आलेख
कोयलिया मत कर पुकार !
अलसाई दुपहरिया की मीठी नींद में खलल डालने के लिए कुदरत भी एक मनोरंजन तैयार लिए बैठी हुई है। इधर आंखें लगी नहीं कि उधर कोयल की कूक में जैसे गा रही हों शारदा सिन्हा छुपकर किसी पत्ती के पीछे से –
“कोयल बिन बगिया ना सोहे राजा
उजर बगुला बिन पिपरो ना सोहे” …
आम के पेड़ पर मध्यम आकार के कच्चे फलों के साथ-साथ लटकते झूले भी ! ना डालें तो क्या करें ? एक-डेढ़ महीने वाली स्कूल की लंबी-लंबी छुट्टियां आखिरी कटें कैसे ? घर के बड़े खिड़कियां खोलकर नजर रखे हुए बच्चों पर कि कहीं चोट ना लगा लें खेल-खेल में । चढ़ते सूरज की बढ़ती गर्मी से पसीना-पसीना होते तन पर ठंडक पहुंचने की गरज से फर्श पर पानी छिड़क चटाई बिछाकर लेटे बुजुर्ग ! ये मई-जून के महीने की आम पहचान होती थी।
जहां गर्मी कुछ ज्यादा पड़ती है और अक्सर बिजली भी नदारद रहती हो तो वहां सुना है कि लोग सवेरे ही खाना लेकर निकल जाते हैं किसी घने पेड़ की छांव में बैठने। सारा दिन सुस्ताकर शाम गए घर लौटने का रिवाज़ है वहां । कुछ भी करके सुकून हासिल हो जाए तो फिर कोई मौसम बुरा नहीं लगता। अलसाई दुपहरिया की मीठी नींद में खलल डालने के लिए कुदरत भी एक मनोरंजन तैयार लिए बैठी हुई है। इधर आंखें लगी नहीं कि उधर कोयल की कूक में जैसे गा रही हों शारदा सिन्हा छुपकर किसी पत्ती के पीछे से –
“कोयल बिन बगिया ना सोहे राजा
उजर बगुला बिन पिपरो ना सोहे” …
सुबह-शाम, रात-दिन हर पहर, हर तरफ गूंजती बड़ी सुहानी लगती है यह तान। एक तरह से इसे कोयल का ही मौसम कहा जाए तो बेहतर है।
ठीक एक बरस लगता है इस मौसम को फिर लौट कर आने में। वही महीना,वही गर्मी, आम की डालियों पर फल भी लटक रहे हैं मगर पेड़ उदास है इस बार खाली पड़े झूले और खिड़कियों से बाहर ताक रहे बच्चों को देखकर।
“अम्मा आज लगा दे झूला
इस झूले पर मैं झूलूंगी”.. जैसी कविता के पाठ में अखर रहा है बच्चों के स्वर में उत्साह का नितांत अभाव।
झुरमुटों की घनी छांव खिसियाई सी पसरी है जमीन पर। कहां गए वो झुंड के झुंड लोग जो अलसाये नहीं थकते थे कभी उसके साए में।
अब कोयल भी जैसे कुछ-कुछ समझ गई हो ये तल्ख़ी-ए हालात। उसकी कूक जैसे मौसम की उदासी को और बढ़ाती हुई बेगम अख़्तर की दर्द भरी आवाज़ में दिल से उठती हुई हूक-
“कोयलिया मत कर पुकार
करेेजवा लागे कटार” ..
प्रतिभा की कलम से