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“बड़ी बिल्ली”
कहानी
मंजुला बिष्ट
माँ सही कहती थी,”किसी भी काम में भाव ही मुख्य होता है,पूर्ण भाव से अर्पित किया हुआ मनोरथ कभी विफल नही होता है।”माँ कितने सात्विक व श्रद्धेय भाव से उसे गवानेक भेज रही थी…..जबकि गवानेक तो पितरों के श्राद्ध में अर्पित किया हुआ भोजन है !
“कजरा को गवानेक खिला दिया,बाबू!” पूछती हुई माँ गौरी के पास आ खड़ी हो गयी थी।माथे पर चंदन का वह गोल टीका जिसे लगाना माँ की सुबह की पूजा का अभिन्न अंग था ,आज गौरी को टीस दे रहा था। उसने जबसे होश संभाला है माँ का माथा सूना ही देखा, बस किसी ख़ास अवसर पर ही तिलक लगता है।”यह क्या कर दिया तुमने?गवानेक जमीन पर गिरा दिया।”अनमनी माँ ने उसकी ओर देखे बिना गवानेक के टुकड़े को उठाकर गोठ के बाहर बायीं तरफ लगे अमरूद के पेड़ की जड़ो पर दोनों हाथों से अर्पित कर दिया।
गौरी खिसिया गयी,चौपायों के लिये बनाये हुए घर”गोठ”में बछिया कजरा के गले को सहलाती गौरी गवानेक के उस छोटे टुकड़े के बारे में सोचने लगी,
जिसका उत्तराखंड समाज मे पितरों के श्राद्ध में बहुत महत्व है। गवानेक,चावल के आटे को घी,शहद,काले तिल व जौ के साथ मिलाकर दूध से गूँथ कर गाय को खिलाकर अपने पितरों को अर्पित किया जाता है।माँ इस गवानेक को पितरों को दूसरे लोक में सीधे मिलने वाले भोजन के रूप में बहुत ही श्रद्धेय दृष्टि से लेती है और उसने…उसे कजरा पर लाड़ जताते हुए जमीन पर गिरा दिया !माँ ने एक बार उसके पूछने पर कि क्या यह गवानेक पितरों को तृप्त करता होगा,माँ ने कहा था,”किसी भी काम में भाव ही मुख्य होता है,पूर्ण भाव से अर्पित किया हुआ मनोरथ कभी विफल नही होता है।”
“अब कब तक उसे चिपकाए रखोगी, यह तुम्हारी शादी में कन्यादान में तुम्हें ही मिलेगी।”बोलती माँ की स्मित मुस्कान जैसे कहीं खो गयी। उसके बालों पर हाथ फेरती हुई माँ अपनी गीली कोरों को कंधों से पोछने लगी।गौरी क्या करें ! कैसे समझाए माँ को ?गौरी ने माँ को कई बार एकाएक सख़्त हिमालय में बदलते हुए एक भूमिका में भी पाया था जबकि वे हमेशा हिमालय से निकली गंगा मां सी निर्मल नदी थी,जो उसके पितृविहीन जीवन में उसके अस्तित्व को अपने भीतर कहीं सुरक्षित सहेजे रखती थी।
जबसे गौरी का विवाह मुम्बई में तय हुआ है माँ के अंदर सुकूँ के आकाश में शंकाओं के बादल घुमड़ते रहने लगे हैं,यह द्वंद गौरी से छिपा नही रह पाता था ।माँ को गाँव से उसके ससुराल की दूरी असहज कर रही थी।”दो दिन बाद तुम्हारे सोरास वाले आ रहे हैं,तैयारियों को अंतिम रूप देने के लिये…मेहमान वाला कमरा देख लेना।”बोलती हुई माँ कजरा को निहारने लगी जैसे गौरी की विदाई की तैयारी करने लगी हो,आख़िर उन दोनों के पास अब समय भी तो दो माह ही बचा था !
