कविता
ऊँका औंण से पैलि
(गढ़वाली कविता)
हरदेव नेगी
ऊँका औंण से पैलि स्यूँद पाटि सजै द्यों
कखि बटि क्वी कसर नि रौ, रूप यन खिलै द्यों।।
कै मैनों बिटिन् आग भबरांणि ब्याळि
सि औंणा छन्न घौर गौळा लगि छे कुतग्याळि,
टिमणांदि आँखि तौंकु बाटु ह्येरणीं छिन्न
म्यारा हिया न् या बात बिंगै यालि,
अब अपड़ा सजीला जुन्खों कु स्यन्दूक ख्वोलि द्यों
कखि बटि क्वी कसर नि रौ, रूप यन खिलै द्यों।।
लंलागि चूड़ी, काळु बिलोज, मैरुन साड़ी
पसंद चा ऊँतैं मेरु यु पैरवार,
साँकुरो बंध्यूँ, छ्वटि लाल बिंदि अर गौळा गुलोबंद
भलु लगदु ऊँतैं मेरु बिगरैलु सिंगार।।
ऊँका औंण से पैलि चूड़यों का छमणाटन बिंगै द्यों,
कखि बटि क्वी कसर नि रौ, रूप यन खिलै द्यों।।
मिथैं आज व्हौंणी बिज्याँ कतामति
मुंड ढकौंण बिसरु नी निथर व्हे जाली अति,
सिदी क्य ब्वलला, म्यारा औंणा बाना मुंड ढकौंण बिसरी गे
सोरा ज्यठणों क्वे मान नी या ब्वारी किलै बिचळी गे।।
सासु जादा सुणों नी, धांण काज सब्बि निबटै द्यों
कखि बटि क्वी कसर नि रौ, रूप यन खिलै द्यों।।
हरदेव नेगी, गुप्तकाशी (रुद्रप्रयाग)