आलेख
“तुलनात्मक_परिवेश”
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“तुलनात्मक भावना न सिर्फ़ एक प्रकार का विकार है बल्कि ये एक कुप्रथा है जो रूढ़िवादी परम्परा की देन है जिसकी वजह से औसतन 75% महिला और पुरुष अवसादग्रस्त हो चुके हैं और आज भी हर जगह हो रहे हैं! क्यूंकि मनुष्य एक लोभी किस्म का प्राणी है । जब तक लोभ रहेगा ये तुलना जारी रहेगी और जब तक ये तुलना यूं ही जारी रहेगी एक तुलनात्मक परिवेश सदैव बना रहेगा और मानसिक , शारीरिक और बौद्धिक विनाश यूं ही चलता रहेगा..!“
शर्म नहीं आ रही है तुम्हें? वो शर्मा जी के बेटे को देखो पूरे स्कूल में प्रथम आया है और तू निकम्मा नालायक पूरे साल बस आवारागर्दी करता रहता है..न जाने किस जन्म का बदला लिया है भगवान ने जो ऐसा कपूत पैदा हुआ!
कुछ तो शर्म कर तेरी वजह से आस पड़ोस में तो छोड़ो आफिस वालों के सामने भी नाक कट गई मेरी तो .. उफ्फ!
अरी कामचोर! पता नहीं क्या पाप की थी मैं जो ऐसी बहू मिल गई! न काम की न काज की बस दिन रात टीवी देखना , मोबाइल चलाना और मायके वालों से चुगली करना यही काम है इसका । एक वो पड़ोस वाली मिश्राईन हैं पता नहीं क्या नसीब लेकर पैदा हुई हैं कि ऐसी बहू मिली ! दिन रात सेवा करती है और बेटी भी पढ़ने लिखने में अव्वल है..! और एक मेरी बेटी बस उसको पढ़ाई छोड़कर सब करना आता है।
ऐसे बहुत सारे उदाहरण आपके अपने घर में और आस पास के घरों मोहल्लों में घटित होते रहते हैं । पर कभी सोचा है आपने क्यूं? ज़रा सोच कर देखिए…
इस तरह सदैव हर एक व्यक्ति की दूसरे व्यक्ति के साथ तुलना करना कितना उचित है?
अगर सबको एक समान ही बनाना होता तो ईश्वर ने उन्हें पहले ही बना दिया होता । लेकिन नहीं! यहां धरती पर भी कुछ लोग हैं जो ईश्वर को चुनौती देने का पूर्ण सामर्थ्य रखते हैं।
जिनको आप हर बात में हर परिस्थिति में प्रताड़ित करते हैं चाहे वो पुरुष हों या स्त्री..कभी उनके बारे में जानने की चेष्टा की है ?कभी दो पल उनके साथ बैठकर उनके मन में चल रही बातों को , संघर्षों को समझने का प्रयास किया है?कभी ये जानने की कोशिश की कि क्यों ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं बार बार?अगर बहू में या बेटा बेटी में आप इतनी कमियां निकालती हो तो कभी ये जानने का प्रयत्न किया कि इतनी खामियां हैं भी या नहीं? या फिर आप स्वयं ही नकारात्मक और रूढ़िवादी मानसिकता की शिकार हैं जिसे हर व्यक्ति में सिर्फ खामियां ही नजर आती हैं।
चलिए आपकी उसी विचारधारा पर थोड़ा प्रकाश डालते हैं! शर्मा जी का बेटा प्रथम आया और आपका बेटा फेल हो गया तो अब आपकी नज़र में सारा दोष आपके बेटे का है और अब उसे तानों की आदत डालनी होगी और सम्मान से जीने का अधिकार भी उसने खो दिया? क्यूं सही कहा न! यही विचार चलता है न मन में? तो ज़रा आत्ममंथन कीजिए कि ऐसा क्यूं हुआ? पहले इसके लिए एक बार शर्मा जी के घर जाइए और वहां का वातावरण और माहौल को देखिए और महसूस कीजिए और फिर अपने घर के वातावरण और माहौल को याद कीजिए–
अब शर्मा जी के व्यवहार, व्यक्तित्व और विचारों का ताल-मेल देखिए और अपने स्वयं के विचारों को महसूस कीजिए– शर्मा जी अपने बेटे को उसकी पढ़ाई में रूचि अनुसार प्रोत्साहन देते हैं और बैठकर उससे एक मित्र की भांति बात करते हैं कि उसके मन में क्या चल रहा है। परन्तु अपने क्या किया सिर्फ तुलना? आपने कभी जानने की कोशिश ही नहीं की कि आपके बच्चे की रूचि किस विषय में है और ना ही उसे एक अच्छा माहौल दे सके और तो और आपने उसके साथ बैठकर कभी दो पल मीठी बातें तक नहीं की लेकिन बराबरी आपको शर्मा जी से करनी है? वाह !