घर लौटकर वे दोनों चाची व बुआ के साथ रसोई में व्यस्त हो गये,बुआ चौदह किलोमीटर दूर ससुराल से श्राद्ध में शामिल होने आयी थी।उसकी चचेरी बहन सुरभि जो उसे आजकल होने वाले जीजू के नाम से कुछ ज्यादा ही छेड़ने लगी है,उसे भी आज पारिवारिक वातावरण में अच्छा मौका मिल गया था।पण्डित जी ने पूरे विधि-विधान से श्राद्ध की प्रक्रिया सम्पन्न की व विवाह की तैयारियों के सम्बंध में अपनी सलाह देने लगे।आने वाले पाँच दिनों के लिये सबके हिस्से में कुछ न कुछ काम था ।गौरी को ससुराल का शुरुआती परिचय मायके में ही मिलने का अनुभव मिलने वाला था जो उसे असहज कर रहा था।
दो दिन बाद घर पर विवाह की जैसे कोई रस्म निभाई जा रही हो,आस-पड़ोस रहने वाले रिश्तेदार व अन्य पड़ोसी भी उसके भावी शहरी सास-ससुर की झलक देखना चाहते थे। गौरी को अब हर वक़्त दो जोड़ी आँखों की परखती नजरों में रहना होता था,ऐसी किसी ने ताक़ीद नही किया था लेकिन न जाने क्यों जैसे उसके पूरे शरीर ने असमय ही लिहाज रखने की जिम्मेदारी स्वीकार कर ली थी ।लड़कियां भी जन्म के बाद से ही कब सहज होकर स्त्री बनने के प्रक्रिया को अपनाने लगती है यह न वे स्वयं जान पाती हैं न ही घर के लोग।
शादी की तैयारियों को अंतिम जामा पहनाया जाने लगा,चाचा-चाची व पड़ोस के दादाजी थे जो उसके स्वर्गीय दादाजी के दोस्त थे,उनका पूर्ण मानसिक सबल माँ को मिल रहा था ।शादी में अगर लेन-देन न हो तो क्या कोई भी शादी अपना आकर्षण ही खो देगी ?दो परिवारों के मिलन के पवित्र बंधन को उपहारों की अदला-बदली उसे विचलित करती थी,लेक़िन विरोध की कोई गुंजाइश भी नही थी।माँ की अकेली छाया ने उसे असमय ही सयाना बना दिया था,उसने कभी अधिकार नही जताया ही नही था बस माँ की तरह कर्तव्यपूर्ति को ही धर्म की तरह धारण किये रहना सीख गई थी।
एक शाम परिवार के सभी सदस्य व आत्मीय पड़ोसियों के बीच चाय-नाश्ते का दौर चल रहा था कि पालतू बिल्ली पूसी ने आकर माँ के को अपने शरीर से ठेलना शुरू कर दिया ।यह देखकर उसकी सास ने इसका कारण पूछा तो माँ ने कहा,”इसको दूध चाहिये समधिन जी! हमारे घर में दो बिल्लियाँ हैं,एक यह छोटी बिल्ली पूसी ….दूसरी बड़ी बिल्ली,आपकी बहु गौरी ..!”सब एकाएक गौरी को देखने लगे ,वातावरण में धीमी व ठहाके लगाती हँसी का जो दौर चला वह जल्दी ही हल्की कौतुकभरी वात्सल्यमयी मुस्कान में बदल गया ।गौरी को काटो तो खून नही!”मैं समझी नही!”उसकी सास ने अपनी नासमझ हँसी को लगाम देते हुए कहा,तो माँ ने अनमनी होती गौरी की ओर देखे बिना शांत स्वर में जवाब दिया,”आपकी बहु को भी दूध बहुत पसन्द है,इसे सुबह-शाम को दूध की आदत है न…मैं इसलिये इसे बड़ी बिल्ली कहती हूँ।”गौरी को माँ का इस तरह बोलना उन तमाम कडुवे अनुभवों की याद दिला गया जो माँ ने उसके साथ घर के काम करते हुए बाँट दिए थे ।माँ बताती थी गांव घर की बहुओं को गोठ से दूध लाकर अपनी सास को सुपुर्द करके दूध पीने की कोई उम्मीद नही करनी होती थी।दूध उबालना, दही जमाना ,बिंडे में छाछ बनाना , घी बनाने व बाँटने तक की पुरी प्रक्रिया उनकी सास ही संभालती थी,यह एक तरह से घर की मुख्य मालकिन का सम्मान व अधिकार क्षेत्र में आता था।
