आलेख
तुम मौन बने, युग मौन बना……….
“नीरज कृष्ण“
“हमारे देश में पिछले कुछ समय से नफरत की जो नई राजनीति शुरू हुई है, उसे आज का युवा ही खत्म कर सकता है। अगर हम आज के युवा को गांधी के आदर्शों का सही पाठ पढा पाए तो न केवल राजनीति के एक नए युग का सूत्रपात होगा बल्कि एक साफ-सुथरी राजनीति का माहौल भी तैयार होगा। हम गांधी से असहमत हो सकते हैं लेकिन गाली देने से गांधी की प्रासंगिकता कभी कम नहीं होगी।“
सोहनलाल द्विवेदी ने कहा था- तुम बोल उठे, युग बोल उठा, तुम मौन बने, युग मौन बना कुछ कर्म तुम्हारे संचित कर, युग कर्म जगा, युगधर्म तना। युग-परिवर्तक, युग-संस्थापक, युग संचालक, हे युगाधार! युग-निमार्ता, युग-मूर्ति ! तुम्हें, युग-युग तक युग का नमस्कार!
बपीके फिल्म का एक दृश्य है। अभिनेता आमिर खान गाजर खरीदने के लिए दुकानदार को गांधी जी के चित्र वाली कई तरह की सामग्री देता है। उस पर दुकानदार कहता है, “ई कबाड़ हमरी दुकान पर काठे लारे हो?” इस पर अभिनेता गांधी जी की छवि वाला पचास रुपये का नोट देता है। बदले में दुकानदार गाजर देता है। तब अभिनेता कहता है- “ई फोटु का वैल्यु सिरफ एक तरह का कागज पर है। बाकी सब कागज पर ई फोटु का बैल्यु जीरो बटा लूल है।’
पीके फिल्म का यह हृश्य हमारे आज के समाज पर एक जोरदार तमाचा है। अब सवाल यह उठता है कि क्या वास्तव में गांधी जी की वैल्यु करेंसी तक ही सीमित है या फिर उससे बढ़कर भी है?
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि महात्मा गांधी सत्य, और अहिंसा, धर्म व न्याय के सबसे बड़े पुजारी थे। रबींद्रनाथ टैगोर, आइंस्टीन, नेल्सन मंडेला, मार्टिन लुथर किंग, बराक ओबामा, दलाई लामा, जॉर्ज बनार्ड शो, आंग सान सू की ने इसी पुजारी के मार्गदर्शन का पालन सुख, समृद् व शातिर जीवन जीने का संदेश दिया है। यूं वो गांधीयाद का विरोध करने वालों ने जिनमें दुर्भागवश और किसी देश के लोग नहीं बल्कि अधिकांशतया: केवल भारतवासी ही शामिल हैं, ने गांधी के विचारों की प्रासंगिकता को तब भी महसूस नहीं किया था जबकि ये जीवित थे।
गांधी जी से असहमति के इसी उतावलेपन ने उनकी हत्या तो कर दी परन्तु आज उनके बिचारों से मतभेद रखने वाली उन्हीं शक्तियों को भली-भांति यह महसूस होने लगा है कि गांधी जी अपने विरोधियों के लिए दरअसल जीते जी उतने हानिकारक नहीं थे जितना कि हत्या के बाद साबित हो रहे हैं। और इसका कारण मात्र यही है कि जैसे-जैसे विश्व हिंसा, आर्थिक मंदी, भूखमरी, बेरोजगारी और द्वेष जैसी परिस्थितियों से मुँह की खा रहा है, वैसे-वैसे दुनिया को न केवल गांधी जी की याद आ रही है, बल्कि उन्हें आत्मसात करने की अनिवार्यता भी विचलित संसार को घुटने टेकने पर मजबूर कर रही है।
महात्मा गांधी करिश्माई ‘फकीर’ थे। उन्होंने शोषितों, पीडितों, गरीबों, पथभ्रष्टों के दुखों को अपना दुख माना। दूसरों को सीख देने से पहले स्वयं को भाईचारे, धार्मिक सद्भावना, अहिंसा के अनुयायी के रूप में स्थापित किया। कुछ कर गुजरने के लिए बाहुबल या जनबल की नहीं बल्कि हढ़ संकल्प की आवश्यकता पड़ती है।
