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फिजूलखर्ची।

कविता

फिजूलखर्ची।

कविता

(मंजुला बिष्ट)

शाम चार बजे
स्कूल का बस्ता पीठ पर लादे
जब गाँव भर के बच्चे घर लौटते..
मैं ‘जोशी होटल’के अंदर बैठे बुबू को खोजती
बुबू अखबार रख मुझे दो डबलरोटी सौपतें
वे मेरे पूरे दिन के धैर्य की थाती होती थीं!

जाड़ों के पीले पड़ते सूरज को देखती
किसी कंकड़ को ठोकर मारकर रास्ता नापती
डबलरोटी को नोनी बनाकर निगलती मैं ;
सपाट अबूझी ही रही तब,कि
सावधानीपूर्वक घर खर्च चलाते
बुबू की अनुभवी खल्दी के लिए
मुझे नियमित दी जाने वाली वे डबल रोटियाँ
कहीं से भी रत्तीभर..फिजूलख़र्ची नहीं थीं

सभी जरूरी कागजात पर
दाहिना अंगूठा लगाने वाली मेरी माँ
हर दो-तीन माह में अपनी पेंशन उठाकर
गृहस्थी के सौदा सुल्फ़ खरीदने के बाद जब वह
बसस्टैण्ड पर मुझे सौंपती थी मेरा अधिकार!
मेरा अधिकार..जहाँ मुझे उसके बगैर
गेंडा न्यूज़ एजेंसी,खटीमा पर जाकर
चंपक/नन्दन/कॉमिक्स खरीदने होते थे
तब वह बहुत-बहुत संतुष्ट दिखती !

बड़ी चाची से गुलशन नन्दा और रानू के उपन्यास
बड़े ही मनोयोग से सुनती थी माँ
माँ ने कभी नहीं जाना कि
उचारे गए बोल,घुटे हुए तमाम शब्द और प्रसिद्ध हुए कथन,विमर्श,भाषण..
किस शब्दाकार में दर्ज होते हैं,कैसे पहचाने जाते हैं ;
अ,आ,क,ख,ग..
वह बस अपने नाम को सावधानीपूर्वक लिखती और सकुचाती सी पहचान पाती थी–’नंदा देवी’
लेक़िन उसे बगैर बहीखातों के
हिसाब करना-रखना दोनों ही बखूबी आते थे

घर लौटकर कुल खर्च का मौखिक हिसाब
लगाती मां की यादाश्त में
मेरी पत्रिकाओं का हिसाब कभी दर्ज़ नहीं होता था
क्योंकि,वह मानती थी कि
वह रत्तीभर भी..फिजूलखर्ची नहीं थी

अब..जब मैं खरीद लेती हूँ
किसी साहित्यिक पत्रिका,कृतियों को
मेरे साथी ने कभी कोई आपत्ति दर्ज न कराई
अक्सर उन कृतियों को निहारते हुए
उनकी पुतलियों में बालसखा कुलाँचे भरते हैं
स्मित मुस्कान की चाशनी में बुदबुदाते हैं–
वर्ष भर जमा की हुई कॉमिक्स को
चवन्नी/अठन्नी पर दोस्तों को किराए पर देकर ही
मैंने व्यापार सीखा था..शायद!
मेरे साथ याद करते हैं
चाचा चौधरी,साबू,मेंड्रेक,फेंटम,मोटू-पतलू..
और डायमंड कॉमिक्स के अन्य पात्रों को

उनकी कारोबारी दृष्टि में
यूँ ही ख़रीदी गयी साड़ी फालतू खर्च हो सकती है
लेकिन..क़िताबों की महंगी खरीद कभी नहीं
उनका विश्वास आज भी कायम है कि
यह रत्तीभर भी फिजूलखर्ची नहीं है!

कभी-कभार बेटू को घर लौटते हुए
दूध/टमाटर/केले खरीदने की याद दिलाती हूँ
जिन्हें दरवाज़े पर मुझे सुपुर्द कर
वह एक पिता की भांति मुस्काकर चॉकलेट देता है
उसकी चौड़ी छाती से अधिक विस्तीर्ण
उसकी सयानी होती बाल सुलभ मुस्कान देख
मैं पहले-पहल अचकचाई थी..
अब भी औचक सी चॉकलेट को सहलाती हूँ

एक दिन उसे याद दिलाया–मेरे दांतों पर यह लगता है,फिजूलखर्ची क्यों करते हो,बेटू!
उसने तुनककर कहा–
खा लिया करो,यार ममा!यह फिजूलखर्ची बिल्कुल नहीं है।

नोनी*–मक्खन

जीवन-परिचय:– मंजुला बिष्ट
बीए,बीएड
उदयपुर (राजस्थान)में निवास ,प्रकाशित पुस्तक: “खांटी ही भली”
इनकी रचनाएँ:–
हंस ,अहा! जिंदगी,नया ज्ञानोदय ,विश्वगाथा ,पर्तों की पड़ताल,माही व स्वर्णवाणी पत्रिका में,
दैनिक-भास्कर,राजस्थान-पत्रिका,सुबह-सबेरे,प्रभात-ख़बर समाचार-पत्र में
व समालोचन ,अनुनाद ,कारवाँ ,अतुल्य हिन्दी व बिजूका ब्लॉग,
हस्ताक्षर वेब-पत्रिका ,वेब-दुनिया वेब पत्रिका व हिंदीनामा ,पोशम्पा ,तीखर पेज़ में रचनाएँ प्रकाशित हैं।

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