भावी सास-ससुर के सामने उसकी दूध की तलब का इस तरह पता चल जाना गौरी को शर्मिंदा कर गया था।वह समझ नही पा रही थी कि आख़िर इस नाजुक मौक़े पर इसको बताने की क्या जरूरत आन पड़ी थी!जहाँ वह खुद ही सामंजस्य का पहला पाठ सीख रही थी । ख़ैर,तीन दिन का आतिथ्य ग्रहण कर मेहमान विदा हुए ,पीछे साझेदारी में निपटता हुई माँ का पहला व अंतिम काज सबका मुँह देख रहा था ।आने वाले दो माह में शादी की तैयारियों के दौरान उसने न जाने कितनी बार बगल में लेटी हुई माँ को कभी पिता की तुलसी की माला टँगी तस्वीर को एकटक देखते पाया तो कभी उसके सिर में हाथ फिराती खिड़की से कहीं दूर एकटक चिंतातुर तकते हुए !! इस गहन चुप्पी के बीच गौरी भी चुपचाप सोने का नाटक कर पड़ी रहती । कई बार उसे लगता कि उसका एकमात्र बेटी होना माँ को असहाय बना रहा है,उसे माँ के बुढ़ापे की पहली बार इतनी ज्यादा चिंता होने लगी थी कि कई बार वह घबरा कर माँ से लिपट जाती तो माँ उसे अनायास ही चूम कर सहला देती।माँ समझती थी कि शादी के गुनगुने गुलाबी सपनें गौरी को कई बार पास बुलाने पड़ते होंगे क्योंकि उन्होंने ही उसे शादी की जिम्मरदारियों से मुक्त रहने व खूब खुश रहने को कहा था।माँ किस मिट्टी की बनी हैं!यह बात उसे आश्चर्य में डालती थी ।उसने आज तक माँ को मुँह-अँधेरे उठता ही देखा था जो सबसे अंत में रात को सोने जाती थी।क्या माँ ने अपनी खुशियों का पता कभी खोजा होगा! यह सोचते ही गौरी अपराध भाव से भर उठती,उसे लगता वह माँ को कुछ भी तो नही दे सकती है!
गौरी जब ध्रुव के साथ लैंडलाइन फोन पर भावी जीवन की गुलाबी कल्पनाओं में डूबी हुई धीमी आवाज़ों की दुनिया से बाहर निकलती तो उसे माँ आँगन में अकेली खड़ी उसका इंतजार करती हुई दिखाई देती,तब वह हॄदय की हूँक को किसी के साथ बाँट भी नही पाती,काश!वह भी इसे माँ के साथ साझा कर सकती !आख़िर वह दिन भी आ गया जब माँ ने उसे पिता बनकर अपने आँगन से विदा किया ।विदाई की बेला में उसने माँ को भावनाओं के उफान को जज़्ब करती नदी सा महसूस किया था जो हिमालय से विशाल हॄदय लिए उसके आँचल से बिखराये हुए खील को अपने लरज़ते अश्रुपूरित आँचल में समेट रही थी।माँ ने उसे फूलों सजी हुई कार में बैठाते हुए एक शब्द भी नही कहा,पता नही क्यों!शायद माँ को अपने पालन-पोषण पर बहुत ज्यादा विश्वास था!
नया घर व अजनबी परिवेश में झिझकती हुई सधे कदमों के साथ नए कोमल रिश्तों को गौरी सींचने लगी थी।उसे अपनी उखड़ी हुई जड़ों को धीरे-धीरे नयी उथल-पुथल मचाती स्वागत करती ज़मीन पर फैलने के लिये रख छोड़ना था।गाँव व मेट्रो सिटी की देहरियों में अंतर गौरी को तब बहुत सालता था जब वह सामने के फ्लैट के पायदान को पाँव से छूते ही फौरन यथा-स्थान पर रखने को उद्दत हो उठती,उसे उस वक़्त गाँव के पड़ोस के आँगन में कीचड़ लगे पाँव से बेधड़क घुस जाना याद आने लगता।लम्बी गैलरियों में सजे पौधे जैसे अपने जिंदा होने की खानापूर्ति से करते नजर आते थे।मुबई का समुंदर ही वह शै था जो उसे गाँव के सीमांत में बहती नदी से सहज ही जोड़ देता था,वह उसमें हाथ गीले कर सोचती कि क्या इसमें मेरे मायके की नदी की शीतलता कहीं छिपी बह रही होगी,ध्रुव उसकी भावनाओं से अनजान यह देखकर मुस्करा उठता ।
ध्रुव एक सहयोगी व स्नेही जीवनसाथी साबित हो रहा था तो सास जैसे उसकी जड़ों को सही समय पर सिंचाई करती कोई अनुभवी व स्नेही माली।घर में लैंडलाइन फोन पर माँ से खूब बातें करने की सोचती लेकिन नयी-नवेली दुल्हन होने के कारण सहज ही हिचक जाती तो ध्रुव उसे बाहर घूमने जाते समय पब्लिक टेलिफोन बूथ से बात करवा देता।गौरी को न जाने क्यों महसूस होता रहता कि माँ उससे कुछ पूछना चाह रही है लेकिन संकोची होने के कारण घर पर नए ससुराल व बाहर ध्रुव का ख़्याल रख रही है।