गांधी का कहना था कि ‘बुरे विचार ही हिंसा है। सदविचार और सहिष्णुता ही अहिंसा है।” यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि आज युवा वर्ग गांधी के नाम का इस्तेमाल मजाक के तौर पर कर रहा है। एक अभियान के तहत सोशल मीडिया पर गांधी के संबंध में उल्टी-सीधी बातें उड़ाई जा रही हैं।
युवाओं के बीच गांधी के संबंध में सही तथ्यों को प्रचारित-प्रसारित करें ताकि इस षड्यंत्र का भंडाफोड़ हो सके। यह दुखद ही है कि हमारे देश का एक वर्ग तथा कुछ राजनेता यह सोचते हैं कि यदि आज का युवा वर्ग गांधी को समझने लगेगा तो उसका विध्वंसकारी गतिविधियों में इस्तेमाल करना कठिन हो जाएगा।
समाज पर साम्प्रदायिक सोच हावी हो रही है। युवा वर्ग आतंकवादी गतिविधियों की तरफ बढ़ रहा है। विकास की प्रक्रिया में गांवों की आत्मा नष्ट हो रही है। छोटी-छोटी बच्चियों से बलात्कार की घटनाओं में निरन्तर वृद्धि हो रही है । एक तरफ युवा वर्ग में अवसाद और आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ रही है तो दूसरी तरफ किसानों कौ आत्महत्याएं भी व्यवस्था पर सवाल खडे कर रही हैं। बेरोजगारी की समस्या भी मुंह बाए खड़ी है।
क्या ऐसी स्थिति में गांधी के अलावा कोई रास्ता नजर आता है? निश्चित रूप से ऐसी स्थिति में गांधी हमें रास्ता दिखा सकते हैं। दुखद यह है कि इस दोर में ज्यादातर युवा स्वतंत्रता संग्राम वाले गांधी को नहीं जानते हैं।
आज समय की मांग और हिंसा, अत्याचार, मंदी, बेरोजगारी, लूटपाट की जलती रेत पर रेंगता हुआ विश्व गांधी जी को फिर से याद करने पर बाध्य हो गया है। यदि इस विश्व को सत्य, अहिंसा, धर्म और न्याय का चमन बनाना है, तो हमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता में अटूट विश्वास करने बाले राष्ट्रपिता को हृदय की गहराई से याद करना होगा।
सही बात है गांधी तुम्हारे महात्मा नहीं हो सकते और न ही तुम्हारे राष्ट्रपिता। वो तो टैगोर के महात्मा थे और सुभाष की नजर में राष्ट्रपिता, जिसको समझने के लिए तुम्हे टैगोर की ‘Nationalism’ और सुभाष की ‘तरुणाई के स्वप्न’ पढ़नी पड़ेगी, और इतिहास तुम्हारा विषय है नही। सही बात है आज़ादी चरखे से नहीं आयी यह सच है क्योंकि चरखा क्या था उसके लिए तुम्हे विनोबा को और उनके भूदान आंदोलन को समझना होगा। असल में तुम किसी तरफ न थे न हो। न सुभाष के साथ, न भगत सिंह के, न टैगोर के और न ही विनोबा के, जो इनके साथ थे उन्हें गांधी से कभी समस्या नही थी। तुम बस भीड़ हो और तुम्हारा इस्तेमाल भी भीड़ की तरह हो रहा है। और भीड़ का कोई धर्म नहीं होता।
हमारे देश में पिछले कुछ समय से नफरत की जो नई राजनीति शुरू हुई है, उसे आज का युवा ही खत्म कर सकता है। अगर हम आज के युवा को गांधी के आदर्शों का सही पाठ पढा पाए तो न केवल राजनीति के एक नए युग का सूत्रपात होगा बल्कि एक साफ-सुथरी राजनीति का माहौल भी तैयार होगा। हम गांधी से असहमत हो सकते हैं लेकिन गाली देने से गांधी की प्रासंगिकता कभी कम नहीं होगी। जरूरत इस बात की है कि कालीचरणों की भीड़ में गांधी से जुडे सही तथ्य युवाओं तक पहुंचाए जाएं।
74वें पुण्यतिथि पर सादर नमन… बापू तुम्हें
नीरज कृष्ण
एडवोकेट पटना हाई कोर्ट
पटना (बिहार)