की स्वाभाविकता को बनाए रखता है; और इसलिए उसके जीवन में हंसी के फूल हमेशा खिलते हैं।

यदि कोई व्यक्ति किसी भी प्रकार के दबाव में जीवन व्यतीत करता है तो निश्चित रूप से वह प्राकृतिक हंसी से वंचित रह जाएगा। हँसी केवल उस जीवन को सुशोभित करती है जो स्वतंत्र रूप से जीया जाता है। काम की अधिकता और जिम्मेदारियों के दबाव के बावजूद, अगर हम अपने जीवन का आनंद लेना चाहते हैं तो हमें अपने जीवन में कुछ खाली जगह बनानी होगी ताकि हँसी को एक प्राकृतिक स्थान मिल सके और हमें खुशी का आशीर्वाद मिल सके।

हंसी के संबंध में यह सर्वमान्य सिद्धांत है कि मुस्कुराते हुए व्यक्ति के पास क्रोध, ईर्ष्या एवं प्रतिहिंसा नहीं आ सकती। प्रतिहिंसा की अग्नि को शांत करने वाली यह अनमोल औषधि है। हंसी का ही एक स्वरूप मुस्कान है। जॉर्ज बर्नार्ड शा के प्रेरक शब्दों में ‘हंसी की सुंदर पृष्ठभूमि पर जीवन ही जवानी के फूल खिलते हैं। जवानी को तरोताजा बनाए रखने के लिए आप भी खूब हंसिये।’

आज के अनेक विषम समस्याओं से ग्रसित भौतिकवादी जीवन में मधुर मुस्कान आपको शांति देगी। यह निश्चय ही हमारे कार्य-क्षमता में वृद्धि करेगी। हँसने में कृपणता न कर हँसी के सुमन खिलायें। प्रकृति का अनमोल उपहार मुस्कान का सदुपयोग कर जीवन को सार्थक बनाएं। अपने चारों और हास्यमय वातावरण बनायें। सात्विक हँसी मानव की बहुत बड़ी संपदा है। इसे प्राप्त करने का सभी को प्रयास करना चाहिए, इससे जीवन यात्रा मंगलमय बन सकेगी।

आज हम विकास की अंधी दौड़ में चहलकदमी करते-करते कहाँ आ गये हैं, यह मंथन की विषय है जब एक फोटोग्राफर को कहना पड़ता है कि जरा मुस्कुराइये, प्लीज। क्या आप कभी किसी छोटे से अबोध बच्चे को फोटो खींचते समय कहते हैं कि बेटा, मुस्कुराओ तो। आज महिलाएं जो विचित्र भाव-भंगिमाओं के साथ सेल्फी लेती हैं दरअसल वह मुस्कुराते हुए अपनी तस्वीर चाहती हैं पर नैसर्गिक हँसी और बनावटी हँसी में बहुत फर्क होता है। नैसर्गिक हँसी हमारे भीतर से आती है पर बनावटी तो…..कोशिशों के बाद भी नहीं। यह विडम्बना ही तो है जहाँ कहा जाता रहा है कि ‘बुद्ध मुस्कुरा रहे है’ और हम आज हास्य दिवस मना रहे हैं अपनी खोई हुई मुस्कुराहटों को पाने के लिए। मनुष्यता का इससे ज्यादा ह्रास और दूसरा कुछ हो भी नहीं सकता है।

हंसी बिना हमारे जीवन का श्रृंगार अधुरा है, इसलिए हँसते रहो और हंसाते रहो। एक अंग्रेजी कहावत है- लाफ़, वर्ल्ड विल लाफ विथ यू, / वीप, यू विल वीप अलोन अर्थात  हंसो, पूरी दुनिया तुम्हारे साथ हँसेगी / रोओ, तुम अकेले रोओगे।

दोस्तों, यकीनन जिस भी दिन से हम ‘अपने ऊपर हँसना सिख जायेंगे’ उस दिन के बाद न तो हमें कोई बीमारी होगी ….न अवसाद होगा और…… न ही समाज को ‘हास्य दिवस’ मानाने की आवश्यकता।

नीरज कृष्ण पटना (बिहार)

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