दूसरी तरफ आपकी बहू कामचोर है और दिन भर टीवी देखती है मोबाइल पर लगी रहती है और तो और मायके वालों से आपकी चुगली करती है लेकिन मिश्राईन की बहू बहुत अच्छी है। तो महोदया आप भी कभी मिश्राईन के यहां हो आइए और अपने आप को उनसे तुलना कर लीजिए साथ ही साथ दोनों घरों परिवारों के वातावरण माहौल और परिवेश की भी तुलना कर लीजिए .. हकीकत समझ आ जाएगा ।
दरअसल हकीकत तो आपको पता होता है पर आप उसे नज़रंदाज़ कर सिर्फ़ खामियां निकालने वाले लोग हैं।आपकी बहू टीवी देख रही है तो ज़ाहिर सी बात है सारे काम निपटा लिए होंगे या कुछ क्षण का विराम लिया होगा उसने और सामान्य सी बात है इंसान है वो भी जब कोई बात करने वाला आसपास नहीं होगा तो मन शांत करने के लिए टीवी मोबाइल का इस्तेमाल करना कोई अपराध नहीं है।दूसरी तरफ वो मायके वालों से चुगली कर रही होगी तो महोदया इसकी जरूरत क्यूं पड़ी? कभी सोचा है आपने? एक लड़की जन्म से 20-22 वर्ष तक अपने माता-पिता के साथ रहती है और एक दिन एक अंजान इंसान का हाथ थाम अंजान घर में चली आती है इसी उम्मीद में कि आज से ये परिवार भी मेरा है और मुझे यहां मायके जैसा ना सही पर प्रेम तो मिलेगा । पर होता क्या है? उसकी तुलना शुरू हो जाती है? और जब आपके परिवार से उसे प्रेम नहीं मिलता , आप में उसे मां की ममता नज़र नहीं आती तो वो अपनी पीड़ा किस से कहेगी? कभी ये जानने का प्रयत्न किया आपने?
ऐसे अनगिनत उदाहरण से आप रोज रूबरू होते होंगे और इन सभी बातों कि सार बस इतना ही है कि इस धरा पर ऐसे लोग हैं जिनका स्वयं का वजूद शून्य होता है पर सामने वाले से उनकी अपेक्षाएं जरूरत से ज्यादा होती हैं। इन्हें लगता है इस तरह उकसाने से तुलना करने से सामने वाले के मन में ऊर्जा का संचार होगा और वो बेहतर प्रदर्शन करेगा। ऐसे लोग हर छोटी से छोटी बात में अड़ोस-पड़ोस, रिश्तेदार, आफिस के लोग इत्यादि लोगों से अपनी और अपने परिवार की तुलना निरन्तर करते रहते हैं..जिससे इनके आसपास सदैव नकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है और एक तुलनात्मक परिवेश सदैव बना रहता है।
दरअसल इनका बौद्धिक स्तर इतना निम्न दर्जे का होता है इन्हें पता ही नहीं होता कि ये मानसिक विकार के शिकार हैं जो अपने से तो जीवन में कुछ कर न सके या किया भी तो मनचाहा न कर पाए और उसके बदले इन्हें तृप्ति न मिली । इसलिए अपनी सारी इच्छाओं की पूर्ति का दायित्व अपनों पर उड़ेलकर उन्हें इच्छाओं और सपनों के बोझ तले दबाकर करते और करवाते हैं।
तुलनात्मक भावना न सिर्फ़ एक प्रकार का विकार है बल्कि ये एक कुप्रथा है जो रूढ़िवादी परम्परा की देन है जिसकी वजह से औसतन 75% महिला और पुरुष अवसादग्रस्त हो चुके हैं और आज भी हर जगह हो रहे हैं! क्यूंकि मनुष्य एक लोभी किस्म का प्राणी है । जब तक लोभ रहेगा ये तुलना जारी रहेगी और जब तक ये तुलना यूं ही जारी रहेगी एक तुलनात्मक परिवेश सदैव बना रहेगा और मानसिक , शारीरिक और बौद्धिक विनाश यूं ही चलता रहेगा..!
राघवेन्द्र चतुर्वेदी, बनारस (उ.प्र)