आलेख
“स्त्रियों की मुक्ति का पर्व”
“ध्रुव गुप्त“
आज छोटी दिवाली है। शास्त्रीय भाषा में इसे नरक चतुर्दशी या रूप चतुर्दशी कहा जाता है। आज के इस उत्सव की पृष्ठभूमि में यह पौराणिक कथा है कि प्राग्ज्योतिषपुर के शक्तिशाली असुर सम्राट नरकासुर ने देवराज इन्द्र को पराजित करने के बाद देवताओं तथा ऋषियों के घरों की सोलह हजार से ज्यादा कन्याओं का अपहरण कर उन्हें अपने रनिवास में रख लिया था। देवताओं की सम्मिलित शक्ति भी उसे पराजित नहीं कर सकी। नरकासुर को किसी देवता अथवा पुरूष से अजेय होने का वरदान प्राप्त था। उसे कोई स्त्री ही मार सकती थी। हताश देवता सहायता की याचना लेकर जब कृष्ण के पास पहुंचे तो उनकी दुर्दशा और कृष्ण की उलझन देखकर कृष्ण की एक पत्नी सत्यभामा सामने आई। कृष्ण के रनिवास की वह एकमात्र योद्धा थी जिसके पास कई-कई युद्धों में भाग लेने का अनुभव था। उन्होंने नरकासुर से युद्ध की चुनौती स्वीकार की और कृष्ण को सारथि बनाकर युद्ध में उतर गईं। भीषण संघर्ष के बाद उन्होंने नरकासुर को पराजित कर उसे मार डाला। नरकासुर के मरने के बाद उसके रनिवास में बंदी सभी स्त्रियों को मुक्त करा लिया गया। सत्यभामा और कृष्ण के द्वारका लौटने के बाद घर-घर दीये जलाकर स्त्रियों की मुक्ति का उत्सव मनाया गया।
एक परंपरा के तहत स्त्रियों की मुक्ति का उत्सव घर -घर में दीये जलाकर आज भी मनाया जाता है, मगर इसका अर्थ और सबक हम भूल चुके हैं। नरकासुर का प्रेत हमारे भीतर आज भी अट्टहास कर रहा है। उत्सव के साथ आज का दिन हमारे लिए खुद से यह सवाल पूछने का अवसर भी है कि क्या उस घटना के हजारों साल बाद भी हम स्त्रियों को अपने भीतर मौजूद वासना और पुरूष-अहंकार जैसे नरकासुरों की कैद से मुक्ति दिला पाए हैं ?
ध्रुव गुप्त
साहित्यकार,पूर्व आई पी एस अधिकारी,
पटना(बिहार)