गौरी की शादी के दस दिन बाद ही चचेरी ननद की शादी की तैयारी ने उसके पगफेरे की रस्म व हनीमून को अगले महीने के लिये टाल दिया था,यह सब तो माँ को पहले से ही पता था ..फ़िर माँ अपने ही घर में इतनी अस्थिर व बेचैन क्यों है ? घर पर बेटी के मंगल कार्यक्रम की तैयारियों में उत्साह से दौड़ती ताई सास को जब पति व बेटे का मजबूत कंधा मिलता तो जैसे आत्मविश्वास व सुकूँ से भरे चेहरे की आभा और अधिक बढ़ जाती।यह सब देखकर मुस्कराती गौरी को माँ की कातर व पनीली कोरें रह -रह कर याद आने लगती जो पिता की अकाल मृत्यु के बाद नितांत अकेली व निशक्त ही थी । उसे उसी क्षण माँ से मिलने की उत्कंठा अधिक बलवती होने लगती थी,गौरी की यह बेचैनी ध्रुव से भी नही छिपी थी पर वह भी मजबूर था आख़िर मामला दोनों परिवारों की इकलौती बहन की शादी का था जहाँ सब अपने अरमान पूरे करने में कोई कसर नही छोड़ना चाहते थे।
एक रात माँ को जैसे मौक़ा मिल गया ,जब उन्हें यह विश्वास हो गया कि गौरी कमरे में अकेली है तो अटकते हुए पूछ ही लिया,”घर में कोई पालतू जानवर नही है क्या..?”गौरी हँस पड़ी,”यहाँ ?नही,क्यों पूछ रही हो ?”टूटती आवाज़ कानों से सीधा दिल की नसों को अलग करती चली गयी,”मतलब ..कोई बिल्ली …दूध तो शुद्ध मीठा मिलता है न…?”फ़िर एक रोकती हुई रुलाई का स्फुटन …गौरी अवाक थी! दूसरी तरफ से जैसे घुटे हुए तूफान के बाद नीरवता छायी हो…अब फोन पर हँसती हुई बहन सुरभि जैसे ख़बरिया चैनल बनने को उतावली थी,”दी!तुझे पता है,बड़ी मम्मी आजकल पूसी बिल्ली को तेरे हिस्से का दूध जबरदस्ती पिलाती है ….!” गौरी जैसे अचानक बहुत कमज़ोर हो चली थी लगा हॄदय का सारा खून किसी ने जोरों से खींच लिया है…अभी-अभी अलग हुई नसों में प्रवाह रुक गया था !उसने संभलने के लिये दीवार पर सिर टिका दिया,”सुरभि!माँ से कहना …यहाँ बिल्ली तो नही है लेकिन उसकी बड़ी बिल्ली को दूसरी माँ रोज़ दूध देती है…उसके कहे अनुसार ही!”बड़ी मुश्किल से ख़ुद को संयत करते हुए वह रुलाई रोक पायी थी।
उस रात गौरी दूध गटकती हुई सबके सामने “बड़ी बिल्ली”पुकारे जाने का अर्थ समझ रही थी।विदाई के बाद आज वह ध्रुव की बाँहों में ख़ूब जी-भरकर रोयी थी।वह चाहती थी कि माँ उसे ज़ोर से इस शादी के घर मे ‘बड़ी बिल्ली’कहकर पुकारे आज उसे बिल्कुल भी बुरा नही लगेगा !वह ध्रुव की छाती में सिर रखकर दिवास्वप्न देखने लगी जहाँ वह कजरा बन गयी थी जिसकी आँखों की गंदगी माँ अपने आँचल से पोछ रही थी कि उसने अचानक माँ के कँधे में अपना चेहरा रखकर उनके मुँह पर लार लगा दिया था और माँ है कि…. उसे उलाहना तक नही दे रही थी!
माँ सही कहती थी ,”किसी भी काम में भाव ही मुख्य होता है,पूर्ण भाव से अर्पित किया हुआ मनोरथ कभी विफल नही होता है।”माँ कितने सात्विक व श्रद्धेय भाव से उसे गवानेक भेज रही थी…..जबकि गवानेक तो पितरों के श्राद्ध में अर्पित किया हुआ भोजन है !
मंजुला बिष्ट
लेखक परिचय
जीवन-परिचय:–
मंजुला बिष्ट
बीए,बीएड
उदयपुर (राजस्थान)में निवास
इनकी रचनाएँ:–
हंस ,अहा! जिंदगी,नया ज्ञानोदय ,विश्वगाथा ,पर्तों की पड़ताल,माही व स्वर्णवाणी पत्रिका में,
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