आलेख
गौरेया
“जादुई निष्पाप स्पर्श ने पंखों की मुलामियत उनकी रगों में उतार दी । बड़ी देर तक फिर वो अपनी हथेली सहलाते रहे । इससे पहले कब ये इतनी मुलायम थीं ?“
कहानी
प्रतिभा की कलम से
एक घर के आगे खड़े आम के पेड़ पर कुछ पंछी नियमित रूप से बैठते थे। उनमें एक गौरेया भी शामिल थी । सर्दियों का मध्य चल रहा था । गौरेया जानती थी कि फरवरी में उसे अपने लिए एक घोंसले की जरूरत पड़ेगी । गौरेया इंसानी वास के आसपास ही रहना पसंद करती है,इसलिए वो किसी बरामदे की छत, किसी खिड़की या गेट पर फैली फूल-पौधों की बेल पर ताक जमाये रखती।
एक दिन इसी तरह तिनके मुंह में लिए वो उस घर के आँगन में टहल रही थी कि अंदर से सफेद कुर्ता पायजामा पहने एक सज्जन बाहर निकले। गौरेया डर से थोड़ी दूर फुदक गयी। उन्होंने ज्यादा ध्यान न देते हुए वहीं कुर्सी पर पड़ा अखबार उठाया और धूप सेंकते हुए पृष्ठ पलटने लगे। गौरेया अब फिर तिनके-तिनके उठाकर बरामदे की छत पर लगे पंखे पर घोंसला तैयार करने का जतन करने लगी। ऊंघती आँखों से वो सज्जन आदमी भी गौरेया की मेहनत देखने लगे। अगले दिन फिर उसी वक्त पर उनका बाहर आना हुआ । गौरेया पहले से ही अपने काम में जुटी हुई थी । अच्छा लगा उन्हें । अखबार के साथ – साथ उन्होंने गौरेया को भी पढ़ना चाहा ।
नाश्ते की प्लेट वो आज धूप में ही ले आये , और उसमें से कुछ अन्नकण उन्होंने उसके आगे डाल दिये । गौरेया ने कृतज्ञता से उनकी ओर देखा । सज्जन व्यक्ति ने भी मुस्करा कर कहा – ‘खा लो गोरी ! तुम्हारे लिए हैं’ । उस दिन से उनका उससे एक आत्मीय संबध स्थापित हुआ और उन्होंने गौरेया को गोरी कहना शुरू कर दिया ।
अब तो ये रोज का किस्सा हुआ कि नाश्ते की प्लेट का कुछ हिस्सा गोरी के पेट में जाता । और वो तृप्त होकर प्यार से गोरी को निहारते । गोरी खुश होकर जोर -जोर से चीं चीं की आवाज में उन्हें शुक्रिया कहती । ये छोटी सी बात अपने अलावा उन्होंने किसी और को नहीं बतायी । लेकिन सच यही था कि अब वो गोरी के लिए ही सोते, गोरी के लिए ही जागते। सर्दियों की धूप का स्पंदन और गोरी की चीं चीं का गुंजन उनके जीवन को मधुर बनाता था।
पूरी उम्र मनोरंजन के तमाम साधनों का उपभोग करते हुए भी इतनी सुखद अनुभूति कभी न हुई थी,जितनी अब इस गौरेया के साथ बोलने,बतियाने में मिलती थी।
एक दिन उनका मन गौरेया का उनसे लगाव मापने का हुआ । पैमाना तय करते हुए उन्होंने अपनी दोनों हथेलियाँ गौरेया के आगे फैला दीं । गौरेया निस्संकोच हथेली पर बैठ गई । वो स्तब्ध रह गये गौरेया के समर्पण पर । उनका जी हुआ कि गौरेया के पंख सहलाऐं, चूमें, पुचकारें उसे तनिक देर । लेकिन इन पलों को फिर कभी आगे के लिए स्थगित कर भीगी आवाज में गौरेया से इतना भर ही पूछा – डर नहीं लगता ? तुम्हरा कौन जनम का नाता है री हमसे !
गोरी क्या जवाब देती ? जादुई निष्पाप स्पर्श ने पंखों की मुलामियत उनकी रगों में उतार दी । बड़ी देर तक फिर वो अपनी हथेली सहलाते रहे । इससे पहले कब ये इतनी मुलायम थीं ?
इधर घोंसला पूरा हुआ और फरवरी भी बीत चला । मार्च अंत से मौसम में थोड़ी गरमी आनी शुरू हो गयी । धूप में बैठना अब सुविधाजनक न था । चिड़िया का दाना प्लेट में रख दिया जाता और पास में ही पानी भी । भोजन और पानी की चिंता तो न थी ,मगर तब भी गौरेया का मन उचाट रहने लगा । उसे घर के मालिक की चिंता सताती। क्या हुआ ? क्यों अब कोई दिखाई नहीं देता ?
चिड़िया चीं-चीं का शोर मचाकर उन्हें बाहर बुलाना चाहती,लेकिन पंखे,कूलर के शोर के आगे उसकी नन्हीं सी आवाज कहाँ किसी को सुनाई पड़ती थी ?
एक दिन गर्मी कुछ ज्यादा थी और बिजली कई घंटों से गुल। इन्वर्टर भी खाली हो चुका। घर के लोग यूं ही लेटे-लेटे ऊंघ रहे थे ।
रोज की तरह ही चीं-चीं की पुकार से घर के मालिक का हाल समाचार लेने का प्रयास अनवरत जारी था चिड़िया की तरफ से।कि इतने में उन्होंने सच ही बरामदे में कदम रख दिया। कई दिन बाद उन्हें देखकर गौरेया खुशी से पागल हो गई । वह दुगुने वेग से चीं-चीं करने लगी कि हथेली में उठा लो । पाँव पर लोटने दो ।
मालिक ने गुस्से से गौरेया की तरफ देखते हुए कहा – कितना शोर मचाती है तू ? सोने भी नहीं देती जरा देर को !
चिड़िया सन्न । शर्म से गर्दन झुक गई । प्राण जैसे बीच में ही अटक गये हों । क्या करे ? आँसू बम के गोले जैसे भारी हो छोटी-छोटी आँखों में ही फँस कर रह गये । निश्चेष्ट पड़ी दिन भर धूप में पंखों को जलाती हुई गोरी के थरथराते शरीर की कंपकपाती आह सुनकर पेड़ ने अनुमान लगा लिया कि पँछी अपमानित हुआ है । नन्हीं जान के मन के हरे घाव भरने के लिए आम की कोमल नयी पत्तियों ने बाँहे फैला दीं ।
चिड़िया के पंखों में अब परवाज़ नहीं । लेकिन लौटना चाहती है पुरानी डाल पर । जहाँ से उसकी चीं-चीं किसी को न सुनाई दे ।
प्रतिभा नैथानी